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मूवी रिव्यू: चक्की

विजय के रोल में राहुल भट्ट ने कमाल काम किया है. विजय की निराशा, झुंझलाहट वो अच्छे तरीके से पेश करते हैं. चाहे लो टोन रहना हो या एकदम से गुस्से में फट पड़ना हो.

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बिल ने विजय बाबू की आंखें खोल दी
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अनुभव बाजपेयी
10 अक्तूबर 2022 (Updated: 10 अक्तूबर 2022, 04:23 PM IST) कॉमेंट्स
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2018 में शाहिद कपूर की एक फ़िल्म आई थी 'बत्ती गुल मीटर चालू'. उसमें बिजली का बिल हद से ज़्यादा आ जाता है. फिर उसे कम करवाने की कोशिश होती है. फिर मुकदमा लड़ा जाता है. ऐसी ही एक और फ़िल्म आई है 'चक्की'. इसका भी कॉन्सेप्ट लगभग सेम ही है. देखते हैं कैसी है?

‘चक्की’ पोस्टर

विजय, एक आम आदमी. भोपाल उसका बसेरा है. उसके तमाम सपने जिम्मेदारियों तले आकर पिचक गए. घर में मां है. एक बीमार पिता और स्कूल जाता भाई. उसे इन सबका निर्वहन करना है. इसके लिए उसने छोटी-सी आटे की मिल खोल ली. विजय उससे तक़रीबन चालीस हजार महीना कमा लेता है. एक आम आदमी अपनी ज़िंदगी को बैलेंस ढूंढ़ने में ही गुज़ार देता है. उसे लगता है कि वो सब सही कर लेगा. विजय को भी यही लगता है. एक तरह से देखें तो सब सही भी चल रहा होता है. पर इसी सही में एक ग़लत होता है और फिर सब ग़लत होता ही चला जाता है. विजय की आटा चक्की का बिल कई गुना ज्यादा आ जाता है. जितना वो अगले दो साल भरता, उतना एक महीने का बिल आ जाता है. फिर शुरू होती है सरकारी चक्की/सिस्टम की चक्की. जिसमें विजय को ऐसा पीसा जाता है कि वो ख़ुद आटा बन जाता है. उसका जीवन तहस-नहस हो जाता है. सारे पैसे सरकारी चक्की खा जाती है. जिस लड़की से उसे शादी करनी है, उस रिश्ते में भी खटाई पड़ जाती है. ऐसी तमाम तरह की कठिनाइयों से जूझते शख़्स की कहानी है 'चक्की'.

विजय के रोल में राहुल भट्ट

इसका कांसेप्ट कोई नया नहीं है. हमने ऊपर भी 'बत्ती गुल मीटर चालू' के बारे में बात की. कुछ-कुछ वैसा ही कॉन्सेप्ट है. बस सेटअप नया है. कई एलिमेंट्स नए हैं. कहानी कहने का तरीका थोड़ा अलग है. ख़ास बात है, 'चक्की' में जो कुछ होता है, उससे आप रिलेट कर पाते हैं. ऐसा लगता है, अपने मोहल्ले का आदमी किसी परेशानी से जूझ रहा है. या यूं कहें आप ही उस परेशानी से दो-चार हो रहे हैं. इसमें कई चक्की हैं : एक तो सरकार और सिस्टम की चक्की, दूसरी सांसारिक चक्की, तीसरी अंतर्मन की चक्की और चौथी प्रेम की चक्की. इसी बात को समझाते हुए राहुल राम का वॉइस ओवर आता है: चक्की तो हम सबके साथ होती है. बस समझ ये नहीं आता कि हम उसे चला रहे हैं या उसमें पिस रहे हैं. राहुल राम की आवाज़ बीच-बीच में सुनने को मिलती है, जो सुखद है. उनकी आवाज़ फ़िल्म के नरेटर की आवाज़ है.  सही पकड़े आप, ये इंडियन ओशन वाले राहुल राम हैं. इसी बैंड ने फ़िल्म के गाने बनाए हैं. एक गाना वरुण ग्रोवर और बाक़ी पीयूष मिश्रा ने लिखे हैं. फ़िल्म का एक गाना केके ने भी गाया है. बढ़िया संगीत है. कहीं पर भी बोझिल नहीं लगता है. मेघदीप बोस का बीजीएम भी एक नम्बर है. 

भोपाली इश्क़ 

सतीश मुंडा के डायरेक्शन में बनी इस फ़िल्म के पहले 50-55 मिनट बहुत थकाऊ हैं. कहानी को बहुत लंबा खींचा गया है. 'चक्की' नरेटिव बिल्ड करने में ही आधे से ज़्यादा समय खा जाती है. कई चीज़ों का दोहराव अखरता है. पर आख़िरी 50 मिनट बढ़िया पेस से फ़िल्म चलती है. देखने का मन करता है. पर यहां समस्या ये होती है कि पहले 50 मिनट की थकान सिर पर हावी रहती है. इसलिए सेकंड हाफ भी आप ढंग से एंजॉय नहीं कर पाते. हालांकि ये दिखता है कि फ़िल्म बढ़िया मक़सद से मध्यवर्गीय समस्याओं को दिखाने के लिए बनाई गई है. पर इंटेंट एक्सिक्यूशन में तब्दील नहीं हो पाता. किरदारों ने भोपाल की भाषा बढ़िया पकड़ी है, जो कि प्योर भोपाली नहीं है. अब आप कहेंगे पूरी तरह से भोपाली नहीं है, तो ये भाषा को अच्छा पकड़ना कैसे हुआ. पहली नज़र में फ़िल्म भोपाल की लग सकती है. पर ये ओल्ड भोपाल में नहीं, एक तरह के नए भोपाल में सेट है. वहां भोपाली का बस थोड़ा थोड़ा टच आता है. यही फ़िल्म में हैं, जो कि अच्छी बात है. कुछ लोकल गालियां भी उठाई गई हैं, जो कि इस बात को दिखाती हैं कि लोकल लैंग्वेज पर सही काम किया गया है.

अपने दोस्तों के साथ विजय 

विजय के रोल में राहुल भट्ट ने कमाल काम किया है. वो कहीं पर भी बनावटी नहीं लगते. एकदम रियल लगते हैं. विजय की निराशा, झुंझलाहट वो अच्छे तरीके से पेश करते हैं. चाहे लो टोन रहना हो या एकदम से गुस्से में फट पड़ना हो. राहुल इन सभी जगहों पर ऐक्टिंग का स्वादानुसार नमक ही इस्तेमाल करते हैं. विजय की गर्लफ्रैंड के रोल में प्रिया बापट ने भी बढ़िया काम किया है. वो अपना किरदार पकड़कर रखती हैं, दाएं-बाएं नहीं भागती. बाक़ी जितने भी किरदार हैं, सभी ने अच्छा काम किया है. न किसी ने सूत भर कम, न किसी ने सूत भर ज़्यादा ऐक्टिंग की है.

कुल मिलाकर अभिनय के मामले में फ़िल्म बढ़िया कही जा सकती है. पर स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन के लिहाज़ से अप टू दी मार्क कहना बेईमानी होगा. फ़िल्म बहुत सपाट चलती है. इसे थोड़ा और दिलचस्प बनाए जाने की ज़रूरत थी. ये एक ज़रूरी फ़िल्म है. देखी जानी चाहिए. पर वैसी फ़िल्म नहीं है, जिसे मैं देखने की सिफारिश करूं. समय हो तो नज़दीकी सिनेमाघरों में देख डालिए. मेरी तरफ़ से किसी तरह का कोई आग्रह नहीं है.

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