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बॉलीवुड का सबसे विख्यात और 'कुख्यात' म्यूजिक मैन, जिसे मार डाला गया

जिनकी हत्या की इल्ज़ाम में एक बड़ा संगीतकार हमेशा के लिए भारत छोड़ने पर मजबूर हुआ.

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12 अगस्त 2019 (Updated: 12 अगस्त 2019, 06:55 AM IST)
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हिंदी सिनेमा और उसके संगीत के बारे में तमाम बातें होती हैं. मसलन, 70’s के बाद के गानों में वो बात नहीं रही. ब्लैक एंड वाइट टाइम में सब सहगल की तरह क्यों गाते थे. आखिर रहमान के संगीत में ऐसा क्या है! इंडी-पॉप के सितारों के ऐल्बम अब क्यों नहीं आते. ऐसे तमाम सवालों से भरी फिल्म संगीत की LP रिकॉर्ड से हेडफोन तक की, वाया डेक मशीन हुई यात्रा के किस्सों पर हम बात करेंगे. पेश है दूसरी किस्त.

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डॉन का इंतजार तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.

1978 में आई डॉन फिल्म ने हिंदुस्तान को इस डायलॉग और खई के पान बनारस वाला जैसे गानों के अलावा एक और ज़रूरी चीज़ हिंदी सिनेमा को दी. डॉन हिंदी सिनेमा की ऐसी शुरुआती फिल्मों में थी जिसके ऑडियो कैसेट बड़ी संख्या में बिके. इससे पहले गोल चक्के वाले रिकॉर्ड का ज़माना था. इस बदलाव ने कई स्तरों पर हिंदी सिनेमा और उसके संगीत को बदल दिया. म्यूज़िक इंडस्ट्री का रिकॉर्ड से कैसेट पर शिफ्ट होना सिर्फ टेक्नॉल्जी के स्तर पर बदलाव नहीं था. कैसेट में घर में ही गाने रिकॉर्ड करने, उन्हें इरेज कर के फिर से गाने भरने की सुविधा थी. कैसेट की इस खासियत को दिल्ली के दरियागंज के एक पंजाबी लड़के गुलशन कुमार दुआ ने सही समय पर पहचान लिया. गुलशन कुमार का नाम बाद में हिंदुस्तान की म्यूजिक इंडस्ट्री का सबसे बड़ा नाम बना. कैसेट किंग कहे जाने लगे गुलशन कुमार. पर इनके तरीके बहुत अलग थे.

खुद के ही कैसेट कॉपी कर बेचते थे, कानून की खामियों का फायदा उठाकर

गुलशन कुमार ने कैसेट की इस खासियत को भुनाते हुए एक नया काम शुरू किया. गुलशन ने अलग-अलग कम्पनियों के एल्बम्स से गानों को मिलाया और एक कैसेट में अमिताभ हिट्स, राजेश खन्ना स्पेशल जैसे नामों के साथ बेचना शुरू किया.
ईस्ट एशिया के देशों से आने वाली 7 रुपए की ब्लैंक कैसेट में गाने भर के बेचने की लागत तमाम स्थापित कम्पनियों के मुकाबले कहीं कम होती थी. ऊपर से टैक्स न देने के कारण रीटेल कीमत और कम हो जाती थी. रैपर पर कम्पनी का नाम पता तो होता ही नहीं था. ऊपर से कैसेट में गानों के नाम के लेबल की जगह अक्सर जय माता दी लिखा होता था. जय माता दी लिखे रहने का एक बड़ा फायदा था कि न बिकने वाले एल्बम को सुपर कैसेट (टी सिरीज़) वापस ले लेता था और री-रिकॉर्ड कर के नए एल्बम में चला देता था.
इस दौर में टी सिरीज़ ने खूब पैसा कमाया. ग्राहक और दुकानदार जहां बहुत खुश थे. HMV जैसी कंपनियों के मालिक कॉपीराइट कानून की खामियों के चलते कुछ नहीं कर पा रहे थे. दरअसल उस समय के कानून के मुताबिक किसी को कॉपीराइट उल्लंघन के चलते गिरफ्तार करने के लिए उसे ऑन द स्पॉट पकड़ना ज़रूरी था. मतलब टी-सिरीज़ के मालिक को तभी गिरफ्तार किया जा सकता था जब वो खुद कैसेट कॉपी करते पकड़े जाते.
इन कैसेट्स में आपको कहीं भी कंपनी का पता नहीं दिखेगा.
इन कैसेट्स में आपको कहीं भी कंपनी का पता नहीं दिखेगा.

निम्न मध्यमवर्ग को पहली बार अपनी पसंद से गाने सुनने का मौका दिया गुलशन कुमार ने

टी सिरीज़ की संगीत यात्रा का दूसरा दौर तब शुरु हुआ जब सुपर कैसेट ने कवर एल्बम निकालने शुरू किये. रफी की याद में, जैसे नामों से आए इन एल्बम्स में निम्न मध्यमवर्ग के तबके में बड़ी पॉपुलैरिटी पाई. असल में इससे पहले फिल्म संगीत को सुनने के दो ही ऑप्शन होते थे. पहला कैसेट और रिकॉर्ड खरीदना और दूसरा बिनाका गीतमाला जैसे रेडियो प्रोग्राम्स में गाने सुनना. पहला तरीका महंगा था और दूसरे में कौन से गाने सुनाए जाए इसको कोई और तय करता था.
कैसेट और डेक मशीन के आने साथ ही निम्न मध्यमवर्ग के पास अपनी पसंद के गाने सुनने की वो आज़ादी आई, जिसने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को हमेशा के लिए बदल दिया. कई लोग अक्सर कहते हैं कि 80 के दशक में हिंदी सिनेमा का संगीत नीचे गिरना शुरू हुआ जो मिड 90’s तक चला. इसके पीछे पश्चिम के डिस्को और पॉप संगीत के प्रभाव जैसे कारकों के साथ-साथ टी-सीरिज़ और गुलशन कुमार भी एक प्रभावी कारक थे.
एल्केमिस्ट की वो कहावत तो सुनी होगी कि किसी चीज़ को पूरी शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने की कोशिश करती है. गुलशन कुमार पूरी शिद्दत से म्यूज़िक इंडस्ट्री के किंग बनना चाहते थे और किस्मत उनकी मदद कर रही थी.
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कैसेट में म्यूज़िक डायरेक्टर का नाम ढ़ूंढ़िए

80 आते आते राजेश खन्ना का दौर गुज़र चुका था. इसके साथ ही शास्त्रीय और लोक धुनों को मेलोडी में पिरोकर बनने वाले गाने भी अतीत का हिस्सा बन गए थे. पुराने संगीतकारों को कहा जा रहा था कि या तो एक खास तरह के संगीत की नकल करके इस्तेमाल करें नहीं तो काम करना छोड़ दें.
किशोर कुमार अमिताभ बच्चन के साथ काम करने से मना कर चुके थे और इसके साथ ही ऐंग्री यंग मैन का नायकत्व अब हांफ रहा था. ऐसे में मिथुन की फिल्मों ने ज़ोर पकड़ा जिनमें हीरो कभी ट्रक ड्राइवर होता, कभी मैकेनिक, कभी समाज के ऐसे ही किसी वर्ग का रिप्रज़ेंटेटिव. अगर पुलिस वाला होता तो 70’s के विजय की तरह उसके गुस्से के साथ उसूल नहीं होते. ऐसे हीरो की लोकप्रियता इसी वर्ग में बढ़ी और उसी परिपाटी के गाने भी चलने लगे. आपको आज भी ये वर्ग उसी समय के गाने सुनता मिलेगा क्योंकि इस दौर के गुज़रते गुज़रते सिनेमा का नायक वापस NRI हो गया. इस समय में गुलशन कुमार नॉएडा से बम्बई का रुख कर चुके थे.

फिर गुलशन कुमार लाये गायकों की नई फौज, जो हर गाना गाना चाहते थे

रफी किशोर मुकेश और मन्ना डे, हिंदी सिनेमा जिन चार स्तम्भों पर खड़ा था उनमें से 3 ढह गए. विजय बेनिडिक्ट(डिस्को डांसर), शैलेंद्र सिंह (गीतकार नहीं बॉबी के सिंगर) और प्रीती सागर (जूली) जैसे नाम बड़ी उम्मीदें जगा कर गायब होते जा रहे थे. गुलशन कुमार ने इसे भुनाते हुए कुछ ऐसे गायक चुने जिनके नाम तब तक अनजाने थे मगर आवाज़ हिंदी किशोर, रफी और मुकेश का अहसास देती थी. कुमार सानू, बाबला मेहता औऱ सोनू निगम इन सबमें सबसे पॉपुलर हुए.
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विजय बेनेडिक्ट और शैलेंद्र

गुलशन ने अब एक नया काम शुरू किया पाकिस्तान और मिडिल ईस्ट के लोकप्रिय गीतों को लेकर उन्हें सीधे सीधे हिंदी गानों की तरह इस्तेमाल करना. इन गानों को हिंदी सिनेमा में एक मंच देने के लिए उन्होंने फिल्म निर्माण में भी हाथ डाले.
70 की फिल्मों में जहां दीवार और ज़ंजीर ज़्यादा थीं जिनमें डायलॉग और कहानी तो याद हैं मगर गाने कम ही याद है. वहीं 90 के दशक में ऐसी फिल्में दिखेंगी जिनमें जिनकी कहानी आपको दिमाग पर ज़ोर डालने से ही याद आए मगर गाने ज़ुबान पर रखे हुए मिलेंगे. भरोसा न हो तो लाल दुपट्टा मलमल का या गुलशन के भाई किशन कुमार की फिल्म बेवफा सनम को ही देख लीजिए. उसके सारे गाने सुपर हिट हुए थे मगर कहानी? फिल्म के गाने पाकिस्तान के मशहूर गायक अताउल्ला खान के नगमों की चोरी थे.
ये फॉर्मूला चला और खूब चला. इतना कि कभी नुसरत के गाने उदित नारायण की आवाज़ में आए तो कभी दिल दिल पाकिस्तान को दिल दिल हिंदुस्तान बनाकर पेश किया गया. इस दौर की ज़्यादातर फिल्मों में आपको 15-20 गाने मिलेंगे, कारण तो आप समझ गए होंगे.

फिर वो मीटिंग हुई जिसके बाद गुलशन कुमार की हत्या हो गई

गुलशन कुमार का प्रभाव इंडस्ट्री में बढ़ता जा रहा था. इसके साथ-साथ एक और चीज़ खतरनाक ढंग से बढ़ती जा रही थी. D कंपनी का आतंक इंडस्ट्री में बढ रहा था. फिल्मों की कहानी से लेकर कास्टिंग तक भाई के फोन पर बदल जाती थी. अगर नहीं बदलती थी तो इंसान दुनिया से चला जाता था. राजीव राय पर हमला हुआ, मुकेश दुग्गल की हत्या हुई और इसी बीच 1997 में बॉम्बे (अब मुंबई) के एक 5 सितारा होटल में एक मीटिंग हुई. इस मीटिंग में सभी बड़ी म्यूज़िक कंपनी के CEO स्तर के अधिकारी और गुलशन कुमार शामिल हुए. कहा गया कि या तो टी-सिरीज़ अपने काम करने का ढंग बदल ले या गुलशन कुमार अंजाम भुगतने को तैयार रहें. गुलशन कुमार ने वादा किया कि वो आगे से ऐसा नहीं करेंगे. गुलशन ऐसे मान जाएंगे किसी को भरोसा नहीं था. गुलशन कुमार अपना वादा निभाते या नहीं ये बात कभी पता नहीं चल सकी. क्योंकि इस मीटिंग के कुछ दिन बाद ही गुलशन कुमार की हत्या हो गई.
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कैसेट्स पर अक्सर 'जय माता दी' लिखा जाता था ताकि दुबारा रिकॉर्डिंग हो सके

गुलशन कुमार की हत्या हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अंडरवर्ल्ड के कारण हुई आखिरी हत्या थी. कैसेट किंग की मौत ने पूरे देश को हिला दिया. इसके बाद तमाम गिरफ्तारियां हुईं और अंडरवर्ल्ड का दबदबा इंडस्ट्री पर खत्म होने लगा. गुलशन कुमार की हत्या में यूनिवर्सल कैसेट के प्रमोटर और संगीकार नदीम सैफी (नदीम-श्रवण की जोड़ी वाले) गिरफ्तार हुए. इस सबके बीच मान लिया गया कि सुपर कैसेट का ज़माना अब चला गया. पर कुछ दिन तक ये स्थिति रही मगर टी-सिरीज़ की वापसी हुई और पहले से भी ज़्यादा ज़ोरदार तरीके से हुई. वो कहानी भी सुनाएंगे मगर फिर कभी और.

ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के लिए अनिमेष ने की थी.




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