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NATO जैसी 'सेना' बनाने जा रहे इस्लामी देश... 70 साल में जो न हुआ, क्या इस बार होगा?

यूरोपीय-अमेरिकी सुरक्षा संगठन NATO की तर्ज पर मुस्लिम या अरब देशों में खुद का एक संयुक्त सैन्य संगठन बनाने की बेचैनी जोर पकड़ रही है. इसकी वजह इजरायल बना है. लेकिन कुछ बातें हैं जो मुस्लिम देशों के एक होने में रोड़ा बन सकती हैं.

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Arab NATO
दोहा की मीटिंग में 50 से ज्यादा इस्लामी मुल्कों के नेता इकट्ठा हुए (India Today)
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राघवेंद्र शुक्ला
17 सितंबर 2025 (Updated: 17 सितंबर 2025, 05:16 PM IST)
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अरब NATO. नाम तो सुना ही होगा. आजकल खूब चर्चा में है. कारण है कि कतर की राजधानी दोहा में 15 सितंबर को एक शिखर सम्मेलन हुआ. इसमें दुनिया के 80 मुस्लिम देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए. हमारा पड़ोसी पाकिस्तान न सिर्फ इस सम्मेलन में शामिल हुआ बल्कि ‘बिरादरों’ को एक सलाह भी दी कि अब वक्त आ गया है कि एक इस्लामिक टास्क फोर्स बनाई जाए. सिर्फ पाकिस्तान ही क्यों. मिस्र यानी इजिप्ट तो काफी समय से कोशिश में है कि एक संयुक्त अरब सैन्य कमान बने और न सिर्फ उसका मुख्यालय काहिरा में हो बल्कि सेना का कमांडर भी इजिप्शियन हो. 

अलग-अलग तरह के विचार हैं लेकिन इस कवायद से एक चीज तो समझ में आ रही है कि यूरोपीय-अमेरिकी सुरक्षा संगठन NATO की तर्ज पर मुस्लिम या अरब देशों में खुद का एक संयुक्त सैन्य संगठन बनाने की बेचैनी जोर पकड़ रही है. 

NATO क्या है?

पहले तो ये क्लियर कर लेना होगा. दरअसल, NATO (North Atlantic Treaty Organization) यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 32 देशों का एक सैन्य और राजनीतिक गठबंधन है. इसे इसके सदस्य देशों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाया गया है. इसकी स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साल 1949 में उत्तरी अटलांटिक संधि या वाशिंगटन संधि के तहत हुई थी. सामूहिक सुरक्षा के मकसद से बने इस संगठन के एक भी सदस्य पर हुए हमले को सभी सदस्य देशों पर हमला माना जाता है. इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है.

अरब NATO क्या है?

अब आते हैं अरब नाटो पर. अरब देश लंबे समय से क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर NATO जैसा संगठन बनाने के लिए बेताब हैं लेकिन कोई न कोई बाधा आ जाती है और काम रुक जाता है.

1955 से 2025 के बीच कई बार अरब देशों ने ये मुद्दा उठाया कि क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए एक ऐसी सेना बने, जिसमें अरब के सभी देशों की सहभागिता हो. इनमें मुस्लिम देश तो थे ही. शुरू-शुरू में तो इजरायल भी शामिल था. मकसद बदलता रहा. टारगेट बदलते रहे. कभी रूस से सुरक्षा चाहिए थी. कभी ईरान से. अब इजरायल के ही खिलाफ एकजुटता की कवायद में अरब NATO की चर्चा चल रही है. इसके नाम भी अलग-अलग प्रस्तावित किए गए. इतने परिवर्तनों के बीच एक चीज थी जो नहीं बदली. वो ये कि ‘नॉर्थ अटलांटिक’ जैसी ट्रीटी तो मिडिल ईस्ट और अरब में भी होनी चाहिए.

सबसे पहले बगदाद पैक्ट

सबसे पहले ऐसी चर्चा साल 1955 में हुई थी. अमेरिका की उस समय सिर्फ एक चिंता थी कि रूसी कम्युनिज्म का और देशों में विस्तार न होने पाए. इस प्रभाव को रोकने के लिए ही उसने मध्य-पूर्व के देशों को एक ऐसा संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया, जो आपसी अंदरूनी मसलों में दखल न देते हुए भी एक साझा सुरक्षा व्यवस्था पर काम करें. 1955 में इसके लिए तुर्की, ईरान, इराक, पाकिस्तान और ब्रिटेन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस समझौते को ‘बगदाद पैक्ट’ कहा जाता है. अमेरिका शुरू-शुरू में सीधे तौर पर इसमें नहीं जुड़ा, लेकिन इसकी बैठकों में पर्यवेक्षक बनकर आता-जाता रहता था.

पांचों देशों के इस गठजोड़ को नाम दिया गया- Middle East Treaty Organisation यानी METO. इसके बनने के 3 साल बाद यानी 1958 में इराक समझौते से बाहर हो गया. संगठन का मुख्यालय भी इसके बाद बगदाद से तुर्की के अंकारा में शिफ्ट कर दिया गया. गठबंधन का नाम भी बदला और नया नाम हुआ- सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (CENTO). 1979 में ईरान और पाकिस्तान भी इस संगठन से अलग हो गए, जिसके बाद इसे भंग कर दिया गया.

इसके बाद से इस मुद्दे पर अरब देशों या मिडिल ईस्ट में कोई ठोस काम नहीं हुआ. कई प्रस्ताव बने और बिखरे लेकिन नतीजे तक कोई नहीं पहुंचा.

साल 1984 में खाड़ी देश सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, बहरीन और ओमान ने मिलकर एक सहयोग परिषद का गठन किया. इसे खाड़ी सहयोग परिषद यानी GCC कहा गया. इसका उद्देश्य उन देशों में एकता स्थापित करना था, जिनकी जड़ें अरब और इस्लामी संस्कृतियों में हैं. इस परिषद की सिफारिश पर 1984 में पेनिनसुला शील्ड फोर्स नाम की संयुक्त सेना भी बनाई गई. ये सेना काम आई साल 2011 के दशक में, जब जन विद्रोह की हवा में अरब स्प्रिंग के झूले पर खाड़ी देशों की राजनीतिक व्यवस्था झूलने लगी थी. अलजजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस फोर्स में 10 हजार सैनिक थे, जिसे अरब स्प्रिंग के दौरान बढ़ाकर एक लाख करने पर भी विचार किया गया.

साल 2018 में जब डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका की कमान संभाली तो ईरान पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने खाड़ी देशों को एकजुट कर ‘अरब नाटो’ बनाने की कवायद शुरू की. जीसीसी के सदस्यों के साथ इस गठबंधन में मिस्र और जॉर्डन को शामिल करने की बात थी. इसे Middle East Strategic Alliance यानी MESA नाम दिया गया. सऊदी अरब और कतर के बीच कूटनीतिक खींचतान की वजह से यह योजना भी खटाई में पड़ गई.

रूस और ईरान के बाद अब इजरायल टारगेट पर है

अरब या मिडिल ईस्ट की नाटो जैसी संयुक्त सेना के लिए टारगेट अब तक परोक्ष रूप से रूस और ईरान रहे, लेकिन साल 2025 में इनकी जगह इजरायल ने ले ली. वजह बना है, कतर में इजरायल का हमास लीडर्स पर अटैक.

इजरायल का हमला 

ये सब कुछ 9 सितंबर 2025 को शुरू हुआ. इस दिन कतर की राजधानी दोहा पर इजरायल ने मिसाइल दाग दी. निशाना था एक रिहायशी कंपाउंड, जिसमें हमास के पॉलिटिकल लीडर्स जमा थे. अमेरिका के एक सीजफायर प्लान पर चर्चा चल रही थी, जो गजा की जंग को रोकने के लिए पेश किया गया था. शांति की इस बातचीत में एक मिसाइल ने खलल डाला. मिसाइल के निशाने पर थे, हमास के नेता खलील अल-हय्या, जो सीजफायर की बातचीत में हमास की अगुवाई करते हैं. 

खलील अल-हय्या के बेटे समेत हमास के 5 सदस्य मारे गए लेकिन अल-हय्या और हमास के बाकी सीनियर लीडर्स मिसाइल की चपेट में नहीं आए. इस हमले में कतर की सुरक्षाबल के एक जवान के भी मारे जाने की खबर आई. कतर ने इसे अपनी संप्रभुता पर हमला माना और अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा अमेरिका की क्रेडिबिलिटी पर सवाल खड़ा कर दिया. हालांकि, साल 2025 में कतर वो 7वां मुल्क था, जिस पर इजरायल ने हमला किया था. इस हमले के पहले 72 घंटे में इजरायल ने 5 अलग-अलग देशों फिलिस्तीन, लेबनन, सीरिया, ट्यूनीशिया, और यमन पर हमला किया था.

अमेरिका पर निर्भरता

खाड़ी के देश सुरक्षा के लिए पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर हैं लेकिन इधर उसकी उदासीनता ने अरब देशों का जैसे दिल ही तोड़ दिया. अरब देशों पर लगातार इजरायल के हमले के बाद भी अमेरिका की चुप्पी ने उन्हें झकझोर दिया. इन्हीं सब चीजों ने उन्हें मजबूर किया कि वह अपनी साझा सुरक्षा की कमान अपने हाथ में लें और लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी 'अरब नाटो' परियोजना को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ें. 

टीओआई की रिपोर्ट में अरब नाटो की जरूरत को उभारने वाले तीन प्रमुख कारण हैं. 

पहला- अरब देश इजराइल को अब ईरान से भी बड़ा खतरा मान रहे हैं. दोहा पर हमले के बाद ये धारणा और मजबूत हुई है. 

दूसरा- अरब देश गाजा में इजरायल के व्यवहार से नाराज हैं. उन्हें यह भी लगता है कि इजरायल के खिलाफ अमेरिका ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया है. 

तीसरा- तुर्की, मिस्र, पाकिस्तान और सऊदी अरब सभी को लगता है कि सामूहिक सुरक्षा अब वैकल्पिक नहीं रह गई है.

यही वजह थी कि आनन-फानन में इस्लामिक देशों की मीटिंग बुलाई गई. कतर की राजधानी दोहा में 50 से ज्यादा इस्लामी मुल्कों के नेता इकट्ठा हुए. इनमें भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भी शामिल था.

अरब मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस मीटिंग में मिस्र ने एक नया प्रस्ताव रखा कि NATO की तर्ज पर एक साझा सैन्य गठबंधन खड़ा किया जाए. अरब लीग के 22 मुल्क बारी-बारी से इसकी कमान संभालें. शुरुआत में इसकी अगुवाई मिस्र करेगा. जमीनी फौज, वायु सेना, कमांडो यूनिट, इन सबमें तालमेल बैठाया जाएगा. ट्रेनिंग, लॉजिस्टिक्स और वेपन सिस्टम को एकजुट किया जाएगा. मिस्र ने कहा कि वह ऐसे गठबंधन के लिए 20 हजार सैनिक देगा. सऊदी अरब दूसरा बड़ा हिस्सेदार होगा. 

सिर्फ मिस्र ही नहीं, एकमात्र परमाणु ताकत वाले इस्लामी मुल्क पाकिस्तान ने भी एक इस्लामी टास्क फोर्स बनाने का सुझाव दिया है, जो इलाके में इजरायली गतिविधियों पर नजर रखेगी. 

अब सवाल है कि 'मुस्लिम सेना' का ये प्रस्ताव कितना रंग ला पाएगा?

बिट्स लॉ स्कूल, मुंबई के प्रोफेसर मुश्ताक हुसैन कहते हैं कि फिलहाल, अरब देशों के रिएक्शन में मिलिट्री ऑप्शन बिल्कुल डिस्कशन में नहीं है. इजरायल के खिलाफ कार्रवाई में ज्यादा से ज्यादा ये हो सकता है कि अरब देश उससे अपने डिप्लोमेटिक और ट्रेड रिलेशन्स को डाउनग्रेड कर दें.

मुश्ताक हुसैन आगे कहते हैं कि अरब नाटो जैसा कुछ बनाने के लिए अरब देशों को अमेरिका का साथ जरूरी होगा, क्योंकि ये सारे देश अपनी सिक्योरिटी के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं. बिना अमेरिका की अनुमति के ऐसा कुछ नहीं होने वाला है.

ईरान भी फंसा रहा पेच

Organization of Islamic Cooperation (OIC) और अरब देशों की इस मीटिंग में ईरान भी शामिल हुआ. समय का फेर देखिए. एक वक्त में ईरान का प्रभाव कम करने के लिए अरब देश एकजुट हुए थे. अब इजरायल खतरा बना तो ईरान के साथ मिलकर अरब देशों को साझा सुरक्षा पर चर्चा करनी पड़ रही है. हालांकि, अरब नाटो की राह में ईरान बड़ी बाधा है. 

आज तक की रिपोर्ट के मुताबिक, मिस्र-अमेरिकी लेखक हुसैन अबूबक्र मंसूर दोहा शिखर सम्मेलन में ‘गहरे बंटवारे’ का सीन देख रहे हैं. एक्स पर उन्होंने लिखा कि अरब नाटो मिस्र का विचार है और मुस्लिम नाटो ईरान का. ये कन्फ्यूजन, छिपी योजनाओं और अन्य देशों की सोच के बारे में काफी कुछ बताता है. उन्होंने एक और समस्या बताई कि संगठन का एक सदस्य सऊदी अरब है, जो मिस्र या ईरान को प्रोटेक्शन मनी देने के बजाय आयरन डोम यानी इजरायल को फंडिंग करना ज्यादा पसंद करेगा.

वीडियो: पाकिस्तान के विदेश मंत्री बोले, सीजफायर पर अमेरिका का प्रस्ताव आया था, लेकिन भारत ने अस्वीकार कर दिया

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