इस्लाम के आने से पहले औरतों की स्थिति कैसी थी?
'इस्लाम का इतिहास' सीरीज की नौवी किस्त.

ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास' नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्त की घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी की व्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते पर चिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com
इस्लाम के पहले का अरब: भाग 9
इस्लामिक आलिमों के अनुसार इस्लाम के आने से पहले अरब में औरतों की स्थिति बहुत ही दयनीय और चिंताजनक थी. इस्लाम के आने से पहले वाले अरब को इस्लाम और उसके मानने वाले 'जाहिलियह' यानि Ignorance का दौर कहते हैं. किसी भी इस्लामिक आलिम से अगर आप जाहिलियह के दौर में औरतों की स्थिति की बात करें, तो वो अपनी बात की शुरुआत सिर्फ इस बात से करेंगे कि उस दौर के लोग बेटियां पैदा होने पर उनको ज़िंदा दफ़न कर देते थे. ये एक बहुत आम और रटी-रटाई बात है, जिसे आज के दौर का हर मुसलमान आपको दौर-ए-जाहिलियह के उदाहरण के रूप में बताता हुआ मिलेगा. इसके अलावा इस्लाम से पहले के अरब में ऐसा कोई और ज़ुल्म औरतों के ख़िलाफ़ नहीं मिलता है, जिसे कोई भी इस्लामिक आलिम आपको बता सके. क्या सच में ऐसा था? क्या बेटियां पैदा होते ही पुराने अरब के लोग उनको दफ़न कर देते थे? क्या औरतों को कोई भी अधिकार नहीं प्राप्त थे उस दौर में?
चलिए इस बात की पड़ताल करते हैं.
खलीफ़ा उमर का किस्सा
इस पड़ताल की शुरुआत मैं अल-सनाई की एक हदीस से करना चाहूंगा. Musannaf of 'Abd al-Razzaq al-Sanani' अपनी किताब में एक घटना का ज़िक्र करते हैं. पैगंबर मुहम्मद के इस दुनिया से जाने के कुछ सालों बाद एक औरत अपने मर्द ग़ुलाम सेवक के साथ सोना शुरू कर देती है. मतलब वो उसके साथ शारीरिक संबंध बना लेती है. लोग उस पर इल्ज़ाम लगाते हैं. ये मामला खलीफ़ा उमर के पास उनके न्यायालय में आता है. वो औरत अपने इस संबंध को सही साबित करने के लिए कुरान की आयत (Quran 23:1-6) का हवाला देती है. जिसमें ये कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी या गुलाम के साथ सो सकता है.
औरतों को भरपूर आज़ादी थी.
जब ख़लीफ़ा उमर ने उस औरत की ये दलील सुनी, तो उन्होंने गुस्से में कहा कि ये औरत 'दौर-ए-जाहिलियत' यानि इस्लाम के आने से पहले के दौर की तरह व्यवहार कर रही है. ये क़ुरान की उस आयत का मतलब अपने हिसाब से निकाल रही है. कुरान की ये आयत औरतों को अपने गुलाम के साथ सोने की छूट नहीं देती है, बल्कि आदमियों को देती है. इस बात से नाराज़ होकर ख़लीफ़ा उमर ने उस औरत पर पूरी उम्र शादी करने पर रोक लगा दी.

युद्ध भी लड़ती थीं औरतें.
ये हदीस इतिहास का एक टुकड़ा है. इसमें उस दौर की कई बातें पता चलती है. मगर सबसे अहम जो बात यहां हमें देखनी है, वो ख़लीफ़ा उमर का ये कथन कि ये औरत दौर-ए-जाहिलियह की तरह व्यवहार कर रही है. ये कथन इस बात की तरफ इशारा कर रहा है कि इस्लाम से पहले के दौर में औरतों को अपने गुलाम के साथ शारीरिक संबंध बनाने की उतनी ही इजाज़त थी, जितनी मर्दों को. इस्लाम आने के बाद इसे मर्दों तक सीमित कर दिया गया. ये घटना पैगंबर के इस दुनिया से जाने के कुछ सालों बाद सामने आती है. इसका मतलब ये भी निकल सकता है कि उस समय तक औरतें ऐसे संबंध बना रही थी. बाद में ख़लीफ़ा उमर ने इसको अवैध क़रार दिया. ये तो खैर अनुमान है मगर ऊपर की हदीस से एक बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि इस्लाम के पहले औरतें उतनी ही आज़ाद थीं, जितने मर्द थे.

तो सबसे पहले तो ये भ्रम यहां टूटता है कि सऊदी अरब और अन्य इस्लामिक देशों में औरतों की आज़ादी के मामले में आज जो स्थिति है इस्लाम से पहले के अरब में वो स्थिति कहीं ज्यादा बेहतर थी. यहां तक कि वो स्थिति आज के तथाकथित आधुनिक समाज से भी बेहतर थी. अपनी इस बात को आगे बढाने के लिए हम कुछ और उदाहरण देखते हैं.
ज़्यादा खुशहाल थी औरतें
बहुत मशहूर नारीवादी और इस्लाम में औरतों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाली इजिप्ट की लैला अहमद अपनी किताब (Women & Gender in Islaam) में एक हदीस का ज़िक्र करती है. इस्लाम आने के बाद इस धर्म ने औरतों को एक तरह से अवसाद से भर दिया था. इसका उदाहरण लैला अहमद, पैगंबर मुहम्मद के नवासे हुसैन की बेटी सुकैना से देती हैं. सुकैना से जब कोई पूछता है कि वो जीवन में इतना ख़ुश कैसे रहती है, जबकि उनकी बहन फातिमा हमेशा गंभीर रहती है. जिसके जवाब में सुकैना कहती हैं कि उनका नाम (सुकैना), इस्लाम के आने से पहले, दौर-ए-जाहिलियह में रहने वाली उनकी दादी के नाम पर रखा गया. जबकि फ़ातिमा का इस्लाम आने के बाद वाली दादी के नाम पर.
अल्लाह उसकी बेटियों का चित्र.
इस बात से लैला ये दलील देती है कि इस्लाम के पहले के अरब की औरतें ज्यादा खुशहाल थीं. उनको उतनी ही आज़ादी थी जितना मर्दों को होती थी. वो औरतें कहीं ज्यादा ख़ुश और प्रसन्नचित्त रहती थीं. इसकी सबसे बड़ी वजह थी उनकी आज़ादी. इस्लाम के बाद औरतों की आज़ादी पूरी तरह से छीन ली गयी. जिसका जीता-जागता प्रमाण आप आज किसी भी इस्लामिक देश में देख सकते हैं.
लैला अहमद अपनी किताब में आगे बताती हैं कि इस्लाम के पहलेवाले अरब में औरतें पुजारिन, भविष्यवक्ता, पैगंबर, योद्धा और युद्ध में नर्स का भी काम करती थीं. वो बिना डर के मर्दों के साथ वार्तालाप और बहस करती थीं.

हतून अज्वाद अल-फस्सी, जो कि King Saud यूनिवर्सिटी, सऊदी अरब में प्रोफेसर हैं और नारी अधिकार के लिए लिखती हैं. उनका इस्लाम के पहले के अरब की औरतों पर रिसर्च है. वो अपनी किताब 'Women in Pre-Islamic Arabia' में लिखती हैं कि इस्लामिक लेखक अक्सर ये लिखते हैं कि विरासत और संपत्ति का अधिकार औरतों को इस्लाम आने के बाद मिला. वो इस्लाम के पहले नहीं था. ये बिलकुल गलत बात है. ये ऐसी बात है जो कितनी ही हदीसों के साथ विरोधाभास दर्शाती है.
पैगंबर की अगर बात की जाए तो वो उन्हें विरासत में मिली थी. हम सुलाफ़ा और हुब्बा की बात करें. वो दो औरतें, जिनके पास काबा की चाभी रहती थी. जो काबा की संरक्षक थीं. जब मुसलमानों ने मक्का समेत काबा पर अधिकार किया, उसके बाद से आज तक वो चाभी किसी औरत के हाथ में नहीं गई. जिस घराने के हाथ में वो चाभी है, उसके मर्दों के पास ही इसकी चाभी हमेशा रही. यानी औरतों को विरासत में वो चाभी कभी नहीं मिली. इस्लाम के पहले के अरब में औरतों को वसीयत का पूरा अधिकार था. औरत अपनी मर्ज़ी से अपनी सम्पति किसी को भी दे सकती थी.
क्रमशः
'इस्लाम का इतिहास' की पिछली किस्तें:
Part 1: कहानी आब-ए-ज़मज़म और काबे के अंदर रखी 360 मूर्ति
यों
की
Part 2: कहानी उस शख्स की, जिसने काबा पर कब्ज़ा किया था
Part 3: जब काबे की हिफ़ाज़त के लिए एक सांप तैनात करना पड़ा
पार्ट 4: अल्लाह को इकलौता नहीं, सबसे बड़ा देवता माना जाता था
पार्ट 5: 'अल्लाह' नाम इस्लाम आने के पहले से इस्तेमाल होता आया है
पार्ट 6:अरब की तीन देवियों की कहानी, जिन्हें अल्लाह की बेटियां माना जाता था
पार्ट 8 : सफा और मारवा पहाड़ियां, जहां से देवता आसिफ और देवी नायेलह की मूर्तियां हटाई गईं
वीडियो: अयोध्या में उस आदमी का इंटरव्यू जिसने बाबरी मस्जिद तोड़ी थी!