किस्सा बुलाकी साव- 21, बुलाकी अंग्रेजी शराब नहीं पीता
उमाधर सिंह अमीरों के घर डकैती करते और ग़रीब-गुरबों में बांट देते. उनके गांव पुलिस न पहुंचे, इसलिए उन्होंने बागमती पर पुल नहीं बनने दिया.
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फोटो क्रेडिट- सुमेर सा

अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की बीस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है इक्कीसवीं किस्त, पढ़िए.
नहीं देखना देखने से ज्यादा देखना होता है! लहेरियासराय कचहरी के सामने बड़ी गहमागहमी थी. बुलाकी साव उन दिनों कचहरी में स्टांप पेपर बेचने का काम करता था. मैं उसके पास ही बैठा था. गर्मियों के दिन थे. हवा ठहरी हुई थी. कचहरी के बाहर अमलतास के पेड़ों पर पीले फूलों का लटकता हुआ गुच्छा ख़ामोशी से उस्ताद और जमूरे का खेल देख रहा था. ग्राहक थे नहीं, तो मैंने बुलाकी साव से कहा कि चलो ज़रा हम भी देखें. लोगों की भीड़ के बीच से जगह बनाते हुए हम सबसे आगे चले गये. हमने देखा कि कुछ नौजवान लड़के खेल दिखा रहे हैं. उनमें दो लड़कियां भी हैं, जिन्होंने जींस पैंट और बिना बांह वाली टीशर्ट पहन रखी है. मैं आंखें फाड़ कर उनके खेल देख रहा था और धीरे-धीरे वो खेल मौजूदा सरकार की धज्जियां उड़ाने में बदल गया. सन '93 का साल था और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में राजनीति का माहौल उबल रहा था.
खेल ख़त्म हुआ, तो मैंने उनमें से एक लड़के से पूछा - कौन हैं आपलोग? मालूम पड़ा कि वे लोग दिल्ली से आये हैं और उनकी टीम का नाम निशांत नाट्य मंच है. मैंने उनकी टीम में शामिल होने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने कहा कि वे तो दिल्ली लौट जाएंगे - लेकिन आप कल सुबह कॉमरेड उमाधर सिंह के ऑफिस में आ जाइए. उमाधर सिंह का नाम मैंने बचपन से सुन रखा था. उनके बारे में कई किंवदंतियां मशहूर थीं. हम सुनते आये थे कि वे अमीरों के घर में डकैती करते हैं और ग़रीब-गुरबों में बांट देते हैं. उनका गांव सिनवारा बागमती नदी के उस पार आहिल गांव से सटा हुआ था. पुलिस आसानी से उनके गांव न पहुंच पाये, इसलिए उन्होंने बागमती पर पुल नहीं बनने दिया था. उनके जीवन के अंतिम दिनों में वह पुल बन पाया. तब वह हमारे विधानसभा क्षेत्र के विधायक थे.
दूसरे दिन सुबह नौ बजे मैं बुलाकी साव की साइकिल लेकर उमाधर सिंह के ऑफिस पहुंच गया. केएस कॉलेज के पीछे मदारपुर नाम की बस्ती में उनका ऑफिस था. किसी ने रोका-टोका नहीं. बरामदे पर खड़ी निशांत नाट्य मंच की एक लड़की मिल गयी. अच्छी तरह याद है कि मुझे देख कर उसने एक आकर्षक मुस्कान छोड़ी थी. वही लड़की मुझे कमरे में लेकर गयी, जहां बाक़ी साथी बैठे थे. एक चौकी पर उखड़ी हुई दाढ़ी वाले एक बुज़ुर्ग बैठे थे. उन्होंने खड़े होकर मेरा स्वागत किया और मेरा नाम और गांव पूछा. मैंने बताया तो वे बोले, हम तुम्हारे बाबा लगेंगे. मेरा नाम उमाधर प्रसाद सिंह है. मैं उन्हें अपने सामने देख कर चकित चकित सा था. उनके मीठे प्रेमपूर्ण बर्ताव में भीगे मेरे हाथ उनके पांव तक पहुंच गये. उन्होंने मुझे गले लगाया और अपने पास बिठा लिया.
निशांत नाट्य मंच की टीम उसी दिन शाम को ट्रेन से पटना जाने वाली थी. वहां से फिर दिल्ली. उन दिनों शहीद एक्सप्रेस चली नहीं थी, जो दरभंगा से सीधे दिल्ली पहुंचाती थी. अब तो दरभंगा से दिल्ली तक बड़ी लाइन हो गयी है और तीन-तीन ट्रेन चलती है. उस लड़की ने मुझसे कहा कि आप दरभंगा में निशांत नाट्य मंच की एक शाखा बनाओ. अपने जैसे लड़कों को जुटा कर नाटक करो. उमाधर भाई आपकी मदद करेंगे. तो हम जिसे खेल समझ रहे थे, वह दरअसल नाटक था. ऐसा नाटक जो मंच पर नहीं, सड़कों पर होता था. फिर मैं अक्सर मदारपुर जाने लगा, जहां उमाधर सिंह के गेट पर लिखा रहता था - केंद्रीय कार्यालय, सीपीआई एमएल (न्यू डेमोक्रेसी). वहां हर आदमी से मेरी जान-पहचान हो गयी. मगर महीने भर की कोशिश के बाद भी नाटक की टीम नहीं बन पायी और मैंने उमाधर सिंह के यहां जाना छोड़ दिया.
एक दिन बुलाकी साव के पास बैठ कर मैं यही दुखड़ा रो रहा था कि हायाघाट और थलवारा हॉल्ट के बीच एक बड़ी ट्रेन दुर्घटना की ख़बर आई. ऐसी किसी भी ख़बर से बुलाकी साव विचलित हो जाता था. पता चला कि साठ लोग मारे गये हैं और सैकड़ों घायल होकर डीएमसीएच (दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल) लाये जा रहे हैं. बुलाकी साव मुझे लेकर अस्पताल गया, जहां मैंने उमाधर सिंह को घायलों का हालचाल लेते हुए देखा. मैंने पांव छूकर उन्हें प्रणाम किया. बुलाकी साव से मिलवाया. उन्होंने कहा कि तुम दोनों यहां दो-तीन घंटे रहो. शाम को ऑफिस आना. उस शाम उमाधर सिंह ने मुझे और बुलाकी साव को उसी कमरे में बिठाया था, जहां पटना से आये पीटीआई के पत्रकार उमाधर सिंह से शराब पीते हुए अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे. उमाधर सिंह ने बुलाकी साव की तरफ भी एक गिलास बढ़ाया, लेकिन उसने कहा कि मैं अंग्रेज़ी शराब नहीं पीता.
रात में हम वहीं रुक गये. उसी रात बुलाकी साव ने बताया कि उमाधर सिंह मसीहा आदमी हैं. मुझे तब मसीहा का मतलब पता नहीं था. लगा कि वह कुछ बुरा बोल रहा है और मैं भी चूंकि निशांत नाट्य मंच की शाखा नहीं बन पाने से दुखी था, मैंने उसकी बात पर हामी भरी. दूसरे दिन उमाधर सिंह हमें अशोक पेपर मिल ले गये, जहां बड़ी बड़ी मशीनों में ज़ंग लग चुका था. बुलाकी साव एक मशीन के पास रुक गया. उसने मुझसे पूछा, 'तुम राजनीति करना चाहते हो या नाटक?' मैंने कहा, 'नाटक'. तब उसने मुझे राय दी कि तुम स्वीट होम के मालिक चिन्मय बनर्जी से मिलो. कॉमरेड के साथ रह कर तुम कभी नाटक नहीं कर पाओगे. मैंने उसकी ओर देखा और उसे विश्वास दिलाया कि ऐसा ही होगा.
उस दिन के बाद मैं उमाधर सिंह से सिर्फ एक बार मिला. पटना में मेरी बहन की शादी थी. मैं कार्ड लेकर आर ब्लॉक चौराहे से होते हुए हड़ताली मोड़ की तरफ जा रहा था. एक मकान के आगे मैंने उमाधर सिंह (विधायक) का बोर्ड लगा देखा. बिना सोचे-समझे गेट के अंदर चला गया. बरामदे में उमाधर सिंह चाय पी रहे थे. कुछ और लोग थे. मैंने उन्हें पांव छूकर प्रणाम किया. वे मुझे पहचान गये. मैंने उन्हें बहन की शादी का कार्ड दिया. शादी की शाम उन्हें अपने घर के बाहर लगे शामियाने में देख कर मेरी आंखों में आंसू आ गये. उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मेरे हाथ में एक लिफाफा थमा कर चले गये. मैंने देखा कि वे बहुत बूढ़े हो गये हैं और चलने में पहले वाली रवानगी नहीं बची है.
दो साल पहले जून के महीने मेंं जब कॉमरेड उमाधर सिंह की मृत्यु की ख़बर आयी, मैं उदास हो गया. मुझे वह रात याद आयी, जब मैं बुलाकी साव के साथ उनके ऑफिस में रुका था. उस रात बुलाकी साव ने मुक्तछंद की ये लघु कविता मुझे सुनायी थी.
गुलमोहर के लाल दहकते हुए फूल की तरहएक आदमी नदी में डुबकी लगाकर निकलता हैसिर पर खड़े सूरज को देखता हैआंखें बंद कर लेता हैउस वक्त आत्मा स्वप्नहीन गहरी नींद की तरह शांत होती है
किनारे खड़े लोगों की आंखों में हलचल का आवेगसमुद्र की लहरों जैसा होता हैपलकें वैसे ही उठती गिरती हैं
आंखें हमेशा कुछ देखती हैं और बहुत कुछ नहीं देख पाती हैंखुली आंखों से हम जितना देख पाते हैंबंद आंखों से उससे ज़्यादा देखते हैं
नहीं देखना देखने से ज्यादा देखना होता है!
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