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'धनक' फिल्म रिव्यू: थोड़ी बनावटी है, लेकिन दिल सही जगह पर है

'सारूक खान' की सूटिंग लगी है, अौर दो बच्चे निकल जाते हैं खोज में इंद्रधनुष की. रास्ते में कौन कौन मिलता है, हर कहानी में रंग बिखरा है.

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मियां मिहिर
17 जून 2016 (Updated: 17 जून 2016, 11:21 AM IST) कॉमेंट्स
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फिल्म : धनक

निर्देशक : नागेश कुकुनूर

अभिनेता : हेतल गाडा, क्रिश छाबड़िया, विपिन शर्मा, गुलफ़ाम खान, विभा छिब्बर, विजय मौर्य

समय : 1 घंटा 46 मिनट


दो आठ साल के प्यारे बच्चे शमशेर अौर छोटू जलेबियां खाते हुए ख्वाब बुन रहे हैं, "जब मैं बड़ा हो जाउंगा ना तो ऐसा घर बनाउंगा जिसकी छत घेवर की होगी. अौर जलेबी की खिड़कियां. अौर ज़मीन लड्डुअों की". ये सुनकर शमशेर छोटू से पूछता है, "लेकिन ज़मीन लड्डुअों की हुई तो हम चलेंगे कैसे?" जिसे सुनकर छोटू बोलता है, "जब लड्डुअों की ज़मीन होगी तो चलेंगे क्यों? बस बैठकर खायेंगे!"

नागेश कुकुनूर की नई फिल्म 'धनक' का ये सबसे प्यारा प्रसंग है, जिसे देखते हुए मुझे बचपन में पढ़ी रादुगा प्रकाशन, मास्को से छपी रशियन लोककथाएं याद आती रहीं. कहानियां जिनमें अनाथ तरुण नायक ईवान को सताने दुष्ट बाबा यगा झाडू पर उड़कर आती थी अौर मददगार अलदार कोसे स्तेपी में कारनामे दिखाते थे. कहानियां जिनमें गरीब नायक किसी सफ़र पर निकलता है, रास्ते में उसको एकदम भिन्न प्रकारों के मददगार राहगीर मिलते हैं. कुछ मुसीबतें अौर दुष्ट आत्माएं भी आती हैं सफ़र में, लेकिन उनका समय रहते नाश हो जाता है. अन्त में किसी राजकुमार की जादूभरी आमद होती है अौर सब अच्छा हो जाता है.

यहां ये जादूभरे राजकुमार सारूक खान  हैं. सिनेमा चमकते सितारे, जिनको परी दिलोजान से चाहती है. परी रेत भरे पश्चिमी राजस्थान की एक सुदूर ढाणी में रहनेवाली बच्ची है, जिसके माता-पिता कुछ साल पहले एक हादसे में मर गए. परी का एक छोटा भाई है, छोटू. छोटू की आंखों की रौशनी चली गई है. जबसे ये हुआ है छोटू को अकेले डर लगता है, लेकिन बड़ी बहन कभी छोटू का हाथ नहीं छोड़ती है.

दोनों में एक ही बात पर लड़ाई होती है, जब परी छोटू के सामने सारूक खान जी की तारीफ़ कर दे. क्योंकि छोटू सलमान खान का फैन है. 'दबंग' वाले सलमान खान का. आंखों की रौशनी जाने से पहले उसने आखिरी फिल्म यही देखी थी. एक दिन परी पास के कस्बे में सिनेमा देखकर लौटते हुए अपने प्यारे सारूक खान जी का एक पोस्टर देखती है, नेत्रदान की अपील वाला. फिर पता चलता है कि सारूक खान की सूटिंग लगी है  जैसलमेर के पास. बस, निकल पड़ते हैं दोनों भाई-बहन मिलने शाहरुख खान से.

लेकिन रास्त लम्बा है अौर डगर कठिन. फिल्म का खेल यहीं पर है. किसी नीतिकथा की तरह फिल्म आगे बढ़ती है अौर परी अौर छोटू के इस कठिन सफ़र को सरल बनाने पथराही नए-नए किरदार जुड़ते जाते हैं. हर नया किरदार पिछले वाले से ज़्यादा अजीबोगरीब, अौर हर किरदार के पास शाहरुख खान की अपनी एक कहानी. सुनहरे दिल वाला अमदावादी ट्रक ड्राइवर है, जिसका दावा है कि उसने शाहरुख खान के सेट के लिए 500 ट्रक रेत ढुलवाई है. पानी की तलाश में रेगिस्तान में बेहोश हुआ गोरा टूरिस्ट है, जिसके बस्ते में गिटार है अौर जो world peace के गाने गाता है.

लोकल देवी बनीं 'शीरा माता' मिलती हैं, जो चुपके से दोनों बच्चों को कान में बताती हैं कि वो इस देवी वाले धंधे में आने से पहले थिएटर एक्ट्रेस थीं अौर उन्होंने शाहरुख खान के साथ काम भी किया है. "शाहरुख से मिलो तो कहना कि विभा ने हाय बोला है!" शीरा माता बच्चों से कहती हैं. कुकुनूर कमाल करते हैं इस भूमिका के लिए दिल्ली की थिएटर एक्टर विभा छिब्बर को चुनकर, जिन्होंने बैरी जॉन के थियटर में काम करने के अलावा सच में 'चक दे! इंडिया' में शाहरुख खान के साथ काम किया है.

परी अौर छोटू के इस रोमांचक सफ़र में भारती अचरेकर उर्फ़ मिसेज़ वागले भी आती हैं. जादूगरनी दादी मां बनकर, अौर कुछ पत्थर रगड़ उन्हें दुष्ट आत्माअों से बचाती हैं. परदे पर आप इन दुष्ट आत्माअों को साक्षात 'दुम दमाकर भागते' देख सकते हैं. कॉमेडियन सुरेश मेनन भी यहां हैं. बिना संवाद वाले 'नाटे, अनोखे आदमी' बदरीनाथ की भूमिका में, अौर एमटीवी रोडीज़ वाले रघु के भाई राजीव भी. अौर 'नाचोम-का-कुम्पासार' वाले सॉलिड अभिनेता विजय मौर्य भी यहां हैं. ये सभी बेहतर अभिनेता हैं, लेकिन एक बात है. इनमें से कोई भी राजस्थान की बोली-बानी से वैसा परिचित नहीं है, जैसा होना चाहिए. अौर इसीलिए विपिन शर्मा जैसे सक्षम अभिनेता फिल्म में अलग लेवल पर नज़र आते हैं.

इससे पहले भी राजस्थान नागेश की 'डोर' में देखा गया था. खुद कुकुनूर हैदराबाद से हैं अौर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि 'हैदराबाद ब्लूज़' या 'इक़बाल' में वे जिस प्रामाणिकता से परिवेश को पकड़ते हैं, वो इन फिल्मों में नहीं दिखता. शायद यह निर्देशक का अपरिचय है, या शायद वे ऐसी ही फिल्में बनाना चाहते हैं जो किसी लोककथा की तरह पढ़ी जाएं. यहां कुकुनूर रेगिस्तानी इलाके को परिवेश की कठिनाई का अौर उसके बरक्स इंसानी अच्छाई को जीवन की सकारात्मकता का पर्याय बना देते हैं. यह फिल्में अपनी सरलता के लिए चाही जाती हैं, भले ही उनका 'राजस्थान' कृत्रिम लगता हो.

रंग-बिरंगे राजस्थान का चेहरा यह फिल्म दिखाती है. यहां गांव के लोग, गरीब लोग हमेशा अच्छे हैं अौर बड़ी गाड़ियों वाले शहरी लोग बदमाश. यह फिल्म को सरल तो बनाता है, लेकिन उसकी कमज़ोरी भी बनता है. कमज़ोरी इसलिए कि यह फिल्म सिनेमाई सालोंसाल पुराने क्लिशे से आगे नहीं बढ़ती. मां-पिता की मृत्यु के बाद संतानहीन चाची का बच्चों से हृदयहीन व्यवहार ऐसा ही एक क्लिशे है फिल्म का.

राजस्थान के नाम पर जितने संदर्भ हो सके हैं, सब भर दिए हैं फिल्मकार ने फिल्म में. कैर सांगरी, बाजरे की रोटी, घेवर, जलेबी, लांगा मांगणियार, बुलेट बाबा मंदिर, विश्वशांति ढूंढते विदेशी गोरे टूरिस्ट, कालबेलिया, ऊंट अौर भी बहुत कुछ. आज की सच्चाई की कसौटी पर कसेंगे तो ये राजस्थान खरा नहीं उतरेगा. राजस्थान की जिस किस्म की exotic पर्यटकीय इमेज 'धनक' पेश करती है, लगता है जैसे फिल्म की कहानी 'लोनली प्लैनेट' वाले राजस्थान के भीतर रची गई है.

लेकिन जैसा फिल्म का एक किरदार अपने बच्चे के लिए बोलता है, "मेरा छोरा है गधा, पर दिल उसका सही जगह पर है", 'धनक' भी इसी heart at the right place वाली श्रेणी की फिल्म है. अौर वो इसके मुख्य किरदार हैं, जिन्होंने 'धनक' को उसके हिस्से की ईमानदारी बक्शी है. 'छोटू' की मुख्य भूमिका में क्रिश छाबड़िया ने अपने ज़िन्दादिली अौर हाज़िरजवाबी भरे रोल से दर्शकों का दिल जीता है. वे नेत्रहीन हैं, लेकिन उनकी भूमिका में ज़रा भी आत्मदया नहीं है. कुकुनूर ने यहां क्रिश के संवादों में बड़बोलेपन वाला सटायर भर फिल्म की इमोशनल टोन को कमाल का बैलेंस किया है. अौर बड़ी बहन परी की भूमिका में हेतल गाडा तो बस कमाल हैं. सबसे छोटी होते हुए भी उनके अभिनय में गज़ब की प्रामाणिकता है अौर इलाके की टोन को उन्होंने कई अन्य बड़े अभिनेताअों से बेहतर पकड़ा है. उनकी चमकीली आंखों में साक्षात उम्मीदों का इंद्रधनुष दिखाई देता है − धनक.

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