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आज़ादी के जश्न में महात्मा गांधी क्यों मौजूद नहीं थे?

अहिंसा को लेकर गांधी का अंतिम प्रयोग क्या था?

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नोआखाली में गांधी (तस्वीर: wikimedia )
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कमल
13 अगस्त 2021 (Updated: 13 अगस्त 2021, 06:34 AM IST) कॉमेंट्स
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आज है 13 अगस्त और आज की तारीख़ का संबंध है बंगाल के दंगों से.
अगस्त का महीना यानी आज़ादी का महीना. पिछले कुछ क़िस्सों में हमने आपको आज़ादी के यज्ञ में आहुति देने वाले लोगों की कहनियां बताईं. खुदीराम बोस से लेकर राम प्रसाद बिस्मिल तक. और आज़ादी के बाद भारत के निर्माण में योगदान देने वाले कुछ महान वैज्ञानिकों की कहानी भी सुनाई, जैसे डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा और डॉक्टर सुभाष मुखर्जी.
इतिहास जब बन रहा होता है तो वो किसी निश्चित ढर्रे पर नहीं चलता. ईश्वर पर विश्वास करने वाले मानते हैं कि ईश्वर एक कहानी लिख रहा था. और ना मानने वाले भी ये ज़रूर मानते हैं कि लगभग 1400 करोड़ वर्ष पहले किसी परम अणु ने एक अंगड़ाई ली, जिसके नतीजतन वर्तमान का ये महान दृश्य हमारे सामने उजागर हो रहा है. डेस्टिनी से मुलाक़ात  इस ‘नॉट सो इनफाइनाइट’ ब्रह्माण्ड के इस छोटे से हिस्से में अगस्त 1947 में इतिहास एक बड़ी करवट ले रहा था. इस महा उपन्यास में एक सुनहरा चैप्टर जुड़ने जा रहा था. एक क्लीशे है कि भोर से पहले की रात सबसे अंधेरी होती है. पर क्लीशे के क्लीशे होने का वाजिब कारण होता है. 15 अगस्त की उस सुबह से पहले कई भयानक काली रातें बाक़ी थीं.
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आज़ादी की घोषणा करते हुए जवाहर लाल नेहरू (तस्वीर: wikimedia)


15 अगस्त, रात 12 बजे जब नेहरू ‘Tryst with Destiny’ की उद्घोषणा कर रहे थे, एक ख़ास व्यक्ति वहां मौजूद नहीं था. महात्मा गांधी अपने नामकर्ता, गुरुदेव टैगोर की धरती पर एक जले हुए मकान की पहली मंज़िल पर सो रहे थे. जिस आज़ादी के लिए महात्मा गांधी नंगे पांव पूरा भारत घूमे थे, जब वो मिली तो उसका जश्न मनाने के बजाय गांधी बंगाल पहुंचे हुए थे.
जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया,
‘मेरे लिए हिंदू-मुस्लिम एकता आज़ादी का जश्न मनाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है. मैं 15 अगस्त की ख़ुशी नहीं मना सकता. मैं आप लोगों को धोखा नहीं देना चाहता. हालांकि मैं आपसे ये नहीं कहूंगा कि आप भी खुशियां ना मनाएं. दुर्भाग्य से जैसी आज़ादी हमें आज मिली है, इसने भारत और पाकिस्तान के बीच भविष्य की दुश्मनी के बीज बो दिए हैं’
दिल्ली में रहने के बजाय गांधी बंगाल में क्यों रुके हुए थे? ये समझने के लिए हमें इससे एक साल पहले के घटनाक्रम को जानना होगा.
मई 1946 में ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर क्लीमेंट एटली ने एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा, ताकि सत्ता हस्तांतरण की शर्तें तय हो सकें. 16 जून 1946 को इस मिशन ने एक वैकल्पिक योजना का प्रस्ताव दिया. जिसके हिसाब से भारत दो हिस्सों में बांट दिया जाता. हिंदू मैजॉरिटी वाला हिस्सा भारत और मुस्लिम मैजॉरिटी वाला पाकिस्तान. जिन्ना को ये प्रस्ताव स्वीकार था लेकिन कांग्रेस ने इसे ख़ारिज कर दिया. इसके जवाब में 16 अगस्त 1946 को जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया. जिसका इरादा था कि भारत में रहने वाले मुस्लिम, प्रदर्शन के माध्यम से पाकिस्तान बनाने का समर्थन करें.
उन दिनों सभी प्रांतों के अपने-अपने प्रधानमंत्री हुआ करते थे. बंगाल के प्रधानमंत्री थे हुसैन सुहरावर्दी. डायरेक्ट एक्शन का ऐलान हुआ तो सुहरावर्दी ने पुलिस को एक दिन की छुट्टी दे दी. साथ ही साथ पूरे बंगाल बंद का ऐलान भी कर दिया. उस वक़्त बंगाल में हिन्दू महासभा भी मारवाड़ी व्यापारियों के साथ अपना सपोर्ट जुटा रही थी. हिंदू महासभा ने इस बंद का विरोध किया. नतीजतन बंगाल हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया. 16 अगस्त को प्रदर्शन के साथ झड़प शुरू हुई और दंगे में बदल गई. ये दंगा 6 दिन तक चला जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई और लाखों बेघर हो गए.
इस दौरान हुसैन सुहरावर्दी पर ये इल्जाम लगा कि वो खुद लालबाज़ार पुलिस थाने में जाकर दंगों का मुआयना कर रहे थे. आरोप ये भी कि उन्होंने लोगों को मारने के लिए पुलिस को खुली छूट दे रखी थी. बंगाल में गांधी बंगाल की हालत देख अक्टूबर 1946 में गांधी कलकत्ता पहुंचे. वहां से 6 नवम्बर को वह नोआख़ाली गए. नोआख़ाली एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा था जहां दंगों में हज़ारों हिंदू मारे गए थे. हिंसा के शिकार लोगों के सामने कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था. कभी साथ मिलकर रहने वाले एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे थे. ऐसे में गांधी ने नोआख़ाली के हर एक गांव का दौरा किया. ऐसा ना था कि उनका वहां स्वागत हुआ हो. लोग उनके रास्ते में खड्डे खोदकर उनमें गोबर भर देते थे. इसके बावजूद वो नंगे पैर पूरे इलाक़े में घूमे. उनके साथियों ने उनसे चप्पल पहनने को कहा तो वो बोले-
नोआख़ाली एक शमशान है. यहां हज़ारों बेक़सूर लोगों की समाधियां हैं और समाधि पर चप्पल पहनकर नहीं जाया जाता.
स्थानीय नेताओं की मदद से गांधी ने लोगों से शांति की अपील की. जिसका ये असर हुआ कि नोआख़ाली और आसपास के ज़िलों में हिंसा थम गई. चार महीने नोआख़ाली में रहने के बाद फ़रवरी 1947 में वह वापस लौट गए.
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नोआखाली में गांधी की यात्रा का रूट (तस्वीर: erenow)


9 अगस्त 1947 को गांधी दुबारा कोलकाता पहुंचे. उन्हें आशंका थी कि 15 अगस्त के बाद दंगे दुबारा भड़क सकते हैं. बंगाल प्रशासन के अधिकतर मुस्लिम अधिकारी पाकिस्तान जाने की तैयारी कर चुके थे. उन्हें डर था कि पार्टिशन के बाद वहां रहने वाले हिंदू पिछले साल हुए दंगों का बदला लेंगे. इसलिए जब गांधी वहां पहुंचे तो वो स्थानीय मुस्लिमों को लेकर गांधी से मिलने पहुंच गए. उन्होंने गांधी से कहा कि वह नोआख़ाली ना जाकर कलकत्ता ही रुक जाएं.
उस दौरान हुसैन सुहरावर्दी कराची में थे. जैसे ही उन्हें महात्मा गांधी के कोलकाता पहुंचने की खबर मिली, वह भी आ गए. गांधी नोआख़ाली जाने की ज़िद पर अड़े थे. सुहरावर्दी ने उनसे कहा कि पिछले साल भी दंगे कोलकाता से ही शुरू हुए थे. ऐसे में अगर वह कोलकाता रुक गए तो दंगे नहीं होंगे. ऐसा कहकर वह गांधी से वहीं रुकने की मिन्नतें करने लगे. ये वही व्यक्ति था, जो एक साल पहले तक गांधी को ‘दैट ओल्ड फ़्रॉड’ यानी धोखेबाज बूढ़ा कह रहा था. गांधी, वापस जाओ गांधी का उद्देश्य इन पर्सनल बातों से कहीं ऊंचा था. गांधी वहां अहिंसा का आख़िरी एक्स्पेरिमेंट करने पहुंचे थे. उनका कहना था कि अगर अहिंसा में कोई भी ताक़त है तो इन हालातों में उसकी असली परीक्षा हो जाएगी. और अगर अहिंसा हार गई तो ये बताने वाला मैं पहला व्यक्ति होना चाहता हूं.
महात्मा गांधी ने सुहरावर्दी के सामने एक शर्त रखी. शर्त ये थी कि सुहरावर्दी भी उनके साथ वहीं रुकें. गांधी ने उनसे कहा कि उनकी सुरक्षा के लिए कोई पुलिसवाला भी नहीं होना चाहिए. गांधी का मानना था कि ये उनके अपने लोग थे और अपने लोगों से मिलने के लिए सुरक्षा कैसी. इसके साथ-साथ गांधी ने उनसे कहा कि अगर वह वहां रुके तो नोआख़ाली में दंगा ना हो, इसकी ज़िम्मेदारी सुहरावर्दी की होगी. सुहरावर्दी ने गांधी की शर्तों को मान लिया. इसके बाद उन्होंने नोआख़ाली में दंगों के सरग़ना ग़ुलाम सरवर को एक तार भेजा. तार में लिखा था कि किसी भी क़ीमत पर नोआख़ाली में अमन-चैन बरकरार रहना चाहिए.
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सुहरावर्दी के साथ महात्मा गांधी (फ़ाइल फोटो)


12 अगस्त, 1947 को गांधी 150 बी, डॉ . सुरेशचंद्र बनर्जी रोड, कलकत्ता स्थित हैदरी मंजिल पहुंचे. घंटों के भीतर हैदरी मंज़िल के आगे हज़ारों की भीड़ इकट्ठा हो गई. ये लोग हाथ में काले झंडे लिए हुए थे और नारा लगा रहे थे-
‘गांधी, वापस जाओ’.
उनकी शिकायत थी कि गांधी मुसलमानों को बचाने आए हैं और उन्हें हिंदुओं की कोई फ़िक्र नहीं है. ख़ैर महात्मा पर इस विरोध का कोई फ़र्क़ ना पड़ा. उन्होंने सुहरावर्दी के साथ मिलकर अगले दिन का प्लान तय किया. प्लान के मुताबिक़, अगले दिन एक पब्लिक मीटिंग रखी गई. ये मीटिंग हुई आज ही के दिन यानी 13 अगस्त 1947 को.
जैसे ही गांधी मीटिंग में पहुंचे, भीड़ ने फिर नारे लगाने शुरू कर दिए. भीड़ ग़ुस्से से भरी हुई थी. सुहरावर्दी, जो उस समय तक पीछे खड़े हुए थे, गांधी ने उन्हें आगे कर दिया. ये देखकर लोग और भी तिलमिला उठे. एक आदमी ज़ोर से चिल्लाया,
‘पिछले साल तुम्हारे ही कारण नरसंहार हुआ था. क्या तुम इसकी ज़िम्मेदारी लेते हो?’
सुहरावर्दी ने जवाब दिया,
‘हां! मैं इसकी पूरी ज़िम्मेदारी लेता हूं. और मैं इसके लिए बहुत शर्मिंदा हूं’.
इसके बाद गांधी ने बोलना शुरू किया. उन्होंने लोगों से कहा,
‘तुम्हें अपने मुसलमान भाइयों को माफ़ कर देना चाहिए. अगर तुम उनकी सुरक्षा करोगे तो मैं वचन देता हूं कि नोआख़ाली में हिंदू भी सुरक्षित रहेंगे’.
भीड़ शांत हो गई. मीटिंग ख़त्म भी नहीं हुई थी कि एक पुलिसवाला दौड़ता हुआ आया. उसने बताया कि शहर में जगह-जगह हिंदू और मुसलमान साथ मिलकर झंडा फहरा रहे हैं. ये गांधी की कोशिश का नतीजा ही था कि 15 अगस्त को बंगाल में कमोबेश शांति रही. अगले दिन मुस्लिम लीग के अख़बार में छपा,
‘गांधी मरने को तैयार थे, ताकि हम शांति से जी सकें.
ये खबर जब लॉर्ड माउंटबेटन तक पहुंची तो उसने गांधी को एक ख़त लिख़ा,
‘पंजाब में 55 हज़ार सैनिक बल तैनात हैं और फिर भी हम दंगों को रोकने में नाकाम रहे. बंगाल में फ़ोर्स के नाम पर केवल एक आदमी है और इसके बावजूद वहां दंगे नहीं हो रहे. एक सर्विंग ऑफ़िसर के नाते, अगर मुझे इजाज़त हो तो मैं इस ‘वन मैन बाउंड्री फ़ोर्स’ को शुक्रिया अदा करना चाहता हूं’.
इधर बंगाल में जहां शांति थी, वहीं पंजाब में बंटवारे ने मौत का तांडव खड़ा कर दिया था. दोनों तरफ़ ट्रेन के डिब्बों में भर-भरकर लाशें भेजी जा रही थीं. इसकी खबर जब बंगाल पहुंची तो वहां दुबारा हिंसा भड़क उठी. कोई चारा न देखते हुए गांधी ने आमरण अनशन का ऐलान कर दिया. 4 सितम्बर को जब उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई तो दंगों के सरग़ना खुद गांधी के पास आए और उनके पैरों में हथियार रखकर क़सम खाई कि अब दंगे नहीं होंगे.
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पार्टिशन के दौरान रेल से पाकिस्तान जाते लोग (तस्वीर: wikimedia)


इसके बाद गांधी 7 सितम्बर को दिल्ली आ गए. जनवरी 1948 में विभाजन को पांच महीने बीत गए थे. गांधी ने कहा कि अब वह पाकिस्तान जाएंगे. वहां जाकर मुस्लिमों को समझाएंगे कि हिंदू भी उनके भाई हैं. जब उनसे कहा गया कि पाकिस्तान जाने के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत होगी, तो वो बोले- मेरा ही देश है. अपने देश जाने के लिए पासपोर्ट क्यों लूंगा?
लेकिन ये हो ना सका. और उससे पहले ही उनकी हत्या कर दी गई. गांधी को कभी एक संत, तो कभी एक राजनेता की तरह देखा गया. लेकिन खुद को वह एक वैज्ञानिक की तरह देखते थे. माई एक्स्पेरिमेंट्स विद ट्रूथ में वो लिखते हैं,
‘मुझे आत्मकथा नहीं, बल्कि इस बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए हैं, उनकी कथा लिखनी है. इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता (finality) का दावा नहीं करता. जिस तरह एक वैज्ञानिक बहुत बारीकी से प्रयोग करता है, फिर भी उसके नतीजों को फ़ाइनल नहीं कहता. अपने प्रयोगों के बारे में मेरा भी ऐसा ही दावा है. मैंने बहुत आत्म-निरीक्षण किया है. एक-एक बात को जाना-परखा है. किंतु इसके परिणाम सबके लिए सच हैं या केवल वे ही सच हैं, ऐसा दावा मैं कभी नहीं करना चाहता’.

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