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UPSC की तैयारी करने वाले, एग्ज़ाम की टेंशन से कम, लोगों के इन सवालों से ज़्यादा डरते हैं

क्या आप या आपका कोई भाई-बंधु दिल्ली के मुखर्जी नगर में डेरा डाले हुए है?

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अर्पित
14 मार्च 2019 (Updated: 14 मार्च 2019, 01:35 PM IST)
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UPSC सिविल सर्विसेस एग्ज़ाम. या फिर आम भाषा में IAS की परीक्षा (वैसे इस परीक्षा से सर्विसेस तो बहुत सी मिलती हैं, पर IAS न जाने क्यों इसका पर्याय बनी बैठी है). नाम तो सुना ही होगा. लाखों लोगों का सपना. जुनून. कुछ लोगों का डर, और बहुतों के लिए हौव्वा. आप ऐसे कुछ लोगों को जानते भी होंगे जो ये सपना लिए बैठे हैं. उम्मीद है आप उन चार लोगों में से नहीं हैं, जिनके कुछ भी कहने का डर इस सोसाइटी को खाए रहता है. आइए आज उन UPSC वाले किताबी कीड़ों में से एक के दिमाग को खंगालने की कोशिश करते हैं. किचकिचा के लिखी एक कविता भी है आखिरी में. अरे रुको भाई! स्क्रॉल न करो अभी. पहले कॉन्टेक्स्ट तो पढ़ लो.
2018 में करीब 8 लाख उम्मीदवारों ने फॉर्म भरा. लेकिन पेपर देने आधे से भी कम आए. प्रीलिम्स क्लियर किया 10,464 ने. 1,996 इंटरव्यू दे रहे हैं और फाइनली सिलेक्ट होंगे 782. ये 782 तो स्टार हैं ही. पर आज बात उन लोगों की है, जो इस स्टारडम के करीब आकर रह जाते हैं. इनमें से कई तो कई बार रह गए. बात करते हैं दिल्ली के मुखर्जीनगर, राजेंद्रनगर की गलियों से लेकर दूर गांवों में अकेले तैयारी करते हुए, पल रहे सपनों की. चुपचाप काम करके रिज़ल्ट से हल्ला मचाने की उम्मीदों की बात. हार के थकने और फिर उठकर लड़ने के जज़्बे की बात. बात उनकी, जिनकी बात नहीं हो पाती.
NCERT से लेकर कोचिंग के मटेरियल तक. टॉपर की टिप्स से लेकर पुखराज, पन्ना, माणिक तक भटकता हुआ एस्पिरेंट, तेज़ी से निकलते हुए अपने समय और पेट, दोनों से ही जूझता रहता है. अगर दिल्ली में तैयारी करने वाला है, तो माचिस के डब्बे से कमरे में रहने के लिए दसियों हजार देता है. रोज़ पन्नी में आए टिफिन को खाता है. और हां! अपने गांव, अपने घर नहीं जाता. क्योंकि वहां दो तरह के लोग मिल जाते हैं. एक सवाल पूछने वाले और दूसरे बिन मांगे जवाब देने वाले. बहुतै फ्रस्ट्रेटिंग लोग.

इतना सवाल पूछोगे तो दिमाग फट के फ्लावर हो जाएगा

एक एस्पिरेंट की दूसरी सबसे बड़ी खीझ होती है सवाल. टेस्ट पेपर वाला सवाल नहीं. वो तो पढ़ लेंगे.
डराता तो है 'क्या चल रहा है?' वाला सवाल.
'औ कित्ता टाइम लगेगा?' वाला सवाल.
'क्या रहा इस बार?' वाला सवाल.
गैंग्स ऑफ़ वसेपुर फिल्म का एक सीन
गैंग्स ऑफ़ वसेपुर फिल्म के  सरदार खान भी परेशान हैं (ये UPSC Aspirant नहीं थे)

डर इसलिए नहीं है क्योंकि इन सवालों का जवाब नहीं है. इसलिए भी नहीं कि इनका जवाब देने में कोई शर्म है. ये डर इसलिए है कि सवाल पूछने वाला सिर्फ जवाब की मसालेदार हेडलाइन में इंट्रेस्टेड है, कंटेंट में नहीं. उसे इस बात से मतलब नहीं है कि जवाब क्या है. या जो जवाब है, उसकी वजह क्या है. जैसे मेन्स के रिजल्ट वाले दिन सवाल पूछने वाले चचा का फोन आया था. पूछे 'क्या रहा?'. हमने बताया 'नहीं हुआ', तो बोले 'हां! हां! देक्खा हमने नाम नहीं है तुम्हारा. कोई बात नहीं.' सेफ़ खेल गए कि सामने आकर ये बदतमीज़ी नहीं की. पिछले साल मेन्स के रिज़ल्ट में बस रोल नंबर की लिस्ट थी, नाम नहीं थे. तब तो उनका फोन जेन्युइन था रिज़ल्ट पूछने के लिए. है न? भक! जेन्युइन एन्युइन कच्छु नहीं है. चचा को पहले ही बता दिया था कि प्रीलिम्स में नहीं हुआ, ये बताने के बाद भी मेन्स का पूछ रहे थे. चचा के बारे में सही कहे थे मिर्ज़ापुर वाले मुन्ना त्रिपाठी. हम नहीं बोल पाएंगे.
मिर्ज़ापुर टीवी सीरीज़ का एक सीन
मिर्ज़ापुर टीवी सीरीज़ के एक सीन में किरदार मुन्ना त्रिपाठी और एक स्पेशल टाइप के चचा

सबका बदला नहीं ले सकता रे तेरा फैज़ल

ये सवाल पूछने की खीझ तो फिर भी सहने लायक है. पर खीझ नंबर वन निकलती है बिन मांगे जवाब देने वालों पर. हमारे एक मित्र हैं, जो ऐसे ज्ञान देने वालों को 'अलादीन का कालीन' बुलाते हैं. मतलब वो, जो चटाई भी हैं और उड़ते भी बहुत हैं (हमाए जबलईपुर में दिमाग चाटने वालों को चटाई कहते हैं). ऐसे ही बहुत ज्ञान बंटता रहता है. एक 'फॉर्म भर दो' वाले भैया हैं. बैंक, हवलदार से लेकर सफाई कर्मचारी तक हर फॉर्म भरने की सलाह देते हैं. काम कोई भी छोटा-बड़ा नहीं होता. लेकिन इनका तात्पर्य यही होता है कि बड़े पेपर की तैयारी करो, तो छोटा तो निकलता ही है.
पहले तो किसी काम को बड़ा-छोटा कहना ही गलत है. और दूसरा ये कि भैया पेपर सब अलग होते हैं. कोई लेना-देना नहीं है किसी और पेपर से. अब ज्ञान की ही बात कर रहे हैं तो एक और दोस्त हैं. उनका मानना है कि आप फेल हुए हो क्योंकि आप सिगरेट नहीं पीते. सारे ऑफिसर पीते हैं, तो आप भी पिएंगे तभी बात बनेगी. गंगाजल में अजय देवगन को देखिए. वैसा इश्टाइल नहीं है तो कुछ नहीं हो पाएगा. खैर! वो भैयाजी तो 5-6 साल से फूंक रहे हैं. अभी तक तो किसी साधु यादव को पकड़े नहीं हैं.
मैं इस बात को बस UPSC के उम्मीदवारों की नहीं मानता. हर वो शख्स जो कोई भी सपना लिए बैठा है, उसकी भी है. उस पर उठ रहे सवालों की बात है. उन चार लोगों की है जिनके पास न आंखें है न कान. बस मुंह है. आपको इनसिंसियर कहने या कम आंकने वालों की है. किसी के नीचे गिरने पर उस पर हंसने वालों की है. ज्ञान देने वालों की है, जो बिना कंटेक्स्ट आपकी जिंदगी की हर परेशानी का एक जेनरिक हल दे देते हैं. ये बात है उस बात की, जो आप में है. मुझमें है. और किसी भी ज्ञान, किसी भी व्यंग्य से ऊपर के विश्वास की बात है.
एक कविता लिखी थी, जब एक अल्पविराम लगा था. लो पढ़ लो अब.

आज ढह गई है दीवार, सपाट ज़मीन है. पर कोई तूफ़ान नहीं आया था. कुछ लोग कहेंगे कि कमज़ोर थी, मज़बूत होती तो टिकती. मुआयना होगा अब, पर कोई मुआवज़ा नहीं लाएगा.

अब कारीगर को भी ईंट जोड़ना सिखाया जाएगा. कैसे रेत कम थी मसाले में, ये बताया जाएगा. "ढह जाती है इस मिट्टी पर दीवारें, यहां क्यों? कहीं और बना लेते." या फिर, "तुमसे नहीं होगा. इतनी ऊंची क्यों, थोड़ा छोटे में रह लेते"

सारी बातें, सारा ज्ञान, सब कुछ समझाया जाएगा. मुआयना होगा अब, पर कोई मुआवज़ा नहीं लाएगा.

तो विनती है मेरी, मुआयना मत करो! तुम बहुत कुछ नहीं समझ पाओगे. जैसे हार जाने और हार मान लेने का अंतर, थक के रुक जाने और थक के सुस्ता लेने का अंतर, पत्ते झड़ जाने और जड़ से उखड़ जाने का अंतर. ये सारे फ़र्क तुम नहीं देख नहीं पाओगे.

तो ठीक जिस तरह नींव डलते वक़्त नहीं देखा था तुमने, दीवार बनते वक़्त भी अभी मत आना!

मेरी फ़िक्र करना छोड़ दो. मैं निराश हूं, हताश नहीं हूं. मेरा यकीन कोई यूं ही नहीं मिटा सकता. और मुआयना बस इतना है, कि कोई तूफ़ान मेरी ईंटें बिखेर सकता है. पर मेरी नींव नहीं हिला सकता.




 एक कविता रोज: जब वहां नहीं रहता

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