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'तारीख पर तारीख...!' कंज्यूमर कोर्ट से क्यों देरी से मिल रहा इंसाफ? 5 लाख से ज्यादा शिकायतें पेंडिंग

Consumer Court लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों का अखाड़ा बनते जा रहे हैं. संसद में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि 30 जनवरी, 2024 तक कंज्यूमर कोर्ट के सामने कुल 5.43 लाख शिकायतें पेंडिंग थीं.

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Consumer Court 5 lakh case pending
कंज्यूमर कोर्ट, लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों का अखाड़ा बनते जा रहे हैं. (सांकेतिक फोटो: आजतक)
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अर्पित कटियार
22 दिसंबर 2025 (Published: 11:28 AM IST)
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देशभर में कई पीड़ित उपभोक्ता हैं. इन्हें जल्द न्याय मिले, इसलिए बनाई गईं उपभोक्ता अदालतें. यानी कंज्यूमर कोर्ट (Consumer Court). जिन्हें आम नागरिकों के लिए सुलभ और किफायती मंच माना गया. लेकिन इन उपभोक्ताओं के लिए ‘जल्द न्याय’ का वादा अभी भी दूर की कौड़ी बना हुआ है. कंज्यूमर कोर्ट, लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों का अखाड़ा बनते जा रहे हैं.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, संसद में एक सवाल के जवाब में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय (DFPD) ने बताया कि 30 जनवरी, 2024 तक जिला, राज्य और नेशनल कंज्यूमर कमीशन के सामने कुल 5.43 लाख कंज्यूमर शिकायतें पेंडिंग थीं.

जानकारी के लिए बताते चलें कि भारत में कंज्यूमर कोर्ट तीन स्तरीय प्रणाली (Three-tier system) पर काम करते हैं. जिला स्तर पर, राज्य स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर. ठीक वैसे ही जैसे आम अदालतें काम करती हैं. जिला कोर्ट, हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट. 

राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (National Commission) राज्य आयोगों के फैसलों के खिलाफ अपील सुनता है और यह सुप्रीम कंज्यूमर कोर्ट है. यानी पीड़ित उपभोक्ताओं का सुप्रीम कोर्ट.

संसद में बताया गया कि 2024 में, इन आयोगों के सामने 1.73 लाख नए मामले आए, लेकिन उन्होंने केवल 1.58 लाख मामलों का निपटारा किया, जिसके नतीजा यह हुआ कि मामलों में लगभग 14,900 की बढ़ोतरी हुई. यह बढ़ोतरी 2025 में भी जारी रही. इस साल जुलाई तक, 78,031 नई शिकायतें दर्ज की गईं, जबकि 65,537 मामलों का निपटारा किया गया.

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कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट, 2019 के तहत शिकायतें निपटाने के लिए कुछ समयसीमा तय की गई है, लेकिन इसके बावजूद ये मामले लंबित पड़े हुए हैं. एक्ट की धारा 38(7) कहती है कि जहां परीक्षण या विश्लेषण की जरूरत नहीं है, वहां शिकायतों का फैसला तीन महीने के भीतर हो. और जहां ऐसी जांच जरूरी है, वहां पांच महीने के भीतर किया जाना जरूरी है.

यह कानून साफ तौर पर कहता है कि मामलों में बेवजह देरी नहीं होनी चाहिए. जब तक कोई ठोस वजह न हो और उसे लिखित रूप में दर्ज न किया जाए, तब तक आम तौर पर तारीख आगे नहीं बढ़ाई जानी चाहिए.

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