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जोगीरा सारा रा रा: मूवी रिव्यू

'जोगीरा सारा रा रा' में नयापन नहीं है. टुकड़ों में हंसी आती है. जैसे यूट्यूब पर छोटे-छोटे स्केच देख रहे हों.
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नवाज़ इस फिल्म को अपने कंधों पर उठाया है
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नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और नेहा शर्मा की नई पिक्चर आई है, 'जोगीरा सारा रा रा'. हमने ली है देख. बताते हैं पिक्चर कैसी है, पर उससे पहले नवाज़ और नेहा शर्मा का इंटरव्यू देख डालिए.

एक है जोगी जिसका जुगाड़ कभी फेल नहीं होता. लोगों की शादी का इंतज़ाम करवाना उसका पेशा है. पर इस बार ऊंट किसी और करवट बैठ गया है. उसे डिम्पल की शादी तुड़वानी है. इसके लिए उसे तमाम जतन करने पड़ते हैं. शादी टूटती भी है. पर डिम्पल के पिता जी शादी की बन्दूक जोगी की तरफ़ ही मोड़ देते हैं. इसके बाद जो होता है वो आप पिक्चर में देखेंगे. बाक़ी, ये सब जो भी मैंने बताया, उससे कहीं ज़्यादा आप ट्रेलर में ही देख चुके हैं. कहने का मतलब है यदि आपने फ़िल्म का ट्रेलर पहले से देख रखा है, तो पूरी पिक्चर देखने से पहले 80 प्रतिशत कहानी आपके सामने होगी. मुझे ये उम्मीद थी, शायद कुछ और नए भेद खुलें. शायद अभी कुछ नई परतें उधेड़ी जाएं. पर इस मामले में निराशा हाथ लगी.

फिल्म में नेहा शर्मा 

'जोगीरा सारा रा रा' के डायरेक्टर हैं कुशन नंदी. वो इससे पहले नवाज़ के साथ 'बाबूमोशाय बंदूकबाज़' बना चुके हैं. तो उन्हें ये पता है कि नवाज़ से क्या करवाना है. जनता उनकी किस चीज़ को पसंद करती है? पर 'जोगीरा' का कलेवर नंदी की पिछली फिल्म से अलग है. नो डार्क सिर्फ कॉमेडी. ऐसी कॉमेडी, जिसके पीछे कोई पर्पज नहीं, कोई अर्थ नहीं. ऐसा नहीं है कि आपको हंसी नहीं आएगी. पर उस हंसी में कुछ एकाध जगह मामला द्विअर्थी होगा. कुछ जगह कोई सिचुएशनल कॉमिक डायलॉग आ जाएगा. कहीं एक्टर की कॉमिक टाइमिंग हंसी की वजह बनेगी. दरअसल इस पिक्चर के साथ दिक्कत ये है, हम इसी कलेवर की फ़िल्म 'बरेली की बर्फी' जैसी फिल्में देख चुके हैं. एक तरह से ऐसी मूवीज की जननी 'तनु वेड्स मनु' भी हमने देखी है. ऐसे में 'जोगीरा' में नयापन नहीं दिखता. टुकड़ों-टुकड़ों में हंसी आती है. जैसे यूट्यूब पर छोटे-छोटे स्केच देख रहे हों. हां, आखिरी के क़रीब 15 मिनट में पूरी तरह से हंसी आती है. ऐसा कुछ देखना है, तो मैं 'तारक मेहता शो' के पुराने एपिसोड देख लूंगा. बस वहां नवाज़ की जगह दिलीप जोशी देखने को मिलेंगे.

फ़िल्म को लिखा है ग़ालिब असद भोपाली ने. यही 'बाबूमोशाय बंदूकबाज़' के राइटर थे. उन्होंने और डायरेक्टर साहब ने सबसे बड़ी ग़लती किरदारों की भाषा पकड़ने में की है, जैसा कि अक्सर बॉलीवुड फिल्मों के साथ होता है. मुझे समझ नहीं आता, कहानी लखनऊ में सेट है, पर बोलने का लहजा उठाया है कनपुरिया. बरेली वाले भी कनपुरिया लहजे में बात कर रहे हैं. बॉलीवुड को ये समझना होगा यूपी में सिर्फ़ कानपुर ही नहीं है. और कई जगहें हैं. साथ ही हर रीजन का अलग एक्सेंट है. स्क्रिप्ट लिखने से पहले थोड़ी और रिसर्च होनी चाहिए. ये फ़िल्म सिर्फ डायलॉग के जरिए पंचेस मारने का काम करती है. कई बार नवाज़ के मोनोलॉग डालकर ऑडियन्स का ध्यान खींचने की कोशिश हुई है. फ्रीकी अली के उनके मोनोलॉग को कॉपी करने का प्रयास भी हुआ है. इसमें भी वैसे ही कई टूटे-फूटे मोनोलॉग्स हैं.

जोगी के रोल में नवाज़

नवाज़ इस फ़िल्म के हनुमान हैं. उन्होंने इसे कंधे पर उठाया है. वो न होते तो इस पिक्चर का क्या होता? हालांकि जोगी का किरदार फ्रीकी अली से बिल्कुल मेल खाता है. नवाज़ ने एक्टिंग भी वैसी ही की है. जैसे फ्रीकी को उठाकर 'जोगीरा सारा रा रा' की दुनिया में पटक दिया गया है. उनकी कॉमिक टाइमिंग बढ़िया है. उन्हें हंसाने के लिए बहुत एफर्ट नहीं करना पड़ता. वो अपने डायलॉग ऐसे डिलीवर करते हैं कि हंसी आ ही जाती है. एकाध जगह बस वो थोड़ी-सी ओवर ऐक्टिंग कर जाते हैं. नेहा शर्मा के पास इस फ़िल्म में बहुत कुछ करने को था. उन्होंने कोशिश भी की है. पर ख़ास क़ामयाब नहीं हुई हैं. वो सुंदर दिखी हैं. कहीं-कहीं पर अभिनय के मामले में भी सुदंरता आई है. पर उनका परफॉर्मेंस हिचकोले खाता रहता है. कहीं स्मूथ कहीं ऊबड़-खाबड़. जोगी के साथ काम करने वाले मनु का किरदार निभाया है रोहित चौधरी ने. उन्होंने ठीक काम किया है. उन्हें और काम मिलना चाहिए. संजय मिश्रा ने हमेशा की तरह मक्खन जैसा अभिनय किया है. वो कॉमेडी की विधा में पारंगत हो चुके हैं. उनसे पार पाना मुश्किल है. महाक्षय चक्रवर्ती ने भी अपने किरदार के अनुसार सधा हुआ अभिनय किया है. नवाज़ की मां बनी ज़रीना वहाब का काम भी अच्छा है. माने एक्टिंग सब की ही ठीक है. पर फ़िल्म सिनेमा के लिहाज से उतनी ठीक नहीं हैं. ये मेरा कहना है, आपको मेरी बात पर भरोसा नहीं, तो फ़िल्म देख लीजिए.


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