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Review: इस फिल्म में पाकिस्तान मुर्दाबाद नहीं होता, हिंदुस्तान हैंडपंप नहीं उखाड़ता

अभय देओल, डायना पेंटी, पीयूष मिश्रा स्टारर 'हैप्पी भाग जाएगी' में बहुत त्रुटियां हैं लेकिन फिर भी ये जीतती है.

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फिल्म के पोस्टर में अभय देओल, डायना पेंटी, अली फ़ज़ल, जिमी शेरगिल.
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19 अगस्त 2016 (Updated: 19 अगस्त 2016, 12:06 IST)
Updated: 19 अगस्त 2016 12:06 IST
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फिल्म: हैप्पी भाग जाएगी । निर्देशक: मुदस्सर अजीज़ । कलाकार: पीयूष मिश्रा, अभय देओल, डायना पेंटी, अली फज़ल, जिमी शेरगिल, मूमल शेख़, जावेद शेख़, कंवलजीत सिंह । अवधि: 2 घंटे 6 मिनट

आगे Spoilers/खुलासे हैं, अपने विवेक से ही पढ़ें.

ये कहानी शुरू होती है हैप्पी से. हरप्रीत कौर उसका पूरा नाम है और 'कॉकटेल' वाली डायना पेंटी ने ये किरदार किया है. अमृतसर में उसकी शादी की तैयारियां हो रही हैं. उसका होने वाला दूल्हा पार्षद है. उसे एमएलए बनना है. लेकिन वो जिससे प्यार करती है वो कुछ नहीं करता. टुनटुना (गिटार) बजाता है. हैप्पी के बाउजी जो कि कंवलजीत सिंह बने हैं, को ये पसंद नहीं है. उन्हें तो रसूखदार पार्षद दामाद ही जमा है. पार्षद महोदय हैंडसम हैं. जब 'मोहब्बतें' वाले जिमी शेरगिल हैं तो होंगे क्यों नहीं? वो 'जीत' फिल्म के गाने पर नाच रहे हैं हालांकि फिल्म के आखिर तक हार जाते हैं. गाना है "यारा ओ यारा मिलना हमारा जाने क्या रंग लाएगा". यही होता है कहानी में भी.
हैप्पी को वो पसंद नहीं तो बॉयफ्रेंड गुड्‌डू यानी अली फज़ल फूलों को ट्रक भेजता है कूदकर फरार होने के लिए, बगैर बाबुल की दुआएं लिए. वो गलत ट्रक में कूद जाती है. आंख खुलती है तो खुद को लाहौर की एक कोठी में पाती है. ये कोठी है पाकिस्तान के जाने-माने राजनेता जावेद अहमद की. ये रोल पाकिस्तानी एक्टर जावेद शेख़ ने निभाया है. वे अपने बेटे बिलाल अहमद यानी अभय देओल को पाकिस्तान का इतिहास बदल देने वाला राजनेता बनते देखना चाहते हैं और उसका political career लॉन्च करने के लिए कोशिशें करते हैं. इसी राह पर भारत लिवा ले गए थे international delegation का हिस्सा बनाकर लेकिन वो वहां से निकल सड़क पर आठ-नौ साल के बच्चों के साथ क्रिकेट खेलने लगता है. यही तो उसका सपना होता है लेकिन अब्बू के चलते ये सपना छोड़ना पड़ता है. सड़क पर बच्चों की बॉल को वो दो बार छक्का माकर गुम कर देता है. तीसरी बॉल से पहले बच्चे को ज्ञात हो जाता है कि वो पाकिस्तानी है और उसे क्लीन बोल्ड कर देता है, कहता है, पहले ही बता देते पाकिस्तानी हो तो दो बॉल गुम नहीं होती.
यहां पर लाहौरी युवक बिलाल हंसने लगता है, बच्चे की बात को प्रेम से स्वीकार करते हुए. फिल्म का ये संदर्भ बिंदु कई बार लौटता है और अगर शो खत्म होने के बाद देखें तो यही सबसे महत्वपूर्ण नजरिया बनकर उभरता है, कि आखिर 'हैप्पी भाग जाएगी' देखने के बाद आपके पास क्या अनुभव बचता है? जो लव स्टोरी यहां आप देखते हैं, उसमें बहुत सारे स्टीरियोटाइप हैं भी और कुछ नहीं भी हैं. कुछ सही संदेश भी हैं, कुछ व्यर्थ भी हैं. बेहद चतुर फिल्ममेकिंग भी नहीं है और टाइमपास एंटरटेनमेंट भी है.
लेकिन जो हासिल होने वाली बात है वो है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बसी ये ऐसी फिल्म है जिसमें न तो कोई 'पाकिस्तान मुर्दाबाद है' बोलता है न कोई 'हिंदुस्तान मुर्दाबाद' और न कोई हैंडपंप उखाड़ता है. न कोई यहां पाकिस्तान में आपका धर्म परिवर्तन करवाने में दिलचस्पी रखता है. आप चाहे मनोरंजन की झपकी में बांध लेने के मामले में 'गदर' न हो पा रहे हों लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होते हो.
ऐसे समय में जब हम पाकिस्तान में बलूचिस्तान के मसले को पहली बार कूटनीतिक तौर पर उठाकर अपनी विदेश नीति में मोटा बदलाव देख रहे हैं, हम फिर से people to people dialogue की राह से हट रहे हैं, ऐसे में 'हैप्पी भाग जाएगी' जैसी कम चतुर फिल्म भी बहुत सुखद है. इसमें जब बिलाल और उसके अब्बू डेलेगेशन को लेकर अपने देश लौट जाते हैं तो उनके साथ तोहफों वाले ट्रक में हैप्पी भी होती है. बिलाल पहले हैप्पी को यूं अपने घर में पाकर चकित हो जाता है. फिर धीरे-धीरे उस स्थिति में आता है कि गुड्‌डू से मिलाने में उसकी मदद करे. मंगेतर ज़ोया भी उसकी मदद करती है जो रोल पाकिस्तानी एक्ट्रेस मूमल शे़ख़ ने किया है. इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी ये नहीं लगता कि भारत और पाकिस्तान नाम के दो मुल्क भी हैं.
तुरंत ये कहा जा सकता है कि कहां सपनों की दुनिया में हो? ये फिल्म है? और फिल्मी कहानियों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं होता. लेकिन यही वो अनूठा कालखंड है जो आभासी है लेकिन इसमें अंदर से हम तक पहुंचने वाली कहानियां हम पर गहरा असर करती हैं. हमारे कल्चर का निर्माण करती जाती है. दूसरा, जो बातें हम अपने बीच होते नहीं देख पा रहे, उन बातों को इस कालखंड में घटित किया जा सकता है और एक बार जब किसी चीज की शुरुआत, चाहे वर्चुअली ही सही, हो जाती है तो फिर असल जमीन पर भी उसे होते देखा जाता है.
तो हैप्पी लाहौर में है और बिना उससे एक रुपया लिए वहां के उसके नए दोस्त उसे अपने घर पहुंचाने में न जाने कितनी असहज स्थितियों से गुजरते हैं. मदद करने वाली टोली में लाहौर पुलिस में एसीपी उस्मान फरीदी यानी पीयूष मिश्रा भी शामिल है. वो ऐसा आदमी है जो हिंदुस्तान को फूटी आंख पसंद नहीं करता. लेकिन किस प्रकार? कि वो कभी हिंदुस्तान की जमीन पर कदम नहीं रखना चाहता क्योंकि वहां जाएगा तो वहां का नमक खाना पड़ जाएगा. लेकिन फिर उसे ज्ञात होता है कि नमक तो पाकिस्तान भारत का ही खाता है क्योंकि वहीं से आयात किया जाता है, तकरीबन तब से जब से दोनों मुल्क बने. फिर गांधी जी का जिक्र आता है तो कहता है काश गांधी जी पाकिस्तान में पैदा हुए होते. मिर्जा ग़ालिब के मुहल्ले बल्लीमारान का नाम आता है तो कहते हैं काश ग़ालिब पाकिस्तान में होते.
"हैप्पी.." के दृश्य में पीयूष मिश्रा का पात्र.
"हैप्पी.." के दृश्य में पीयूष मिश्रा का पात्र.
दरअसल यहां पीयूष मिश्रा का पात्र brainwash कर दिए गए दर्शकों को बता रहा होता है कि मूल रूप से तो ये सब लोग, विचार, जगहें दोनों मुल्कों का सांझा विरसा है. हम कितने भी अजनबी बनने का अभिनय कर लें, कितना भी तुम्हारा-हमारा कर लें लेकिन कैसे बांटेंगे? मेहदी हसन को कैसे बांटेंगे? गांधी तो कभी बंटे ही नहीं थे. किशोर, रफी, लता, नुसरत को कैसे बांटेंगे?
अगर आप दुनिया या भारत-पाकिस्तान के सबसे अग्रणी विचारकों और बुद्धिजीवी लोगों से पूछें तो वे कहेंगे कि एक दिन ऐसा आना ही है जब भारत और पाकिस्तान के बीच की शत्रुता खत्म हो जाएगी और बॉर्डर हट जाएगा. वे वैसे ही रहेंगे जैसे आज यूरोप के मुल्क आपस में रहते हैं. जिसको जब जहां जाना है जाता है और आता है. भारत-पाक के संबंध भी वैसे ही होंगे. कुछ लोग इसे बिलुकल नहीं मान पाएंगे लेकिन लेखक भी मानता है कि ये बहुत ही व्यावहारिक और अवश्यंभावी संभावना है. एक दिन ऐसा होना ही है. जब उस्मान फरीदी के पात्र को हम फिर से याद कर रहे होंगे.
बाउजी जब पाकिस्तान पहुंच जाते हैं बेटी को ढूंढ़ते तो एक चाय वाले से पूछते हैं और वो उन्हें पूरी तरह गाइड कर देता है. वो चाय पीते हैं और आश्वस्त मंजिल की ओर बढ़ते हैं. वहां ऑटो रिक्शा वैसे ही विश्वास से रुकवा रहे होते हैं जैसे अमृतसर में करते हैं. पार्षद बग्गा अमृतसर में बैठा-बैठा पाकिस्तान में likeminded people यानी गुंडों को कहकर हैप्पी को उठवा लेता है जैसे कि पंजाब के किसी जिले की बात हो. बताएं, इस काम के बीच भी कहां कोई बॉर्डर आ पाया?
'हैप्पी भाग जाएगी' की कहानी के अन्य पहलुओं पर आएं तो कुछ कुछ वो 'डॉली की डोली' जैसी लगती है लेकिन मूल कथानक अलग है. दोनों के पोस्टर देखेंगे तो पाएंगे कि एक दुल्हन के ड्रेस में लड़की है और तीन लड़के उसकी ओर देख रहे हैं. यहां भी दो युवक उसके प्रेम में पड़ जाते हैं, तीसरे ने कार्ड छपवा लिए इस नाते उसे हासिल करना चाहता है. लेकिन न तो हमें यहां 'डॉली की डोली' जैसा अंत दिखता है, न 'हम दिल दे चुके सनम' जैसा आर्टिस्टिक अंत. यहां तो सीधा सा हिसाब है कि ये दो प्रेमी बेहद मासूमियत से प्रेम करते हैं. जब बिलाल एक बार हैप्पी से पूछता है कि गुड्‌डू करता क्या है? तो वो कहती है कुछ नहीं करता मुझसे प्यार करता है? वो पूछता है लेकिन फिर भी कहता क्या है तो वो कहती है, कुछ नहीं करता, बस यही करता है. उसके प्रेम की वो पूरी निर्दोष अवस्था है जहां वो क्या करेगा, क्या कमाएगा ये सोच में ही नहीं है. और जब वो दोनों पाकिस्तान में पहली बार मिलते हैं दो-तीन घंटे तक बच्चों की तरह खिलखिलाते-खेलते रहते हैं. उन्हें बस साथ होना है, बाकी कोई जरूरत नहीं. और फिल्म इसी स्वरूप में रहती भी है, इस छोर पर कोई इतिहास रचने की कोशिश नहीं करती.
बिलाल तारीफ करता है कि हैप्पी जैसी लड़की लाखों-करोड़ों में होती है. जहां वो क्रिकेट के अपने सपने को पिता के दबाव में छोड़ चुका है और तिल-तिल कर जी रहा है, वहीं वो है कि बस पिता का फैसला मन का नहीं लगा तो भाग गई. बिलाल कहता है, वो बस भाग जाती है, मेरी तरह इतना सोचती नहीं. ऐसी कई चीजें है जो फिल्म में बहुत प्यारी हैं. अपने आप में संपूर्ण सबक हैं. बस सिनेमाई व्याकरण के लिहाज से निर्देशक मुदस्सर अजीज़ उसे वैसे स्थापित नहीं कर पाते हैं. वे इन सब बातों को बहुत सरलीकृत तरीके से ला पाते हैं. जैसे हैप्पी के पात्र में जितना जादुई आकर्षण बिलाल और गुड्डू को महसूस होता है वो दर्शकों को नहीं होता. उन्हें पर्याप्त तर्क नहीं मिलते यूं सोच पाने के लिए. शायद बॉलीवुड और साउथ की फिल्मों वाले हीरोइनों को लेकर जो घिसे-पिटे स्टीरियोटाइप बने हैं - उनकी उड़ती जुल्फें, गुलाबी-रसीले होठ, गोरा-दमकती त्वचा, उत्तेजक शारीरिक घुमाव, छुई-मुई अदाएं, शर्मीलापन, हीरो को लेकर दीवानगी, हीरो पर आश्रित होना
- उनसे हैप्पी को यूं स्थापित भी कर दिया जाता कि सबसे निचली सीटों को दर्शकों का पेट भर जाता लेकिन यहां ऐसा नहीं किया जाता है. यही फर्क इस फिल्म की ख़ूबी भी मान सकते हैं, ख़ामी भी.

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