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एलिजाबेथ एकादशी: एक सायकल बचाने के लिए दो बच्चों का तगड़ा संघर्ष

ये स्वीट फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए.

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मुबारक
13 सितंबर 2018 (Updated: 13 सितंबर 2018, 10:33 AM IST)
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मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
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कई फ़िल्में बिना किसी लंबे-चौड़े कैनवास के वो इम्पैक्ट डालने में सफल रहती हैं, जो कई बार बड़ी स्टार कास्ट या करोड़ों का बजट मिलाकर भी नहीं मुमकिन हो पाता. आज की फिल्म 'एलिजाबेथ एकादशी' ऐसी ही एक फिल्म है. स्वीट सी कहानी और शानदार परफॉरमेंसेस! और क्या ही चाहिए एक सिनेमाप्रेमी को.
'एलिजाबेथ एकादशी' कहानी है एक साइकल और उससे इश्क करते दो मासूम बच्चों की. एलिज़ाबेथ उस साइकिल का नाम है. वो साइकल जो गरीबी की राह पर शहीद होने ही वाली है.
महाराष्ट्र के एक छोटे से कस्बे पंढरपुर में एक परिवार रहता है. मां, दो बच्चे और नानी. बच्चों के पिता की डेथ हो चुकी है. परिवार पालने की पूरी ज़िम्मेदारी मां के सर है. किसी तरह सिलाई का काम करके वो न सिर्फ घर चला रही है बल्कि बच्चों को पढ़ा भी रही है. कट रही है ज़िंदगी. बच्चे अभाव में भी खुश रहने के आदी हो चुके हैं. उनके जीवन में अगर कोई अकेली चीज़ है जो उन्हें सच्ची ख़ुशी देती है तो वो है एलिजाबेथ. लेकिन कमज़ोरों की ज़िंदगी में सब कुछ हमेशा ठीक कहां चल सकता है!
फिल्म को उस साल नेशनल अवॉर्ड मिला.
फिल्म को उस साल नेशनल अवॉर्ड मिला.

सिलाई मशीन की किस्तें समय पर नहीं गई, सो मशीन ज़ब्त हो गई. कमाई का इकलौता ज़रिया चला गया. पांच हज़ार रुपए भरे जाएंगे तभी मशीन फिर से हासिल होगी. कहां से आएंगे पांच हज़ार रुपए? घर के बर्तन बेचकर, किसी फंक्शन में खाना बनाने का काम करके, और कुछ इधर-उधर से इकट्ठा करके तीन हज़ार तक पहुंच गए. लेकिन बाकी के? घर में बेचने लायक भी कुछ नहीं बचा. सिवाय एलिजाबेथ के. साइकल बेच देना ही आखिरी रास्ता है.
साइकल से बेपनाह मुहब्बत करते बच्चे ज्ञानेश और झेंडू को ये कैसे कबूल होगा? वो तो हर हाल में अपनी साइकल बचा लेना चाहते हैं. वो साइकल, जो उनके पिता ने ख़ास तौर से डिजाइन की थी. साइकल को बचाने का एक ही रास्ता है. आषाढी एकादशी से पहले दो हज़ार रुपए का इंतज़ाम. जिसमें कि सिर्फ चार दिन बचे हैं.
मरता क्या न करता वाली सिचुएशन में बच्चे वो काम करने लगते हैं जिसकी मां ने मनाही कर रखी है. पंढरपुर में जारी सालाना धार्मिक उत्सव में एक छोटी सी दुकान डाल लेते हैं. चूड़ियों की दुकान. प्लान ये है कि चार दिन में दो हज़ार कमा लेंगे और साइकल बचा लेंगे. क्या ऐसा मुमकिन हो पाता है? चूड़ी की दुकान के साथ क्या कोई दुर्घटना घटती है? बच्चों का सपना बचता है या टूट जाता है? क्या सिलाई मशीन वापस मिल पाती है? जवाब फिल्म देखकर जानिएगा.
बच्चों की चूड़ियों की दुकान.
बच्चों की चूड़ियों की दुकान.

'एलिजाबेथ एकादशी' न सिर्फ एक स्वीट फिल्म है बल्कि ये संघर्ष का सबसे प्योर रूप भी दिखाती है. ये फिल्म याद दिलाएगी कि जब आप बच्चे थे तब दुनिया कितनी अच्छी थी. इस फिल्म में कोई विलेन नहीं है. हालात के अलावा किसी और चीज़ को दोष नहीं दिया जा सकता. जितने भी किरदार हैं सबका उजला पक्ष ही दिखता है. सब अच्छे हैं. तभी तो ज्ञानेश के दोस्त उसकी दुकान में बिना स्वार्थ मदद कर देते हैं, मकान मालकिन छह महीने तक किराए का नाम नहीं लेती, टीचर्स गरीब बच्चे की फीस पल्ले से भर देते हैं और अंजान चायवाला बच्चों को दुकान लगाने के लिए अपनी जगह में से जगह बिना किसी शिकायत के दे देता है. ये ऐसी ही दुनिया है जो बच्चों की नज़र से दिखती है. सब लोग मददगार, सब लोग भले.
फिल्म उपदेश देने का कोई अटेम्प्ट किए बगैर अपनी बात समझाती चलती है. पहले सीन से ही ये फिल्म प्रतीकों में बात करती है. एक तरफ भगवान की मूर्ती को नहलाया जा रहा है, दूसरी तरफ साइकल को. अपनी अपनी श्रद्धा. इसके अलावा एक ही शहर में दो बिल्कुल अलग नज़ारे भी हैं. एक तरफ मंदिर में आए चढ़ावे के लाखों रुपयों को दर्जनों लोग मिलकर संभाल रहे हैं. दूसरी तरफ पांच हज़ार रुपए जैसी मामूली रकम के लिए पूरा परिवार संघर्ष कर रहा है. यानी ईश्वर के चरणों में तो धन का ढेर है, भक्त भटक रहे हैं.
मंदिर में पैसा.
मंदिर में पैसा.

एक्टिंग की बात की जाए तो बच्चों ने बिलाशक तूफानी अदाकारी की है. ज्ञानेश और झेंडू उर्फ़ मुक्ता के रोल में श्रीरंग महाजन और सायली यूं फिट हैं जैसे हाथ में दस्ताना. इन्हीं के अभिनय का कमाल है कि फिल्म एक भी फ्रेम में बनावटी नहीं लगती. चाहे अपनी साइकल से मुहब्बत जताने वाले सीन हो या चूड़ियों की दुकान करते वक्त की जद्दोजहद. बच्चों ने सब बड़ी सफाई से निभाया है. उनके दोस्त के रोल में पुष्कर लोणारकर शानदार हैं. बात-बात पर गालियां देनेवाला लेकिन दिल का बेहद भला दोस्त.
मां की भूमिका में नंदिता धुरी परफेक्ट हैं. अपनी हताशा, अपनी बेबसी को छुपाकर बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष करती मां को उन्होंने उम्दा ढंग से साकार किया है. नानी के रोल में वनमाला किनिकर फिट लगती हैं.
ये फिल्म जितनी कलाकारों की है उतनी ही लेखिका और डायरेक्टर की भी. मधुगंधा कुलकर्णी की कहानी अपने आप में विनर है. धार्मिक नगरी पंढरपुर की सांस्कृतिक पहचान के साथ उनकी लेखनी पूरा न्याय करती है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण बच्चों के नाम ही हैं. ज्ञानेश और मुक्ता. ये नाम संत ज्ञानेश्वर और उनकी बहन मुक्ताबाई की याद दिलाते हैं. इसके अलावा वारी के दौरान एक दूसरे को माउली कहकर बुलाते लोग असल पंढरपुर के ज़्यादा करीब लगते हैं.
डायरेक्टर परेश मोकाशी.
डायरेक्टर परेश मोकाशी.

यही बात डायरेक्टर के लिए भी कही जाएगी. 'हरिशचंद्राची फैक्ट्री' जैसी अप्रतिम फिल्म देने के बाद डायरेक्टर परेश मोकाशी से लोगों को बहुत उम्मीदें थी. और उन्होंने बिल्कुल निराश नहीं किया. एक शानदार फिल्म दी जिसे नेशनल अवॉर्ड भी मिला.
फिल्म में सिर्फ एक गाना है जिसके बेहद सुंदर बोल हैं. 'एलिज़ाबेथ एकादशी' उन फिल्मों में से एक है जो महज़ इसलिए देखी जानी चाहिए ताकि सीधी-सच्ची कहानियां सिनेमाई चकाचौंध में दम न तोड़ दें. इनका चलन बना रहे. मौका निकालकर ज़रूर देखिएगा ये फिल्म.


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