The Lallantop
Advertisement

अगर ये प्लेन अमेरिका के पास न होता तो हिटलर को हराना नामुमकिन हो जाता!

बर्लिन में 20 लाख लोगों की जान बचाने का तमगा भी मिला है.

Advertisement
Img The Lallantop
DC-3 प्लेन, जिसने वर्ल्ड वॉर-2 का नतीजा बदल दिया.
pic
अभिषेक
17 दिसंबर 2020 (Updated: 18 दिसंबर 2020, 05:48 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

तारीख़- 17 दिसंबर.

ये तारीख़ जुड़ी है एक प्लेन की पहली उड़ान से. जिसने भरोसा दिया कि एयर ट्रैवल आम लोगों की पहुंच से दूर नहीं है. जिसके साथ समय-समय पर एक्सपेरिमेंट हुए और ये हमेशा भरोसे पर खरा उतरा. अगर ये प्लेन न होता तो दूसरे विश्व युद्ध का नतीजा किसी और करवट बैठ सकता था. ये न होता तो वेस्ट बर्लिन में लाखों लोग भूख से मर सकते थे. ये कहानी है, DC-3 यानी ‘डगलस कॉमर्शियल-3’ की है. इसके चाहनेवालों के लिए, DC-3 महज एक प्लेन नहीं, बल्कि इमोशन है.
साल 1914. कॉमर्शियल फ्‍लाइट्स उड़ान भरने लगीं थी. उस वक़्त हवाई यात्राएं न सिर्फ खतरनाक थीं, बल्कि काफी महंगी भी. समय के साथ चीज़ें बेहतर होने लगीं, लेकिन इसकी रफ्तार काफी धीमी थी. एक उदाहरण से समझिए. अमेरिका के पश्चिमी छोर पर बसा शहर है, लॉस एंजिलिस. जबकि पूर्वी छोर पर न्यू यॉर्क है. दोनों के बीच की दूरी लगभग 4000 किलोमीटर है. 1934 में एक फ़्लाइट को ये दूरी तय करने में 25 घंटे लगते थे. बीच में कम-से-कम 15 बार रुकना पड़ता था. इसकी क़ीमत भी काफी ज़्यादा होती थी.
इस प्लेन ने एयरलाइन इंडस्ट्री में क्रांति ला दी थी.
इस प्लेन ने एयरलाइन इंडस्ट्री में क्रांति ला दी थी.


कुल मिलाकर, उस वक़्त एयर ट्रैवल फायदे का सौदा नहीं था. लेकिन ये स्थिति बहुत जल्द बदलने वाली थी. डगलस एयरक्राफ़्ट कंपनी की फ़ैक्ट्री में एक नए प्लेन पर काम चल रहा था. जो न सिर्फ किफायती थी, बल्कि आरामदायक भी. इसमें सीटें ज़्यादा थीं. इस प्लेन को लंबे सफ़र के बीच में कई बार रुकना नहीं पड़ता था. ये था DC-3. इस प्लेन ने 17 दिसंबर, 1935 को पहली बार उड़ान भरी थी. इसने आने वाले समय में एयरलाइन इंडस्ट्री का नक्शा बदलकर रख दिया.
बैंड ऑफ़ ब्रदर्स
कुछ सालों के बाद और भी कुछ बदलने वाला था. DC-3 का रोल. सितंबर, 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया. अमेरिका ने न्यूट्रल रहने की नीति अपनाई थी. फिर दिसंबर, 1941 में पर्लहार्बर पर हमला हो गया. अमेरिका ने लड़ाई के मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया. 
युद्ध में पैराट्रूपर्स, हथियार, ट्रक को लाने और ले जाने के लिए एक भरोसेमंद साथी की दरकार थी. ऐसे में यूएस मिलिट्री का ध्यान DC-3 की तरफ गया. DC-3 के साथ प्रयोग हुआ. ये सफल भी रहा. कॉमर्शियल प्लेन को कार्गो प्लेन में बदला गया. DC-3 के इस वर्ज़न को नाम दिया गया, C-47. इसका प्रोडक्शन दिन-रात चलने लगा.
नॉरमेण्डी मिशन के दौरान C47 प्लेन्स ने काफी अहम भूमिका निभाई थी.
नॉरमेण्डी मिशन के दौरान C47 प्लेन्स ने काफी अहम भूमिका निभाई थी.


जून, 1944 तक सेकंड वर्ल्ड वॉर अपने निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका था. मित्र सेनाएं आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार हो चुके थे. उन्होंने पहला निशाना बनाया, नॉरमेण्डी को. इस ऑपरेशन को नाम दिया गया, ‘ऑपरेशन ऑवरलॉर्ड’. समंदर के रास्ते फ्रांस के तट पर आर्मी उतारी जाने लगी. उधर हिटलर ने टैंकों को नॉरमेण्डी पहुंचने का आदेश दिया. अगर जर्मन टैंक्स समय से पहले तट पर पहुंच जाते, तो मित्र सेनाओं को भारी नुकसान होता.
ऐसा होने से रोकने के लिए रास्ते के पुलों और सड़कों को तबाह करना ज़रूरी था. ऐसे में काम आया ‘C-47’. 6 जून, 1944 को लगभग 17,000 पैराट्रूपर्स को नॉरमेण्डी के पास ड्रॉप किया गया. इन पैराट्रूपर्स में से एक टीम Easy Company की भी थी. इन्हें बाद में ‘Band of Brothers’ के नाम से जाना गया. 

इस नाम से किताब भी लिखी गई है और वेब सीरीज़ भी बनी है. नॉरमेण्डी मिशन, बैंड ऑफ़ ब्रदर्स, C-47 प्लेन्स के बारे में डिटेल में जानना हो तो आप वो देख और पढ़ सकते हैं.

इस मिशन के दौरान C-47 प्लेन्स ने लगातार उड़ानें भरी. और, कभी सप्लाई की कमी नहीं आने दी. जब मिशन सफ़ल हुआ, तब मित्र सेनाओं के सुप्रीम कमांडर आइजनहॉवर ने C-47 को शुक्रिया अदा किया. 
बर्लिन का कैंडी बॉम्बर
C-47, DC-3 का कार्गो वर्ज़न है. सेकंड वर्ल्ड वॉर के दौरान अमेरिका ने ये प्लेन सोवियत संघ को सप्लाई किया था. तब दोनों मुल्क़ों में दोस्ती थी. लेकिन वर्ल्ड वॉर के बाद दोस्ती में खटास आ गई. शीत युद्ध का दौर शुरू हुआ. बर्लिन शहर चार हिस्सों में बंटा. बर्लिन के ईस्ट में सोवियत संघ और वेस्ट में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस. वेस्ट बर्लिन तक सड़क से जाने का रास्ता सोवियत इलाक़े से होकर गुजरता था. ये मेन सप्लाई लाइन थी.
जून, 1948 में सोवियत संघ ने इस रास्ते को बंद कर दिया. सप्लाई लाइन ठप पड़ गई. वेस्ट बर्लिन के लोग बुनियादी चीज़ों के लिए तरस गए. ऐसे में रेस्क्यू के लिए एक बार फिर DC-3 को बुलाया गया. अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन ने मिलकर हवाई रास्ते से सप्लाई पहुंचाने की ठानी. फिर अंज़ाम दिया एक हैरतअंगेज़ मिशन. बर्लिन एयरलिफ्ट.
बर्लिन एयरलिफ़्ट के दौरान हर 30 सेकेंड पर एक प्लेन बर्लिन एयरपोर्ट से उतरता या उड़ता था.
बर्लिन एयरलिफ़्ट के दौरान हर 30 सेकेंड पर एक प्लेन बर्लिन एयरपोर्ट से उतरता या उड़ता था.


DC-3 विमानों की पूरी फ्लीट इस ऑपरेशन में लगा दी गई. हर 30 सेकंड पर एक प्लेन बर्लिन एयरपोर्ट पर लैंड करता था. ज़रूरत हर एक चीज़ वेस्ट बर्लिन तक पहुंचाई गई. सुई से लेकर खाने तक. ये ऑपरेशन तब तक चला, जब तक कि सोवियत संघ ने रास्ता नहीं खोल दिया. DC-3 ने 20 लाख बर्लिन वासियों को भूखों मरने से बचा लिया था.
इसी दौरान DC-3 को एक अनोखा नाम भी मिला. ‘कैंडी बॉम्बर’.क्यों? दरअसल, DC-3 के पायलट अपने हिस्से की टॉफ़ियां छोटे पैराशूट में बांधकर ज़मीन पर गिरा देते थे. बच्चे टॉफ़ियां पाकर बड़े खुश होते थे. प्लेन से बम की जगह चॉकलेट गिरते थे. ऐसे में 'कैंडी बॉम्बर' नाम चलन में आ गया.
DC-3 का मिलिट्री यूज वियतनाम वॉर के दौरान भी हुआ था. हालांकि, अमेरिका को वियतनाम में कामयाबी हाथ नहीं लगी. 1970-80 के दशक में कई एयरलाइंस ने DC-3 को अपनी फ़्लीट में भी जगह दी. 
अब ये मेनस्ट्रीम से दूर हो गया है. एयरलाइन इंडस्ट्री में लगातार होती तरक्की के बीच DC-3 नज़रों से ओझल होने लगा. एक समय इनकी कुल संख्या 16,000 थी. अभी भी 170 के करीब DC-3 एक्टिव हैं. हो सकता है, इन उड़ानों के दिन गिनती के बचे हों. पर, इनकी पहचान हमेशा कायम रहने वाली है.

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement