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मूवी रिव्यू - श्रीकांत

'श्रीकांत' फिल्म का नायक एक हिम्मतवाला आदमी है. बस ये फिल्म उसकी कहानी दिखाने के लिए हिम्मत नहीं दिखाती.

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इस फिल्म को तुषार हीरानंदानी ने डायरेक्ट किया है.
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यमन
10 मई 2024 (Updated: 10 मई 2024, 10:37 IST)
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Srikanth 
Director: Tushar Hiranandani 
Cast: Rajkummar Rao, Jyotika, Alaya F, Sharad Kelkar 
Rating: 2.5 Stars 

जब Srikanth Bolla का जन्म हुआ, तब उनके पिता बहुत खुश थे. बाद में जब पता चला कि बच्चा नेत्रहीन है, तो आसपास के लोगों ने सलाह दी कि इसे मार डालो. घरवालों ने ऐसा नहीं किया. बच्चे को पढ़ाया. श्रीकांत प्रतिभाशाली थे. जब दसवीं के बाद विज्ञान पढ़ने को नहीं मिली, तो एजुकेशन सिस्टम को अदालत में खड़ा कर दिया. तगड़े नंबर से पास हुए. फिर जब IIT ने नेत्रहीन होने की वजह से एडमिशन नहीं दिया तो इनका कहना साफ था – ‘अगर IIT को मेरी ज़रूरत नहीं, तो मुझे भी IIT की ज़रूरत नहीं’. अमेरिका की प्रतिष्ठित MIT में पढ़ने लगे. कुछ साल बाद इंडिया लौटे. इरादा था कि जो खुद सहा, वो किसी और के साथ नहीं होने देना. यही सोचकर बोलांट इंडस्ट्रीज़ खड़ी की. वो स्टार्टअप जिसके पहले इंवेस्टर एपीजे अब्दुल कलाम थे. श्रीकांत बोल्ला की इसी इंस्पिरेशनल कहानी पर तुषार हीरानंदानी ने ‘श्रीकांत’ नाम की फिल्म बनाई है. श्रीकांत के रोल में राजकुमार राव हैं. उनके अलावा ज्योतिका, शरद केलकर और अलाया एफ भी अहम किरदारों में हैं. 

दिसम्बर 2023 में ‘सैम बहादुर’ रिलीज़ हुई. उसमें और ‘श्रीकांत’ में बहुत सारी बातें कॉमन हैं. दोनों लार्जर दैन लाइफ किस्म के लोगों पर बनी. दोनों में लीड एक्टर ने दमदार काम किया. लेकिन ये दोनों ही फिल्में अपने नायक और एक्टर के साथ न्याय नहीं कर पाई. ‘श्रीकांत’ की कहानी बहुत बड़ी है. मेकर्स ने दो घंटे 14 मिनट में सब कुछ समेट लेने की कोशिश की. उस वजह से बस छूकर दौड़ने वाला काम हुआ है. फिल्म के अधिकांश सीन बहुत सतही थे. कुछ डायलॉग बस इसलिए लिखे गए क्योंकि पन्नों पर कुछ तो भरना था. वो रोज़मर्रा की ‘हाई, हैलो’ में भी डिटेलिंग गायब थी. ऐसा लग रहा था कि किरदार बोल रहे हैं, बातें नहीं कर रहे. दोनों में फर्क है. 

हर क्लास की पहचान दो टाइप के बच्चों से होती है – फ्रंटबेंचर और बैकबेंचर. ये दोनों टाइप के बच्चे ही रिस्क लेते हैं. बीच में बैठने वाले सेफ खेलना चाहते हैं. यही वजह है कि क्लास में बेचारों की पहचान नहीं बन पाती. ‘श्रीकांत’ फिल्म भी बीच में बैठने वाले बच्चे की ही तरह है. मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा की बायोपिक्स में एक टेम्पलेट बन गया है. उसी टेम्पलेट में ‘श्रीकांत’ को भी फिट कर के परोसने की कोशिश हुई है. फिल्म अपने नायक के इर्द-गिर्द हवा बनाने की कोशिश करती है. उसे वन लाइनर्स देती है, बस उन वन लाइनर्स के आगे-पीछे डायलॉग नहीं मिलते.  और ऐसे हर डायलॉग के बाद गैर-ज़रूरी ढंग से म्यूज़िक बजने लगता है. जैसे फिल्म आपको कोई भाव महसूस नहीं करवाना चाहती. उसका इरादा है कि आप म्यूज़िक सुनकर समझ जाएं कि यहां अपने को ऐसा फील करना है.       

जब श्रीकांत का जन्म होता है तब उनके पिता खुशी के मारे झूमते हैं. आगे कहते हैं कि मेरा बेटा एक दिन इंडिया के लिए क्रिकेट खेलेगा. बेटा अपने पिता को गर्व करने का मौका देना चाहता है. क्रिकेट में आगे बढ़ता है. एक पॉइंट पर इंडिया की तरफ से खेलने वाला भी होता है. लेकिन तभी उसे इंडिया छोड़कर अमेरिका जाना पड़ता. अब उसे अपनी जर्सी वापस लौटानी है, ये दर्शाने के लिए कि ये रास्ता उसके लिए बंद हो गया है. फिल्म के स्क्रीनप्ले ने इस सीन को एक मिनट का भी समय नहीं दिया. सीन के शुरुआत में कोच कहते हैं कि देश को तुम्हारी ज़रूरत है. जर्सी लौटाते हुए श्रीकांत कहते हैं कि देश को उनकी ज़रूरत नहीं. बस सीन खत्म. कोई इम्पैक्ट नहीं. ‘श्रीकांत’ ऐसे कई सारे सीन से मिलकर बनी फिल्म है, जो आप के दिल तक नहीं पहुंचते. अंदर कोई भी भाव पैदा नहीं करते. वो बस होने के लिए हैं. 

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‘श्रीकांत’ में ज्योतिका ने टीचर देविका का रोल किया.

हर ड्रामा को मज़ेदार बनाने के लिए कन्फ्लिक्ट यानी मतभेद की ज़रूरत पड़ती है. फिल्म उस मामले में भी कमज़ोर पड़ जाती है. अचानक से ही फिल्म का मतभेद उठता है, और बिल्कुल पानी के बुलबुले की तरह फूट भी जाता है. फिल्म ने कुछ पॉइंट्स पर अजीब टेक्निकल चॉइसेज़ भी ली. जैसे श्रीकांत अमेरिका पहुंच जाते हैं. MIT का शॉट आता है. उसे एस्टैब्लिश किया जा रहा है. पहले कैमरा जल्दी मूव करता है. इसी पेस के साथ क्लासरूम के अंदर पहुंच जाता है. वहां गोल-गोल घूम रहा है. और फिर अचानक से कट होकर श्रीकांत का नॉर्मल शॉट आता है. जिस तरह से एस्टैब्लिश करने की कोशिश की गई थी, उसका असर बिल्कुल उलट पड़ गया. ये साफ नहीं होता कि ऐसा क्यों किया गया था. 

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राजकुमार राव फिल्म का सबसे मज़बूत पहलू हैं. 

श्रीकांत बोल्ला बने राजकुमार राव फिल्म का सबसे मज़बूत पहलू थे. उनको देखकर लगता है कि उन्होंने बस श्रीकांत के हाव-भाव लेकर उसे दोहराने की कोशिश नहीं की. उन्होंने श्रीकांत पर अपना टेक रचा है. अपने किरदार की कुछ आदतें बनाई और फिर पूरी फिल्म में उनका पालन किया. कैरेक्टर ब्रेक नहीं होने दिया. आमतौर पर ऐसी फिल्मों को मोनोलॉग के साथ खत्म किया जाता है. जो फिल्म को खत्म करने का एक आलसी तरीका भी है. लेकिन जब एंड में राजकुमार राव स्टेज पर श्रीकांत का सफर बयां करते हैं, तो बस बैठकर एकटक सुनने का मन करता है. ये सिर्फ राजकुमार राव का कमाल था. वो उस सीन में किरदार का इमोशनल साइड भी निकाल लाए. और उसी सीन में उनके तंज कसने वाले ह्यूमर की छाप भी छोड़ दी. उनके अलावा ज्योतिका ने उनकी टीचर देविका का रोल किया. जितनी कहानी को उनसे ज़रूरत थी, उतना वो डिलीवर करती हैं. ऐसा ही शरद केलकर और अलाया एफ के लिए भी कहा जा सकता है. 

‘श्रीकांत’ के नायक ने खूब रिस्क लिया. बस काश ये फिल्म उनकी कहानी दिखाने के लिए इतनी हिम्मत दिखा देती. उसकी जगह इसने सेफ रास्ता चुना.   
                               
 

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