Turkey-Syria Earthquake के बीच से आईं इन 6 कहानियों को सुनकर दिल पिघल जाएगा!
भूकंप के मलबे में दबी बच्ची के बेजान हाथ को थामे पिता की तस्वीर वायरल.
पीड़ाएं सबकी साझी होती हैं. उनमें एक अलग किस्म का आकर्षण होता है. वे सीने में ज़रा सा भी मोम रखने वाले इंसानों को अपनी तरफ़ खींचतीं हैं. जब एक पिता अपनी बच्ची के बेजान हाथ को थामे बैठा दिखता है, हम सब एक साथ पिता हो जाते हैं. हमारा शरीर भी धम्म से ज़मीन पर पसर जाता है. गला रुंधने लगता है. हम घबराए से अपने आस-पास टटोलने लगते हैं. दिल का एक हिस्सा कहता है, तुम्हें क्या? वो हज़ारों किलोमीटर दूर तुर्किए में घटी एक त्रासदी की इकाई भर है. उनसे तुम्हारा क्या लेना-देना? मगर दूसरा हिस्सा अभी भी उस पिता जैसा ही बर्ताव कर रहा है. पिता होते ही सारी भावनाएं स्वर खो देती हैं. एक भंवर उठता है. जिसके अंदर का खालीपन सिर्फ एक पिता ही समझ सकता है.
समझने को उस बच्ची का ये कहना भी कितना दर्दनाक रहा होगा,
‘मुझे बाहर निकाल लो. मैं ज़िंदगी भर आपकी ग़ुलामी करूंगी.’
ये दृश्य हरम शहर के एक गांव में दिखा. भूकंप के डेढ़ दिन बाद जब रेस्क्यू टीम मौके पर पहुंची, तब उन्हें मलबे के नीचे दो बच्चे मिले. सात साल कि मरियम और चार साल का इलाफ़. दोनों रिश्ते में बहन-भाई हैं. भूकंप के समय वे अपने घर में माता-पिता के साथ सो रहे थे. तभी धरती हिली और आफतों से बचाने वाली छत आफत बनकर सिर पर गिरने लगी. दोनों बच्चों के ऊपर भी मलबे का ढेर जमा हो गया. इलाफ के सिर पर पत्थर का ढेर आ रहा था. तब मरियम ने अपने हाथ को कवच बनाकर भाई को बचाए रखा. 36 घंटे बाद दोनों बच्चों को निकाल लिया गया. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. उनकी हालत में सुधार है. ये कहानी भरोसा देती है कि, दुनिया में बहुत कुछ ऐसा बचा है, जिसे सहेज लिया जाए तो हमारे हिस्से की धरती ख़ूबसूरत बनी रहेगी.
जैसे कि सहेजना होगा, गले मिलते जर्मनी और तुर्किए की रेस्क्यू टीमों को. दोनों तरफ़ के लोग एक-दूसरे की भाषाएं नहीं समझते. फिर भी वे साथ मिलकर जुटे हुए हैं. उनके बीच कभी इशारों में तो कभी संकेतों में बात होती है. उनकी तलाश का ढंग बड़ा नाजुक है. वे जब किसी ढहते घर के पास पहुंचते हैं, तब सबको शांति बरतने की ताकीद करते हैं. ताकि वे महीन से महीन आवाज़ सुन सकें. गाज़ियनटेप भूकंप से सबसे ज़्यादा तबाह होने वाले शहरों में से एक है. वहां एक जॉइंट रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान एक घर से मदद की पुकार सुनाई दी. वहां मलबा इतना नाजुक था कि उसे मशीन से हटाने में ख़तरा था. ये डर था कि पूरी इमारत भरभराकर धंस ना जाए. इससे सर्वाइवर को निकालने की संभावना धूमिल हो जाती है. ऐसे में जर्मनी और तुर्किए की टीमों ने मिलकर एक-एक ईंट हटाई. घंटों की मेहनत के बाद जब उन्होंने फंसे व्यक्ति को बाहर निकाला, उनके चेहरे खुशी से ताज़े हो गए थे. वे भींचकर एक-दूसरे के गले मिले. उस समय उनके बीच का हर एक भेद मिट गया था. काश! इन पलों के लिए किसी आपदा का इंतज़ार ना करना पड़े.
हालांकि, इसी आपदा के बीच एक इंतज़ार और खत्म हुआ. 07 फ़रवरी को गाज़ियनटेप के हवाई अड्डे पर जब इज़रायल का मिलिटरी प्लेन राहत का सामान लेकर पहुंचा, तब एक अजीब संयोग बना. उसी समय पर ईरान और क़तर के मिलिटरी प्लेन्स भी मदद का सामान उतार रहे थे. इज़रायल और क़तर के बीच किसी तरह के राजनैतिक संबंध नहीं हैं. जबकि इज़रायल और ईरान तो जाहिर तौर पर एक-दूसरे के भयंकर वाले दुश्मन हैं. इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद पर ईरान में हमले के आरोप लगते हैं. इज़रायल, ईरान के सैन्य ठिकानों पर ड्रोन्स से हमले भी करता है. दूसरी तरफ़, ईरान भी इजरायल को दुश्मन देश मानता है. वो इज़रायल के ख़िलाफ़ काम कर रहे चरमपंथी संगठनों को पैसे और हथियार देता है. इसको लेकर दोनों देश एक-दूसरे को देख लेने का दावा करते रहते हैं. गाज़ियनटेप के हवाई अड्डे पर वे एक-दूसरे को देख तो रहे थे, और बस देख ही पा रहे थे.
जो सिर्फ देखते नहीं रह पाए, उन्हें वाइट हेलमेट्स कहा गया. उनका एक नाम सीरिया सिविल डिफ़ेंस भी है. वाइट हेलमेट्स की शुरुआत सिविल वॉर के शुरुआती दिनों में हुई थी. 2011 की शुरुआत में सीरिया के डारा में राष्ट्रपति बशर अल-असद के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू हुआ. मगर जल्दी ही इसमें हिंसा का पुट शामिल हो गया. धीरे-धीरे ये सिविल वॉर में बदल गया. हर रोज़ बमबारी होती. घर तबाह होते. बेगुनाह लोग मारे जाते. जिन्हें मदद की ज़रूरत होती, वे भी राह देखते-देखते दम तोड़ देते थे. ऐसे समय में वॉलंटियर्स ने मोर्चा संभाला. वे हर तरफ़ के पीड़ितों की मदद के लिए पहुंचते थे. इन वॉलंटियर्स के सिर पर सफेद रंग का हेलमेट होता था. जिससे उन्हें वाइट हेलमेट्स का नाम मिला. अभी के समय में इस ग्रुप में तीन हज़ार स्थायी मेंबर्स हैं. उनमें दर्जी, दुकानदार, सफाईकर्मी से लेकर हर धड़े के लोग शामिल हैं. ये बिना किसी वेतन या सुरक्षा के काम करते हैं. 12 सालों से सिविल वॉर झेल रहा सीरिया हाल के भूकंप के लिए कतई तैयार नहीं था. फिर भी, जिस समय सीरिया की सरकार मदद को लेकर राजनीति कर रही थी, उस समय वाइट हेलमेट्स ग्राउंड पर थे. वे अपने हाथों से मलबा हटा रहे थे. फंसे लोगों को सुरक्षित निकाल रहे थे. जब एक बच्चे को बाहर निकाला गया, वो पहले तो मुस्कुराया, फिर उसने वाइट हेलमेट्स के साथ खेलना शुरू कर दिया. वो उनके सिर पर थपकियां देने लगा. मानो वो कह रहा हो, तुम पहले क्यों नहीं आए?
वाइट हेलमेट्स उपलब्ध संसाधनों के दम पर हरसंभव मदद पहुंचा रहे हैं. लेकिन आपदा इतनी विकराल है कि वे अकेले दम पर सब कुछ नहीं कर सकते. उन्होंने पूरी दुनिया से मदद की अपील की है. हम उम्मीद करते हैं कि सामर्थ्यवान संस्थाएं और सरकारें उनकी अपील पर ध्यान देंगी.
ये रिपोर्ट सीरिया की उस बच्ची की कहानी के बिना अधूरी रह जाएगी, जिसका जन्म भूकंप के दौरान हुआ था. पांच मंजिला इमारत में जन्मी वो बच्ची एक त्रासदी के साथ इस दुनिया में आई थी. जब बचाव दल मलबा हटाने पहुंचा, उन्हें एक मां के शरीर से लिपटी नवजात बच्ची दिखी. मां की सांसें थम चुकीं थी. लोगों को लगा कि बच्ची भी नहीं बची होगी.
वे बेजान शरीर को बॉडी बैग में भरने की औपचारिकता करना शुरू कर चुके थे. इतने में उन्हें बच्ची के पैरों में हरक़त दिखी. मौके पर मौजूद लोगों के चेहरों पर हल्की-हल्की मुस्कान तैरने लगी. उन्होंने तुरंत नली काटी और बच्ची को उठाकर दौड़ने लगे. उसे अस्पताल ले जाया गया. मलबे से निकली ज़िंदगी अभी अस्पताल में है. उसकी हालत में काफ़ी सुधार है. हालांकि, उसके परिवार का एक भी शख़्स ज़िंदा नहीं बचा है. दोनों ही तथ्य आपस में कितने विरोधाभासी हैं? एक में रौशनी दिखती है, उसी समय दूसरा तथ्य खाई में धकेल देता है. चंद उम्मीदों और बेहिसाब आशंकाओं से भरे इन मौकों पर अक्सर बर्तोल ब्रेख्त का लिखा याद आता है,
क्या मुश्किलों में भी गीत गाए जाएंगे?
हां, गीत ज़रूर गाए जाएंगे,
उस दौर में मुश्किलों के गीत गाए जाएंगे.
तुर्किए और सीरिया में आए भूकंप ने इमारतों को ध्वस्त किया है. इरादे अभी भी बुलंद हैं. विध्वंस से नया गढ़ने की कला इंसानों की एक बेवफ़ा मगर सबसे ज़रूरी आदत रही है. इसे पत्थरदिली भी कह सकते हैं. लेकिन इसी कला ने दुनिया को आंसुओं के सैलाब में बहकर गुम हो जाने से बचाए रखा है. बीत जाना अंतिम सत्य है, अपनी शर्तों पर बीतना हमारा हासिल.
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