सफा और मारवा पहाड़ियां, जहां से देवता आसिफ और देवी नायेलह की मूर्तियां हटाई गईं
'इस्लाम का इतिहास' की आठवीं किस्त.

ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास' नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्त की घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी की व्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते पर चिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com
इस्लाम के पहले का अरब: भाग 8
इस्लाम के उदय से पहले अरबों की पूजा पद्धति लगभग उसी तरह की थी जैसे अभी भी अन्य मूर्तिपूजक धर्मों में होती है. चूंकि इस्लाम के पहले का इतिहास बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है मगर जितना भी है उसके द्वारा हम उस दौर की पूजा पद्धति को थोड़ा बहुत समझ सकते हैं. इस पूजा पद्धति को समझने की शुरुआत हम बुख़ारी की एक हदीस से करेंगे. हदीसों में काफ़ी कुछ ऐसा मिल जाता है जो आपको इस्लाम से पहले के अरब की अच्छी ख़ासी झलक देता है.
सहीह बुख़ारी, खंड 005, किताब 059, हदीस नंबर 661 के मुताबित अबू रजा अल-उसारिदी कहते हैं- हम लोग पत्थरों की पूजा करते थे. जब हमें अपने पहले पूज्य पत्थर से बेहतर पत्थर मिल जाता तो पहले वाले को हम फ़ेंक देते थे. मगर जब हमें कोई पत्थर नहीं मिल पाता था तो थोड़ी सी मिट्टी इकठ्ठा करके उसे आकार देते थे. फिर एक भेड़ ला कर उसका दूध उस मिट्टी के बने हुए आकार पर डालते थे और फिर उसकी परिक्रमा करते थे. जब रजब का महीना आता था तो इस महीने में हम सारे युद्ध बंद कर देते थे. इस महीने को हम "लौह निषेध" महीना कहते थे. और हम अपने भाले और धनुष से सारा लोहा निकाल कर फ़ेंक देते थे. अबू-रजा आगे कहते हैं कि जब पैगम्बर मुहम्मद को अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ, उस समय मैं एक छोटा बच्चा था जो अपने गड़रिया परिवार के साथ ऊंट पालन करता था. जब हमें पता चला कि कोई नया अल्लाह का पैगम्बर आया है तो हम अग्नि की ओर भाग गए थे. (अग्नि मतलब मुसैलिमा, जो उस समय पैगम्बर माना जाता था. इसके बारे में आगे के अद्ध्याय में डिटेल दी जायेगी.)
इस हदीस में अबू-रजा जिस पूजा पद्धति को बता रहे हैं वो लगभग उसी तरह की है जैसे हिन्दू/सनातन धर्म में आज भी प्रचलित है. इस्लाम के पहले के अरब के लोग जब सफ़र में होते थे तो इसी तरह पत्थर उठा कर, जो कि छोटे स्तम्भ के आकार का होता था, उसकी पूजा करते थे. और अगर स्तम्भ के जैसा पत्थर इन्हें नहीं मिलता था तो ये मिट्टी से स्तम्भ बना लेते थे और उस पर दूध उड़ेल कर उसकी परिक्रमा करते थे. ये बिलकुल उसी तरह है जैसा हिन्दू आज भी शिवलिंग की करते हैं. मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिल सका है कि पुराने अरब के लोग इसे शिवलिंग या ऐसा कुछ समझते थे.
काबा और अन्य मंदिरों के पुजारी हमेशा सफ़ेद कपड़े पहनते थे. वो बिना सिले हुए कपड़े होते थे जिसे शरीर पर लपेटा जाता था. ये उसी तरह से होता था जैसे आज कल के हज में हाजी अहराम लपेटते हैं. सफ़ेद कपड़ों को अन्य धर्मों के पुजारी भी पहनते थे और आज भी पहनते हैं. काबा में देवताओं को सुबह शाम धूनी दी जाती थी. उनकी स्तुति पढ़ी जाती थी और दंडवत होकर, जैसा कि आज के नमाज़ में होता है, उन्हें सजदा किया जाता था और काबा और उसके आस पास की अन्य मूर्तियों की सात बार परिक्रमा की जाती थी.
उस दौर में भी हर किसी की पूजा पद्धति एक जैसी नहीं थी मगर ज़्यादातर की ऐसी ही थी. लोग विभिन्न देवताओं और विभिन्न भविष्यवक्ताओं के हिसाब से अपनी पूजा पद्धति को अंजाम देते थे. किसी के लिए अग्नि प्रमुख थी तो किसी के लिए जिन्न. अग्नि एक तरह से जिन्न का ही प्रतिनिधित्व करती थी. जैसा कि पहले के अध्याय में बताया जा चुका है कि हज और उस से जुड़ी सारी प्रथाएं मूर्तिपूजक अरबों की ही हैं. हज के दौरान जहां अब सिर्फ एक अल्लाह की उपासना की जाती है वहीं इस्लाम के पहले के अरब में तमाम देवी देवताओं की मिली जुली उपासना होती थी. हज की पूजा पद्धति का तरीक़ा आस पास के क्षेत्र और उनकी मान्यताओं के हिसाब से मिला जुला था.
उदाहरण के लिए- हज के दौरान की जाने वाली एक उपासना सफा और मरवह नामक दो पहाड़ों के बीच दौड़ लगाना. काबा के पास दो छोटी पहाड़ियां स्थित हैं जिन्हें सफा और मरवह कहा जाता है. इस्लाम के पहले के अरब में हज के दौरान हाजी इन दोनों पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाते थे. ये परंपरा आज भी इस्लाम के हज में जस की तस है. इस्लाम के पहले के हज में सफा और मरवह पर एक देवता आसिफ़ (आसफ) और देवी नायेलह की मूर्तियां लगी हुई थीं. हाजी पहले एक पहाड़ी पर देवता के पास जाते थे और फिर दूसरी पहाड़ी पर देवी के पास. इस तरह वो दोनों पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाते थे. ये उनके हज के कर्मकांड का एक हिस्सा था.

सफा और मरवह नामक दो पहाड़ों के बीच दौड़ लगाना
इस्लाम के उदय के बाद सफा और मरवह की दोनों पहाड़ियों से देवी और देवता की मूर्तियां हटा दी गईं मगर दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ने की परंपरा जस की तस बनी रही जो आज भी वैसी ही है. इस्लाम आने के बाद पैगम्बर के साथ मदीने से मक्के आये हुए मुसलमानों ने इस परंपरा को निभाने से मना कर दिया क्यूंकि उन्हें पता था यह एक मूर्तिपूजक परंपरा है. काबा को तो किवदंतियों द्वारा पैगम्बर इब्राहीम का काबा मान लिया गया था मगर इन परम्पराओं को उस समय तक पैगम्बर इब्राहीम की किसी भी किवदंती से जोड़ा नहीं जा सका था. चूंकि मूर्ति पूजा को तुरंत ही मक्का से हटाया गया था इसलिए उस से जुडी परम्पराओं को करने से मदीना से आने वाले मुसलमान मना कर रहे थे क्यूंकि उन्हें तो भली भांति पता था कि ये किस परम्परा का हिस्सा है.जब नए नए धर्म परिवर्तित लोगों ने सफा और मरवह के बीच की पहाड़ियों के बीच दौड़ने से मना किया तो इस परंपरा के सपोर्ट में कुरान की एक आयत आई. कुरान 2:158 कहती है कि:
"बेशक सफा और मरवह अल्लाह के प्रतीकों में से एक है. और जो कोई भी हज या उमरह करने आता है और इन दोनों पहाड़ियों के बीच चलता है तो उसके ऊपर कोई इलज़ाम नहीं लगेगा."
चूंकि मदीने से आए हुए हाजी ये सोच रहे थे कि अगर वो इन दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ते हैं तो अल्लाह मरने के बाद में उन्हें मूर्तिपूजक होने का इलज़ाम लगा देगा. इसलिए वो इस परंपरा को करने से इनकार कर रहे थे. मगर फिर जब ये आयत आई तब उन लोगों ने इस परंपरा को स्वीकार कर लिया.
अल-तब्राई अपनी किताब तफसीर-अल-तब्राई में कहते हैं कि- पैगम्बर की पत्नी आयशा कहती हैं कि इसाफ (आसिफ या आसफ़) की मूर्ति सफा की पहाड़ी पर थी और नायेलह की मरवह पर और हाजी लोग उन्हें चूमते थे (दौड़ के इस मूर्ति को फिर उस मूर्ति को.) इस्लाम अपनाने के बाद वो लोग इसे करने में आनाकानी कर रहे थे, तब कुरान की आयत 2:158 आई.

Source: Islamic landmarks
इसी कड़ी में बुख़ारी की हदीस खंड 2, किताब 26, हदीस 706 भी इसी घटना की पुष्टि करती है. ऊपर की आयतों और हदीसों से ये बात साबित होती है कि हज में सफा और मरवह के बीच की पहाड़ियों में दौड़ने की घटना पूरी तरह से मूर्तिपूजकों की अपनी मान्यता थी और मुहम्मद साहब के समय तक इसके साथ पैगम्बर इब्राहीम की कोई भी जुड़ी किवदंती ज्ञात नहीं थी.
आज के इस्लाम में सफा और मारवाह के बीच दौड़ने के पीछे ये कहानी कही जाती है कि "पैगम्बर इब्राहीम द्वारा घर से निकाल दिए जाने पर उनकी बीबी हाजरा अपने दूध पीते बच्चे इस्माईल को लेकर मक्का चली आती है. थकी हारी हाजरा इस्माईल को दोनों पहाड़ियों के बीच छोड़कर पानी की तलाश में कभी सफा की पहाड़ी पर चढ़ती हैं तो कभी मरवह की. ऐसा वो सात बार करती हैं. और अंत में वो देखती हैं जिब्राईल नाम का फ़रिश्ता इस्माईल के लेटे होने वाली जगह के पास ही एक पानी का कुवां खोद देता है और वहां से पानी निकलने लगता है. जिसे आज हम ज़मज़म के नाम से जानते हैं."
आज के मुसलमान हाजरा के सफा और मरवा की पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाने की इस किवदंती को पैगम्बर इब्राहीम के वंश से जुडी परंपरा मान कर हज में इसी परंपरा को अंजाम देते हैं. क्रमशः
‘इस्लाम का इतिहास’ की पिछली किस्तें:
Part 1: कहानी आब-ए-ज़मज़म और काबे के अंदर रखी 360 मूर्ति
यों
की
Part 2: कहानी उस शख्स की, जिसने काबा पर कब्ज़ा किया था
Part 3: जब काबे की हिफ़ाज़त के लिए एक सांप तैनात करना पड़ा
पार्ट 4: अल्लाह को इकलौता नहीं, सबसे बड़ा देवता माना जाता था
पार्ट 5: ‘अल्लाह’ नाम इस्लाम आने के पहले से इस्तेमाल होता आया है
पार्ट 6:अरब की तीन देवियों की कहानी, जिन्हें अल्लाह की बेटियां माना जाता था
पार्ट 7: कहानी काबा में लगे काले पत्थर की, जिसके बारे में अलग-अलग किस्से मशहूर हैं