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मूवी रिव्यू - लापता लेडीज़

Laapataa Ladies में Salman Khan के घर का पता है, 'शान' वाला अब्दुल है, लेकिन सबसे ज़रूरी फिल्म के पास बड़ा दिल है.

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laapataa ladies review
फिल्म को आमिर खान और जियो स्टूडियोज़ ने प्रोड्यूस किया है.
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1 मार्च 2024 (Updated: 2 मार्च 2024, 08:07 IST)
Updated: 2 मार्च 2024 08:07 IST
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Laapataa Ladies
Director: Kiran Rao
Writer: Sneha Desai
Cast: Nitanshi Goel, Pratibha Ranta, Sparsh Shrivastava, Ravi Kishan
Rating: **** (4 Stars)

साल 2001. दीपक कुमार की शादी हुई. अपनी पत्नी को लेकर वो घर के लिए ट्रेन में चढ़ता है. ट्रेन ठसाठस भरी है. दीपक अपनी पत्नी फूल के लिए जगह खोजते-खोजते बढ़े जा रहा है. फूल सिर्फ अपने पति के जूते देख सकती है. उसकी वजह है चेहरे पर पड़ा लंबा घूंघट. ‘लेडीज़ हैं, बैठा लीजिए’, इतना कहने पर फूल को तो सीट मिल जाती है. दीपक सीट के कोने पर खड़ा है. कोच में एक नवविवाहित जोड़ा और बैठा है. बात चलती है कि शादी में कितना दहेज मिला. साल 2001 था, इसलिए सब खुले में दहेज कह रहे थे. 2024 होता तो उसे ‘गिफ्ट’ का नाम दे दिया जाता. खैर दीपक ने कोई दहेज नहीं लिया. इस बात पर लोग हंसते भी हैं और वो गर्व करने की जगह आंखें झेंप लेता है. 

कुछ घंटों बाद दीपक देखता है कि उसका स्टेशन आ गया. आनन-फानन में दुल्हन को उतरने को कहता है. लाल जोड़े में लंबा घूंघट पहने दुल्हन उसके पीछे-पीछे उतर जाती है. दोनो लोग दीपक के गांव सूरजमुखी पहुंचते हैं. स्वागत के लिए नई दुल्हन का घूंघट उठाया जाता है. मां के हाथ से आरती की थाली छूटती है, और झन्न कर के ज़मीन पर आवाज़ करती है. छोटा बबलू चिल्लाता है, ‘चाची बदल गई’. दीपक की दुल्हन बदल गई है. फूल कुमारी कहीं और पहुंच गई, और उसके घर पुष्पा रानी आ गई है. अब फूल को घर लाने की कोशिश शुरू होती है. इस बीच सलमान खान के घर का पता आता है, ‘शान’ फिल्म के अब्दुल से मिलते हैं जो बस गाना नहीं गाता, और प्योर शब्दों में लिखें तो मिलता है एंटरटेनमेंट. ‘लापता लेडीज़’ सिर्फ मनोरंजन नहीं करती. आप फूल और पुष्पा की ज़िंदगी बदलते हुए देखते हैं. उनकी वजह से उनके आसपास की दुनिया को बदलते देखते हैं. उनका आर्क पूरा होते हुए देखते हैं. 

ravi kishan
रवि किशन ने एकदम एफर्टलेस काम किया है.

‘लापता लेडीज़’ के सबसे बड़े कंफ्लिक्ट के आते ही आपको आइडिया लग जाता है कि इस कहानी का समापन कैसे होगा. फिर भी आप पूरी तरह इंवेस्टेड रहते हैं. उसकी सबसे बड़ी वजह है कि जिस ईमानदारी से इस दुनिया को पेश किया गया है. डिटेलिंग पर काम हुआ है. शुरू में दोनो दुल्हनों के हाथ की मेहंदी और लाल नाखून पोलिश का रंग गाढ़ा रहता है. लेकिन समय के साथ आप उन्हें फीका पड़ते हुए देखते हैं. फिल्म की कहानी बिप्लब गोस्वामी की रची हुई है. वहीं स्नेहा देसाई ने स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं. फिल्म की कहानी बहुत हद तक प्रेडिक्टेबल है. और यही इसकी खूबसूरती भी है. ये सिर्फ अपने चुटीले वन लाइनर्स की बदौलत आपका ध्यान खींचकर नहीं रखना चाहती. फिल्म का रिलेटेबल होना उसके हक में काम करता है. आप एक किरदार को कहते हुए सुनते हैं कि ये लड़की बहुत आगे जाएगी. तभी बगल में खड़ा शख्स कहता है कि हां देहरादून तो बहुत आगे है, 800 किलोमीटर तो होगा ही. ऐसे लोग आप रोज़ाना अपने आसपास देखते हैं और उनकी ऐसी बातों पर हंसी भी आती है. 

मशहूर एक्टर और कॉमेडियन चार्ली चैपलिन ने एक बार कहा था, Life Is A Tragedy When Seen In Close-up, But Comedy In Long-shot. इसे सिनेमा वाले एक मंत्र की तरह भी देखते हैं. कि अगर आपको कॉमेडी दिखानी है तो लॉंग शॉट यानी दूर से शूट कीजिए. अगर कोई भावुक क्षण कैप्चर करना है तो क्लोज़ अप लीजिए, यानी कैमरा को चेहरे के पास ले जाइए. ‘लापता लेडीज़’ के एक सीन में क्लोज़-अप में कॉमेडी शूट की है और वो लैंड भी करती है. नेता जी वोट मांगने के लिए मंच पर खड़े हुए हैं. दीपक उनके पास अपनी पत्नी को ढूंढने की गुहार लगा रहा है. नेता जी का एक क्लोज़-अप शॉट आता है. सिर्फ उनका चेहरा दिख रहा है और आंखों में भूख. सामने बैठी जनता को देख नेता जी लहालोट हुए जा रहे हैं. ये कहीं बताया नहीं गया, बस उनकी चौड़ी आंखों में दिखता है. इस आइरनी पर अपने आप हंसी आती है. 

laapataa ladies
फिल्म के एक सीन में स्पर्श श्रीवास्तव और नितांशी गोयल.

किरण राव के निर्देशन में बनी ‘लापता लेडीज़’ अपने सब्जेक्ट को लेकर सटल नहीं. दोष दीपक का नहीं कि वो अपनी पत्नी को पहचान नहीं पाया. दोष था लड़की के चेहरे पर पड़े उस लंबे घूंघट का. दोष था उस व्यवस्था का जो लड़की के चेहरे को घूंघट या बुर्के से ढंकती है. फिल्म उस पर कमेंट करने में झिझकती नहीं. साथ ही ये अपने समय की पॉलिटिक्स पर भी टिप्पणी करने की कोशिश करती है. जब फिल्म की एक किरदार कहती है कि उसका पति हाथ उठाने के हक को प्यार समझता था, तब आपको संदीप रेड्डी वांगा का एक इंटरव्यू याद आता है. पुष्पा एक जगह कहती है कि पहले उसकी जगह का नाम था इंदिरापुर था, फिर अटलगंज हुआ. कहती है कि हमारे यहां सरकार के साथ नाम बदल जाते हैं. आप समझ जाते हैं कि इशारा कहां हो रहा है. 

किरण राव ने अपनी कहानी दिखाने के लिए फूल और पुष्पा की नज़र यानी गेज़ का इस्तेमाल किया है. पुष्पा के पति को मालूम होता है कि बीवी खो गई है. वो झुंझलाहट में आसपास देखता है. फिर अपने दोस्तों से कहता है कि छोड़ो, आज डॉली के यहां जाएंगे, पुलिस के पास कल जाएंगे. इस पॉइंट पर कैमरा दूर से इस आदमी को देख रहा है. जैसे किसी चीज़ की आड़ में छिपकर देख रहा हो. उनके निकलने के बाद कैमरा का फोकस शिफ्ट होता है, और नज़र पड़ती है फूल पर. वो छुपकर किसी कोने में दुबकी हुई है. यहां आपको फिल्ममेकर की गेज़ का आइडिया लग जाता है. कि ये कहानी हम किसकी आंखों से देखने वाले हैं. इस चीज़ का फिल्म को फायदा भी हुआ और नुकसान भी. फायदा ये था कि महिलाओं के बीच होने वाली एकदम रैंडम और आम बातचीत को ईमानदारी से दिखाया. वही उसकी खूबसूरती भी थी जो अक्सर हमारे सिनेमा से गायब मिलती है. 

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‘शान’ वाले अब्दुल का रेफ्रेंस लिया गया है.

बाकी नुकसान ये था कि फिल्म पुरुष किरदारों पर ज़्यादा काम नहीं कर पाई. खासतौर पर दीपक. ये रिफ्रेशिंग था कि फिल्म उसे किसी तारणहार की तरह नहीं पेश करती. मगर उसके किरदार को डेप्थ भी नहीं दे पाती. बाकी दीपक बने स्पर्श श्रीवास्तव ने अच्छा काम किया. उनको देखकर आपको लगता है कि दीपक सेंसिबल किस्म का आदमी है. भेड़ बनकर बाकी पुरुषों की भीड़ में जाकर खड़ा नहीं हुआ. इस कहानी की हीरो प्रतिभा रंटा और नितांशी गोयल हैं. उन्होंने पुष्पा और फूल कुमारी के रोल किए. ये दोनो किरदार एक-दूसरे से पूरी तरह विपरीत थे. फूल ऐसी औरत है जो पति की बात को पत्थर की लकीर मानती है. वहीं पुष्पा ऐसी है जो अपने मुंह से पति का नाम लेने में कोई झिझक महसूस नहीं करती. कुछ करने से पहले इजाज़त नहीं लेती, बल्कि बताती है. नितांशी उस मासूमियत को बिना ओवर-डू किए किरदार के साथ लेकर चलती हैं. फिल्म के अंत तक इन दोनो में कुछ बदलता है. लेकिन ये पूरी तरह अलग इंसान की तरह नहीं दिखतीं. इन दोनो लड़कियों ने खुद पर काम किया, समय के साथ खुद को बदला लेकिन उनका दिल अभी भी उसी जगह पर है. 

ये रिव्यू बिना रवि किशन पर बात किए पूरा नहीं हो सकता है. उन्होंने पुलिस ऑफिसर श्याम मनोहर का रोल किया. पहली नज़र में समझ आता है कि ये ‘सिंघम’, ‘ऐंग्री मैन’ टाइप पुलिसवाला नहीं. कमर लंबी कर के कुर्सी पर बैठता है. मुंह हमेशा पान से भरा. श्याम मनोहर ही फूल कुमारी के केस की जांच कर रहा होता है. वो ऐसा आदमी है जिसे आप पढ़ नहीं सकते. आप सोचेंगे कि ये ऐसा करेगा और वो अगले ही पल आपको चौंका देगा. रवि किशन ने जिस आराम से उसे निभाया है, उसकी तारीफ होनी चाहिए. उनकी एक्टिंग को परिभाषित करने के लिए एफर्टलेस सही शब्द है. ऐसा लगता है कि उन्होंने किरदार पर सारा काम आंतरिक स्तर पर किया है. उस वजह से सामने सब कुछ आराम से फ़्लो होते हुए दिखता है.     

फिल्म में राम संपथ का म्यूज़िक नेरेटिव के साथ बहता है. उसे कॉम्प्लिमेंट करता है. ‘लापता लेडीज़’ देखी जानी चाहिए. सिनेमाघरों में अंत तक रुकिएगा, क्योंकि काफी समय बाद किसी फिल्म ने क्रेडिट्स पर मेहनत की है. क्रेडिट्स बहुत सुंदर तरह से रोल होते हैं.                                                                                                           
 

वीडियो: रिव्यू : मेड इन हेवन सीजन 2

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