The Lallantop
Advertisement

रेगिस्तान से हिंदुस्तान आने में रमादान बन गया रमज़ान

यहां रमज़ान का महीना रोज़े और ईद के अलावा एक बहस लेकर आता है. कि ये रमज़ान है या रमादान. इस बहस को खत्म करने का वक्त आ गया है.

Advertisement
Img The Lallantop
Image: PTI
pic
लल्लनटॉप
8 जून 2016 (Updated: 8 जून 2016, 01:27 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
ताबिश सिद्दीकी पेशे से बिजनेसमैन हैं. लखनऊ में आशियाना है. फेसबुक पर एक्टिव रहते हैं और धार्मिक कुरीतियों की खूब खबर लेते हैं. खुले दिल और दिमाग वाले प्यारे इंसान हैं. मजहब की बुराइयोें पर उंगली उठाने की वजह से अक्सर कट्टर लोगों के निशाने पर रहते हैं. घर परिवार से लेकर गली मोहल्ले तक बैर बांधे रहते हैं लोग. लेकिन गुरू आदमी को आजकल खुले खयालात रखने की भी कीमत चुकानी ही पड़ती है. बहरहाल हम यहां भड़काऊ टाइप नहीं बतियाते हैं. बात करते हैं रमज़ान की. जिसके बारे में लोगों को तगड़ा कनफ्यूजन है. ये रमज़ान है या रमादान. इसपर बड़े कायदे की बात लिखी ताबिश ने. हम उनकी फेसबुक पोस्ट यहां उठा लाए. पढ़ लो.tabish

  अरबी में 'द' का जिस तरह उच्चारण होता है उस 'द' जैसा हिंदी में 'द' नहीं होता है. हमारा 'द' थोड़ा कम कर्कश होता है. इसलिए जब यहां "रमादान" शब्द अरबी से आया तो फ़ारसी, हिंदी, और उर्दू की वजह से उसे "रमज़ान" कर दिया गया. क्यूंकि अरबी के 'द' जैसा कोई शब्द नहीं था हमारे यहाँ. और 'ज़' कानों को सुनने में भी अच्छा लगता था. तो रमज़ान भारतीय संस्करण है रमादान का. ये लोगों पर निर्भर करता है कि वो क्या बोलना चाहते हैं. सूफ़ी पंथ की भाषा फ़ारसी है जिसमें रमज़ान कहना ही पसंद किया जाता रहा है. मगर इधर कुछ सालों से जब से इस्लाम के "वहाबी" संस्करण का अधिक बोलबाला हुआ है भारत में तब से लोगों ने "रमादान" कहना शुरू कर दिया है. क्यूंकि वो जाने और अनजाने अरबी को अधिक वरीयता दे रहे हैं. ये चलन शुरू तो किया समझदार लोगों ने जान बूझ कर मगर भीड़ अनजाने में उसको फॉलो करने लगी. ऐसे ही इधर कुछ सालों में आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि लोग अब "अल्लाह हाफ़िज़" अधिक कहते हैं "ख़ुदा हाफ़िज़" की जगह. ये भी "वहाबी" चलन है और बहुत समझदारी से इसको भी लोगों की आम बोल चाल में शामिल करवा दिया गया. मैंने तो जब से कई लोगों से सुना कि "ख़ुदा हाफ़िज़" नहीं कहना चाहिए बल्कि "अल्लाह हाफ़िज़" ही बोलना चाहिए तब से मैं अब "ख़ुदा हाफ़िज़" ही बोलता हूँ. और शुरू से मैंने वही पसंद किया है. इस पर पाकिस्तान में भी बहुत बहस चली है और अब वहां के सेक्युलर और लिबरल लोग "ख़ुदा हाफ़िज़", "रमज़ान", "आदाब" जैसे शब्दों को बोलने पर अधिक दबाव देते हैं. क्यूंकि ऐसे ही धीरे-धीरे वहां अरबी संस्कृति, बोलचाल और भाषा को इस्लाम समझा जाने लगा था. और कट्टर वहाबी मानसिकता का बहुत बोलबाला हो गया था जिनके लिए "ख़ुदा" मतलब अल्लाह नहीं होता है. आप रमादान बोलें या रमज़ान, फर्क कोई नहीं है मगर इसके पीछे एक दूसरी मानसिकता काम कर रही है. जिसके सपोर्ट में मैं कभी नहीं रहा हूँ. मेरे लिए रमज़ान, ख़ुदा हाफ़िज़ जैसे शब्द हमेशा प्राथमिकता में रहे हैं और रहेंगे.

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement