हिमालय में आज भी दफ्न है न्यूक्लियर डिवाइस, प्लूटोनियम गंगा नदी में मिल गया तो...
CIA का प्लान था कि हिमालय की ऊंची चोटी पर एक स्पाई डिवाइस लगाओ, जो चीन की हरकतों पर नजर रखे. भारत उस वक्त चीन से 1962 की जंग हार चुका था. तो अपना भी इंटरेस्ट था.

फर्ज कीजिए हिमालय की गोद में, नंदा देवी की बर्फीली चोटी पर, कोई न्यूक्लियर चीज दफ्न हो. और ये डिवाइस कभी भी फट सकता हो, या रेडिएशन फैला सकता हो. और वो भी गंगा नदी के स्रोत के ठीक ऊपर. ये सब कोई बॉलीवुड की थ्रिलर फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं है, बल्कि हकीकत है.
सब कुछ शुरू हुआ 1960 के दशक में. कोल्ड वॉर का जमाना था. अमेरिका और सोवियत यूनियन (USSR) तो आपस में भिड़े ही थे, चीन ने भी 1964 में अपना पहला एटम बम टेस्ट कर सबको चौंका दिया. अमेरिका को डर सता रहा था कि चीन की न्यूक्लियर ताकत बढ़ रही है, और वो तिब्बत में मिसाइल टेस्ट कर रहा है. सैटेलाइट टेक्नोलॉजी तब इतनी एडवांस नहीं थी, तो CIA ने एक अल्ट्रा प्रो मैक्स लेवल का प्लान बनाया.
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक CIA का प्लान था कि हिमालय की ऊंची चोटी पर एक स्पाई डिवाइस लगाओ, जो चीन की हरकतों पर नजर रखे.
भारत उस वक्त चीन से 1962 की जंग हार चुका था. तो अपना भी इंटरेस्ट था. CIA और भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) ने मिलकर ऑपरेशन लॉन्च किया. टारगेट थी नंदा देवी. भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी. 7816 मीटर की ऊंचाई. यहां से चीन के बॉर्डर पर नजर पड़ती थी. टीम में अमेरिकी और भारतीय क्लाइंबर्स थे, लीड कर रहे थे कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली जैसे बहादुर लोग. कैप्टन कोहली ने इन गतिविधियों पर एक किताब लिखी. नाम “स्पाइज इन द हिमालयाज”. इस किताब में कोहली ने बताया कि CIA ने 1973 में डिवाइस इंस्टॉल किया था, जो अच्छी तरह काम कर रहा था और चीन की मिसाइलों से सिग्नल भी ले रहा था.

ये कोई बॉम्ब नहीं था! ये एक रेडियोआइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (RTG) था. नाम SNAP-19C. प्लूटोनियम-238 से चलता था. करीब 4-5 किलो प्लूटोनियम, जो हीट से बिजली बनाता था. ये एंटीना और सेंसर्स को पावर देता, ताकि चीन के मिसाइल सिग्नल कैच कर सके. साइज था बीच बॉल जितना. वजन 50 पाउंड (लगभग 23 किलो). नागासाकी बम में जितना प्लूटोनियम था, उसका एक तिहाई मान लीजिए!

अक्टूबर 1965 में टीम निकली. भारी सामान ढोते हुए ऊपर चढ़े. कैंप-4 तक पहुंचे. लेकिन तभी भयंकर बर्फीला तूफान आ गया. सबकी जान जोखिम में थी. कैप्टन कोहली ने ऑर्डर दिया, ‘डिवाइस को बर्फ में सुरक्षित बांधकर छोड़ो और नीचे उतरो.’
सब बच गए. लेकिन अगले सीजन जब लौटे, तो डिवाइस गायब था. हिमस्खलन में बह गया या बर्फ में दफन हो गया, किसी को नहीं पता. डिवाइस को ढूंढने के लिए कई सर्च मिशन चले. अमेरिकी हेलिकॉप्टर, भारतीय टीमें, सब गए. लेकिन कुछ नहीं मिला.

अमेरिका ने ऑफिशियली मानने से इनकार कर दिया. भारत में भी चुप्पी. फिर 1978 में वॉशिंगटन पोस्ट ने खुलासा किया, और तब मोरारजी देसाई सरकार ने संसद में भी माना कि हिमालय में एक न्यूक्लियर डिवाइस मौजूद है.
इसके बाद एक कमेटी बनी, जिसने नदियों में प्लूटोनियम की मौजूदगी चेक की. पर कुछ नहीं मिला. आज तक भी इस डिवाइस का पता नहीं चला है. कुछ जानकार कहते हैं भारतीय दल ने तभी चुपके से इसे रिकवर कर लिया और रिवर्स इंजीनियरिंग की. तो कुछ कहते हैं ये अभी भी बर्फ में फंसा है, और अपनी ही हीट से नीचे धंसता जा रहा है.
रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 8 मई 1978 को भारत के पूर्व पीएम मोरारजी देसाई को एक सीक्रेट लेटर भेजा. इसमें जिमी ने लिखा, “क्या मैं हिमालय के उस डिवाइस के मुद्दे को संभालने के आपके तरीके के लिए अपनी प्रशंसा और आभार व्यक्त कर सकता हूं?”

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक उस वक्त मोरारजी देसाई और राष्ट्रपति कार्टर की एक मीटिंग भी हुई थी. जिसमें अमेरिकी फॉरेन पॉलिसी एक्सपर्ट जोसेफ नाए (सॉफ्ट पावर शब्द देने वाले) भी मौजूद थे. नाए ने 2024 में द टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि दोनों नेताओं ने बैठक में उस डिवाइस का जिक्र नहीं किया और निजी तौर पर बात करने तक इंतजार किया. नाय ने बताया, “ये एक इंटेलिजेंस का मामला था. इसके लिए एक कोड वर्ड होता.”
असली टेंशन पर बातअब असली टेंशन ये है कि ये डिवाइस कहां है? नंदा देवी के ग्लेशियर्स से निकलती हैं ऋषि गंगा और धौली गंगा नदियां. ये मिलकर अलकनंदा बनती हैं. फिर भागीरथी से गंगा. मतलब, करोड़ों लोगों की लाइफलाइन गंगा का स्रोत ठीक नीचे है. अगर डिवाइस सच में हिमालय की बर्फ में मौजूद है, और किसी भी वजह से (ग्लेशियर मेल्टिंग, हिमस्खलन, क्लाइमेट चेंज आदि) उसका कंटेनमेंट ब्रेक हो जाए तो प्लूटोनियम पानी में घुल सकता है. इससे तलछट (Sediments) में रेडिएशन फैल सकता है. और नीचे की सतह तक पहुंच सकता है. रेत, मिट्टी, चट्टान के टुकड़े या ऐसे जैविक अवशेषों को तलछट कहते हैं जो हवा, पानी के जरिये किसी लिक्विट (जैसे पानी) की सतह पर जमा हो जाते हैं. इससे धीरे-धीरे वहां गाद या मैल की परत बन जाती है.
प्लूटोनियम अगर पानी के साथ मिल जाए, तो मुख्य तौर पर दो खतरे पैदा होते हैं. पहला, न्यूक्लियर क्रिटीकेलिटी और दूसरा रेडियोलॉजिकल खतरा. न्यूक्लियर क्रिटीकेलिटी (Nuclear Criticality Hazard) में एक ऐसा परमाणु चेन रिएक्शन शुरू हो सकता है जिसे कंट्रोल किया ही नहीं जा सकता. इसमें पानी मॉडरेटर की तरह काम करता है. ये प्लूटोनियम से निकलने वाले न्यूट्रॉन्स को धीमा कर देता है. इससे चेन रिएक्शन बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है. नतीजा, अचानक विस्फोट हो सकता है, जिससे लोगों को बेहद तेज रेडिएशन का सामना करना पड़ेगा. ये Acute Radiation Poisoning ये मौत का कारण भी बन सकता है.
वहीं रेडियोलॉजिकल खतरा (Radiological Hazard) में प्लूटोनियम पानी के साथ मिलने से और फैल सकता है. साथ ही ये वातावरण को दूषित कर सकता है. पानी-हवा में फैलने के बाद ये सांस लेने, निगलने या त्वचा के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकता है. इससे कैंसर या अन्य गंभीर बीमारियां हो सकती हैं.
2025 में इसकी बात क्यों हो रही है?क्योंकि हिमालय की डेमोग्राफी तेजी से बदल रही है. ग्लेशियर्स पिघल रहे हैं. 2021 के चमोली फ्लड जैसे डिजास्टर बढ़ रहे हैं. क्लाइमेट चेंज की मार है. साइंटिस्ट का कहना है कि अभी तक कोई रेडिएशन डिटेक्ट नहीं हुआ है. 1978 की स्टडी से लेकर अब तक मॉनिटरिंग में सब क्लियर है. रिस्क 'लो प्रॉबेबिलिटी, हाई इम्पैक्ट' वाली है. मतलब, होने के चांस कम, लेकिन हो गया तो तबाही पक्का. प्लूटोनियम की हाफ-लाइफ 88 साल है. माने, ये अभी भी एक्टिव हो सकता है.
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि नई टेक्नोलॉजी से इसे सर्च किया जा सकता है. जैसे ड्रोन या सैटेलाइट. इसके लिए अमेरिका को जिम्मेदारी लेनी चाहिए. लेकिन दोनों देश दशकों से चुप हैं.
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