The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Batla house encounter case : What is real story over which the movie is based?

क्या बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था?

जानिए बाटला हाउस मुठभेड़ की पूरी कहानी.

Advertisement
Img The Lallantop
ऐसे सवाल और उनके साफ़ जवाब आज तक नहीं आए
pic
सिद्धांत मोहन
19 सितंबर 2019 (Updated: 19 सितंबर 2019, 06:42 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
आप इस ख़बर पर ये सोचकर आए होंगे कि बाटला हाउस एनकाउंटर की कहानी पता चलेगी. सोचकर तो सही आए हैं. और यहीं पर हम आपको दो कहानियां सुनायेंगे. एक छोटी कहानी और एक बड़ी कहानी.
छोटी कहानी ये कि दिल्ली के जामिया नगर मोहल्ले के बाटला हाउस इलाक़े की एक बिल्डिंग के एक फ़्लैट में दिल्ली पुलिस की मुठभेड़ कुछ लोगों से होती है. मुठभेड़ में दो लोग मारे जाते हैं, जिनके बारे में पुलिस बताती है कि वे आतंकवादी हैं. और एक पुलिसकर्मी भी गोलियां लगने से मारा जाता है.
ये हो गयी छोटी कहानी. और बड़ी कहानी जानने के लिए आपको एक प्रश्न सुनना होगा. प्रश्न ये है कि क्या ये बाटला हाउस एनकाउंटर फ़र्ज़ी था?
13 सितम्बर 2008 का दिन. जगह दिल्ली. शाम को 6 बजे से 6:30 के बीच दिल्ली में एक के बाद एक पांच बम धमाके होते हैं. कनॉट प्लेस में दो. ग्रेटर कैलाश के एम ब्लॉक मार्केट में भी दो, और ग़फ़्फ़ार मार्केट में एक. कई लोग मारे जाते हैं, उससे ज़्यादा लोग घायल होते हैं. इन बम धमाकों की जिम्मेदारी उसी वक़्त सामने आया एक संगठन लेता है. नाम - इंडियन मुजाहिदीन.
इसके पहले भी देश में तीन अलग-अलग शहरों/राज्यों में बम धमाके होते हैं. अहमदाबाद में 26 जुलाई, जयपुर में 13 मई, और हैदराबाद में एक साल पहले यानी 25 अगस्त 2007 को बम धमाके होते हैं. इन सभी धमाकों में जिम्मेदारी की दृष्टि से नाम आता है इंडियन मुजाहिदीन का.
लेकिन देश की राजधानी में हुए बम धमाकों के बाद दिल्ली के जामिया नगर में जांच एजेंसियों की ख़ास नज़र जाती है. वही जामिया नगर जहां सबसे अधिक संख्या में मुस्लिम रहते हैं. जहां देश के विभाजन के बाद सबसे अधिक मुस्लिम पाकिस्तान से आकर बसे थे. जहां देश का नामी विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया है. पुलिस की जांच शुरू हुई. कई लोगों को पूछताछ के लिए बुलाया गया. पूछताछ में पिटाई और नंगा करने की भी ख़बरें आयीं.
बाटला हाउस की वही बिल्डिंग, जिसमें मुठभेड़ हुई थी
बाटला हाउस की वही बिल्डिंग, जिसमें मुठभेड़ हुई थी

फिर 19 सितम्बर की तारीख़ आयी. बाटला हाउस के इलाक़े की L-18 बिल्डिंग. फ़्लैट नंबर 108. ये फ़्लैट दिल्ली पुलिस के निशाने पर था. दिल्ली पुलिस की एक स्पेशल टीम इस फ़्लैट में दाख़िल हुई. पुलिस के मुताबिक़ फ़्लैट में पांच लोग मौजूद थे. दोनों ओर से गोलीबारी शुरू हुई. पुलिस ने दो कथित आतंकियों आतिफ़ अमीन और मोहम्मद साजिद को मौके पर मार गिराया. जबकि स्पेशल सेल के इंस्पेक्टर मोहन चंद वर्मा को गोली लगी. इंस्पेक्टर वर्मा को अस्पताल ले जाया गया, कुछ ही घंटों में अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गयी. दूसरी ओर से दो लोग मारे गए. पुलिस ने कहा कि दो मौक़े से भागने में सफल रहे और एक व्यक्ति को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया.
लेकिन इस पूरे मामले को झूठा क्यों कहा जाता है?
हां. ऐसा कहा जाता है. और इसकी जड़ में दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए दावे हैं और कुछ मानवाधिकार संगठन हैं, जो पुलिस मुठभेड़ के अगले ही दिन उस फ़्लैट में और आसपास के इलाक़ों में लोगों से बातचीत करने और मामले को अपने स्तर से जानने पहुंचे थे. लोगों से बात हुई. और पुलिस की भी बात सुनी गयी. आगे आने वाले कई दिनों तक अख़बार और ख़बरें टटोली गयीं. और खड़े हुए सवाल. और ये दोनों सवाल पुलिस के इन दो दावों की आड़ में - जो तब अख़बारों में सुनाई दिए थे - उपजते हैं.
दावा नम्बर 1 - 19 सितम्बर यानी मुठभेड़ का दिन. दिल्ली पुलिस की स्पेशल टीम को सूचना मिली कि बाटला हाउस के उक्त फ़्लैट में इंडियन मुजाहिदीन के हथियारबंद आतंकी मौजूद हैं. इन आतंकियों को पकड़ने के लिए जब दिल्ली पुलिस ने फ़्लैट पर छापा मारा तो कथित आतंकियों से मुठभेड़ हुई. दो आतंकी मारे गए. और दिल्ली पुलिस का एक अधिकारी भी.
दावा नम्बर 2 - 19 सितम्बर का ही दिन. पुलिस जांच कर रही थी और जांच की ही कड़ी में पुलिस की टीम पहुंची बाटला हाउस के इस फ़्लैट में. यहां पर पुलिस की मुठभेड़ हुई आतंकियों से, जिसमें दिल्ली पुलिस का एक जवान मारा गया और दो कथित आतंकी भी. पुलिस को अन्दाज़ नहीं था कि उसका सामना हथियारबंद लोगों से हो सकता है.
अब इन्हीं दो दावों के बीच से दो सवाल उठते हैं
अगर दावा नम्बर 1 सही है, तो दिल्ली पुलिस हथियारबंद आतंकियों को पकड़ने गयी थी, जिनमें से एक बम बनाने का दिमाग़ रखता था. और ऐसा है तो पुलिस ने बिल्डिंग L-18 को ख़ाली क्यों नहीं कराया? पहले आत्मसमर्पण के लिए कोई भी ऐलान क्यों नहीं किया गया? या आसपास के घरों को ख़ाली क्यों नहीं कराया गया?
और अगर दावा नम्बर 2 सही है, तो दिल्ली के अलावा गुजरात, राजस्थान और आन्ध्र प्रदेश में धमाके करने वाले संगठन के बारे में चार राज्यों की पुलिस ने इतनी पुख़्ता जानकारी दिल्ली धमाकों के महज़ 6 दिनों के अंदर कैसे जुटा ली? और अगर जानकारी पक्की थी तो क्यों महज़ “जांच” की नीयत से दिल्ली पुलिस की टीम बाटला हाउस पहुंची थी?
बुलेटप्रूफ़ जैकेट पर सवाल
इसके अलावा पुलिस से अक्सर ये भी सवाल किए जाते रहे हैं कि ऑपरेशन के समय पुलिस अधिकारियों ने बुलेटप्रूफ़ जैकेट क्यों नहीं पहने थे? जब मीडिया ने ये सवाल दिल्ली पुलिस से किए तो दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त करनैल सिंह और डिप्टी आयुक्त (स्पेशल सेल) ने बयान दिए कि स्पेशल सेल के टीम के सदस्यों ने बुलेटप्रूफ़ जैकेटें नहीं पहनी थीं. कारण ये कि अगर इतनी तैयारी से पुलिस मौक़े पर छापा मारती तो इससे आतंकी अलर्ट हो जाते और शायद भाग जाते. और बाटला हाउस जैसे कम जगह वाले इलाक़े में पुलिस ने ऑपरेशन की गोपनीयता बनाए रखने के लिए ऐसा किया.
एनकाउंटर के दौरान पुलिस अधिकारी लोगों को हटाते हुए
एनकाउंटर के दौरान पुलिस अधिकारी लोगों को हटाते हुए

फिर दिल्ली पुलिस की ओर से एक और बयान आया. कहा गया कि स्पेशल टीम के सभी अधिकारियों ने बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहनी हुई थीं, बस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा ने नहीं पहनी थीं. और उनकी ही मौत इस घटना में हुई थी. यहीं पर सवाल उठे हैं कि दिल्ली पुलिस के एक ही अधिकारी ने जैकेट नहीं पहनी और वही अधिकारी पहले घायल हुआ, और फिर गोलियों के घाव की वजह से मारा गया. वो भी इन्स्पेक्टर शर्मा जैसा अधिकारी, जो पहले दर्जन भर से ज़्यादा मुठभेड़ों में शामिल रह चुका था. दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर यहां ये सवाल भी उठे कि अगर पुलिस की जानकारी पुख़्ता थी कि बाटला हाउस के फ़्लैट में आतंकी छिपे हुए हैं, तो भी पुलिस ने बुलेटप्रूफ़ जैकेट नहीं पहनने का चुनाव क्यों किया?
शरीर के घाव क्या कुछ और कहानी कह रहे थे?
ऐसा कहा जाता है. इस घटना में मारे गए दो कथित आतंकियों के नाम है आतिफ़ और साजिद. दफ़नाए जाने के पहले दोनों को ही आख़िरी बार नहलाया गया. इस दौरान उनकी तस्वीरें खींची गयीं. तस्वीरें अक्टूबर 2008 में बाटला हाउस में हुई जामिया के शिक्षकों के समूह की अगुवाई में हुई जन सुनवाई में सामने आयीं. साजिद के सिर में ऊपर गोलियों के निशान थे. इस पर बात उठी कि साजिद के सिर पर मिले निशान ऐसे थे, जैसे उसे घुटनों के बल बिठाकर गोली मारी गयी हो. इस पर दिल्ली पुलिस का जवाब आया कि ऑपरेशन के दौरान साजिद सीने के बल लेटकर गोलियां चला रहा था, इस वजह से उस पर चली गोलियां सीधे उसके सिर में जाकर लगीं.
दूसरे मृतक आतिफ़ की पीठ की तस्वीरें देखकर लोगों को लगा कि उसकी पीठ की पूरी चमड़ी ही खींचकर निकाल ली गयी हो. इस पर बात हुई और कहा गया कि ऐसा लगता है कि दिल्ली पुलिस ने मारने के पहले आतिफ़ को टॉर्चर किया था, लेकिन दिल्ली पुलिस ने तत्कालीन बयानों में इस ऑपरेशन के सच को बचाने का प्रयास किया था.
लेकिन इसी कड़ी में सबसे बड़ा सवाल इंस्पेक्टर शर्मा के घावों के बारे में होता है. घटनास्थल पर घायल होने के बाद इंस्पेक्टर शर्मा को पास ही के होली फ़ैमिली अस्पताल ले जाया गया. बिल्डिंग से बाहर उन्हें दो लोग कंधे के सहारे टांगकर बाहर लेकर आए थे. इसकी एक तस्वीर भी है, लेकिन इस तस्वीर में इंस्पेक्टर शर्मा की क़मीज़ पर कहीं भी गोली लगने की वजह से घाव या ख़ून के धब्बे नहीं दिखाई दे रहे हैं. इंस्पेक्टर शर्मा को लगी गोली के निशान कहां थे?
मुठभेड़ के दौरान बाहर लाए जाते घायल इंस्पेक्टर शर्मा
मुठभेड़ के दौरान बाहर लाए जाते घायल इंस्पेक्टर शर्मा

इस पर दिल्ली पुलिस ने कहा कि उन्हें गोली सामने से लगी थी और शरीर को बेधकर पीछे से निकल गयी थी इसलिए घाव और ख़ून के धब्बे पीछे की ओर मौजूद थे, जो सामने से नहीं दिखे. इंस्पेक्टर शर्मा का पोस्टमोर्टम हुआ. पोस्टमॉर्टम में शर्मा के शरीर पर दो घाव बताए गए. दोनों की ही गोलियां पीछे से निकल गयी थीं. पत्रिका ‘तहलका’ से तब बातचीत में AIIMS के एक डॉक्टर ने बताया था कि इंस्पेक्टर शर्मा के शरीर में से कोई गोली या कोई फ़ॉरेन बॉडी नहीं मिली थी. अनुमान ये लगाया गया था कि होली फ़ैमिली अस्पताल में इलाज के दौरान गोली इधर से उधर हो गयी होगी. और इस तथ्य से भी जांच और मुठभेड़ पर सवाल उठे.
इंस्पेक्टर शर्मा को एंकाउंटर विशेषज्ञ कहा जाता था
इंस्पेक्टर शर्मा को एंकाउंटर विशेषज्ञ कहा जाता था

क्योंकि इस कनफ़्यूजन में ये प्रश्न आज भी अनुत्तरित रह गया है कि इंस्पेक्टर शर्मा को किन हथियारों से गोली मारी गयी और उनके शरीर के अंदरूनी घाव किस गोली के चलने से हुए थे?
इसके अलावा साजिद और आतिफ़ की पोस्टमोर्टम जब सूचना का अधिकार के तहत मांगी गयी, तो AIIMS ने यह कहकर इंकार कर दिया कि इससे किसी के जीवन को नुक़सान पहुंच सकता है. बाद में इंस्पेक्टर शर्मा, साजिद और आतिफ़ की पोस्टमोर्टम रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया. जामिया के शिक्षकों द्वारा जारी की गयी तस्वीरों और पोस्टमोर्टम रिपोर्ट में बहुत समानताएं थीं. सवाल गहरा ही होता गया. फिर आये कुछ छोटे-छोटे सवाल.
क्या छोटे-छोटे सवाल?
1). ऑपरेशन के बाद घटनास्थल से कई क़िस्म के हथियार और विस्फोटक बरामद किए गए. लेकिन हर मीडिया रिपोर्ट में एक एके-47 के अलावा, रिवाल्वर, तमंचे, ज़िंदा कारतूस, मैगज़ीन और विस्फोटक की मात्रा में हर जगह अलग-अलग मात्राएं थीं. इस बारे में सवाल उठे कि हथियारों की असल मात्रा क्या है, इस पर पुलिस की ओर से कोई पुख़्ता जवाब नहीं मिले.
2). जो दो आतंकी भाग गए, उनके भागने के रास्ते के बारे में सवाल उठते हैं. उस फ़्लैट में आने-जाने का महज़ एक रास्ता था. और पिछले दरवाज़े पर एक सीढ़ी थी. ऑपरेशन के वक़्त बिल्डिंग के चारों तरफ़ पुलिस की टीम मौजूद थी. तो दो आतंकी भाग कैसे गए थे?
3). पुलिस ने आतिफ़ और साजिद की पोस्टमोर्टम रिपोर्ट शुरूआती तौर पर यह कहकर सार्वजनिक नहीं की कि इससे जांच में बाधा पहुंचेगी और किसी के जीवन को ख़तरा हो सकता है. ये सवाल उठता है कि पोस्ट्मॉर्टम से जांच में रुकावट कैसे हो सकती है और किसके जीवन को ख़तरा हो सकता है? इस बारे में कुछ नहीं कहा गया.
4). दोनों पक्षों की ओर से कितने राउंड फ़ायरिंग हुई? इस बारे में भी कोई पुख़्ता संख्या नहीं मिलती है.
5). क्या बम बनाने की क़ाबिलियत रखने वाले आरोपियों का सामना करने पुलिस महज़ सर्विस रिवाल्वर लेकर गयी थी?
6). ऑपरेशन के ठीक अगले ही घटनास्थल और आसपास की जगहें इतनी कैसे खुल गयीं कि वहां दूसरे लोग आने-जाने लगे थे?
7). और आख़िर में, क्या पुलिस की जानकारी पूरी थी कि मारे गए लोग आतंकी ही थे या महज़ जामिया के कुछ छात्र जिन पर ख़ुफ़िया विभाग और पुलिस की नाक़ामी का हिसाब नाज़िल हुआ?
ये आख़िरी वाला सवाल क्यों?
क्योंकि मारे गए लोगों के परिजन कहते हैं. गिरफ़्तार किए गए लोगों से भी यही सुनना होता है. घटना में मारा गया आतिफ़ अमीन मूलतः यूपी के आज़मगढ़ का रहने वाला था. जामिया में मानवाधिकार से एमए की पढ़ाई कर रहा था. और दो सालों से दिल्ली में उसका रहना हो रहा था. इसके अलावा दूसरे मृतक साजिद की घटना के समय उम्र थी 17 साल. वो भी आज़मगढ़ का रहने वाला. जामिया स्कूल में एडमिशन लेना चाह रहा था. लेकिन मुमकिन नहीं हो सका. और बाटला हाउस में रहकर स्पोकेन इंग्लिश का कोर्स करने लगा.
मोहम्मद साजिद का स्कूल आई कार्ड
मोहम्मद साजिद का स्कूल आई कार्ड

सवाल इसलिए उठते हैं कि इन दोनों की मौत के बारे में आज़मगढ़ में इनके घर सूचना नहीं दी गयी. 19 तारीख़ की रात दिल्ली पुलिस की टीम आज़मगढ़ पहुंचकर आतिफ़ और साजिद के घरों पर छापा मारती है, तब इन दोनों के मारे जाने की सूचना इनके घरों तक पहुंचती है. इनके अलावा पुलिस फ़्लैट के केयरटेकर अब्दुल रहमान को भी गिरफ़्तार करती है. अब्दुल रहमान पर आरोप लगता है कि उसने इस फ़्लैट में लोगों को रहने देने के लिए फ़र्ज़ी तरीक़े से पुलिस वेरिफ़िकेशन करवाया. साल 2017 में सबूतों के अभाव में अब्दुल रहमान पर से सारे आरोप हटा लिए जाते हैं.
अब्दुल रहमान के बेटे ज़िया-उर-रहमान को भी गिरफ़्तार किया जाता है. ख़बरें बताती हैं कि ज़िया-उर-रहमान की तब गिरफ़्तारी होती है, जब वो और उसके पिता अब्दुल रहमान पुलिस थाने जाकर अधिकारियों से मिलते हैं. दोनों को अलग कर दिया जाता है. और ज़िया उर रहमान को विस्फोट से जुड़ा आरोपी बताकर जेल भेज दिया जाता है, लेकिन जेल भेजे जाने के बारे में उसके घर वालों को कोई सूचना नहीं दी जाती है. गिरफ़्तारी के समय ज़िया जामिया में बीए की पढ़ाई करता था.
आज़मगढ़ से ही ताल्लुक़ रखने वाले मोहम्मद ज़ीशान दिल्ली के एक संस्थान से बिज़नेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे थे. उसी फ़्लैट में रहते थे. मोहम्मद ज़ीशान परीक्षा देकर बाहर आए तो उन्हें एंकाउंटर के बारे में पता चला. कहा जाता है कि अपने पिता की ही राय पर उन्होंने पुलिस थाने में जाकर जानकारी दी. लेकिन उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और कहा गया कि वे इंडियन मुजाहिदीन के अगली सूची के लोगों में शामिल रहे हैं.
एक और आरोपी साक़िब निसार का एडमिट कार्ड
एक और आरोपी साक़िब निसार का एडमिट कार्ड

पुलिस ने मोहम्मद साकीब निसार को भी गिरफ़्तार किया, जो एमबीए का छात्र था. ऑपरेशन की अगले दिन उसकी गिरफ़्तारी हुई और थाने में पता करने पर निसार के पिता को बताया गया कि एकाध दिन में निसार को छोड़ दिया जाएगा. लेकिन निसार गिरफ़्तार हो चुका था और टीवी पर ख़बर चल रही थी कि वो दिल्ली बम धमाकों का आरोपी था. और इन सबके अलावा इनके दोस्त मोहम्मद शकील को भी गिरफ़्तार कर लिया गय, जो उस समय जामिया से अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहा था.
इस एन्काउन्टर को आज पूरे हुए 11 साल. लेकिन तब से लेकर आज तक इस मुठभेड़ की सचाई पर सवाल उठते रहे हैं. एक बड़ा धड़ा है जो मानता है कि एनकाउन्टर फर्जी था और एक है जो कहता है कि ये सच था. तब से लेकर अब तक जामिया नगर के बाटला हाउस के इस फ़्लैट में अबतक कोई रहने नहीं आया है. फ़्लैट की कानूनी सील बहुत दिनों पहले ही हट गयी, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई इस फ़्लैट में जाकर रहने की.
और इन सब गिरफ्तारियों के बीच यूपी का एक पुराना-सा शहर है. आज़मगढ़. मुलायम सिंह यादव का मनपसंद शहर. यहां पर पुलिस और जाँच एजेंसियों ने इतने छापे मारे और गिरफ्तारियां कीं कि आज़मगढ़ का नाम छापा जाने लगा ‘आतंकगढ़’.


लल्लनटॉप वीडियो : अनुराग कश्यप के डायलॉग्स वाली एक्शन थ्रिलर क्यों बनी मामी 2019 की ओपनिंग फिल्म?

Advertisement

Advertisement

()