Film Review: ऋतिक रोशन 'मोहन जोदारो' का जिग्नेश मेवानी है!
आशुतोष गोवारिकर कृत यह फिल्म प्राचीन काल में स्थित है लेकिन 2016 का आइना है.
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फिल्म: मोहन जोदारो । निर्देशक: आशुतोष गोवारिकर । कलाकार: ऋतिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह, सुहासिनी मुलै, मनीष चौधरी, नितिश भारद्वाज, शरद केलकर, नरेंद्र झा, किशोरी शहाणे । अवधि: 2 घंटे 30 मिनट
आगे Spoilers/खुलासे हैं, अपने विवेक से ही पढ़ें.स्वदेस (2004) मोहन भार्गव नाम के भारतीय की कहानी थी जो अमेरिका की अंतरिक्ष विज्ञान संस्था नासा में प्रोजेक्ट मैनेजर हो गया है लेकिन देस और कावेरी अम्मा जैसे अपने लोगों के चेहरे उसे अपनी ओर खींचते हैं. वह उस ब्रेन ड्रेन का हिस्सा बनकर नहीं रह जाना चाहता जो भारत में बेहद सीमित लोगों को हासिल होने वाले उच्च संस्थानों की शिक्षा लेकर विदेश चले जाते हैं और मोटी-मोटी सैलरी लेकर जीवन सफल बनाते हैं. मोहन लौटकर अपने देस की मिट्टी में मिल जाना चाहता है. अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहता है. उनके अंधविश्वास दूर करना चाहता है, उनके जीवन में रोशनी लाना चाहता है. इसलिए वह आता है और गांव चरणपुर में वहीं के संसाधनों से बिजली बनाता है. उसी तरह लगान (2001) भुवन नाम के साहसी ग्रामीण युवक की अंग्रेजों के दोहरे लगान के खिलाफ खड़ी की गई लड़ाई थी. ये नाइंसाफी के खिलाफ खड़े होने के अलावा सम्मान की बात भी थी. जब किसी और धरातल पर ब्रिटिशर्स से लड़ पाना संभव नहीं था और बल्ले व गेंद के खेल को लेकर भी उन्हें ज़लील किया जा रहा था तो उसने ऐसा सहन करने से बग़ावत कर दी. यह वैसा ही विचार था कि इस धरती पर पैदा हुए और इस पर खेलने वाले हम सब बच्चे समान हैं, और खेल एक ऐसी चीज़ है कि ये नहीं देखती खेलने वाला गोरा है कि काला, सवर्ण है कि दलित, आदमी है कि औरत. यही भुवन की सोच थी. कि ये खेल तो सबके हैं, फिर इसमें कोई कैसे सत्ता हो सकता है? अब इन्हीं फिल्मों के निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की नई प्रस्तुति मोहन जोदारो सरमन की कहानी है जो प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के नगर मोहन जोदारो का काल्पनिक पात्र है. वह सत्ता परिवर्तन, न्याय और सुशासन के लिए लड़ता है. ये पात्र ऐसे समय में आया है जब जिग्नेश मेवानी जैसा असल पात्र इन दिनों इसी प्रकार के बदलाव की कोशिश का नेतृत्व कर रहा है. मुंबई की अभियान मैगजीन में रिपोर्टर की हैसियत से काम करने वाला यह युवक अभी दलितों के आंदोलन को दिशा दे रहा है. उसकी लड़ाई भी हाशिये पर रखे गए इन लोगों को ऐसी व्यवस्था की ओर ले जाना है जहां उन्हें गायों, बैलों, अन्य पशुओं की चमड़ी निकालने का 'नीचा' काम न करना पड़े और चौराहे पर नंगे बदन ताकतवरों की ज़लालत भरी मार न झेलनी पड़े. एक ऐसी व्यवस्था जहां उन्हें भूमि और अवसरों का समान वितरण मिले. मोहन जोदारो मूल रूप से इस कहानी में वो नगर है जहां लोग खुशी-खुशी रहते थे. सिंधु नदी का तलछट था उसी से सटकर गांव बसते गए. पानी था, प्रकृति थी, तो किसी और चीज़ की जरूरत न थी. लेकिन फिर वहां एक ऐसा पुरुष पहुंचता है जो अपने साथ लोभ, निर्दयता, बल, बदले की भावना लेकर आता है. उसका नाम है महन. कबीर बेदी द्वारा अभिनीत यह पात्र तत्कालीन हड़प्पा सभ्यता का वासी था लेकिन वहां उसके घपले सामने आए तो प्रशासकों ने धक्के मारकर बाहर निकाल दिया. अब वह मोहन जोदारो में आता है. यहां एक ईमानदार, दूरदर्शी और अच्छा प्रमुख (ऋतिक के पात्र सरमन का पिता) नियुक्त है.हम सेना और युद्ध को लेकर जब काव्यात्मक होने लगते हैं तो हमें महन की कहानी जाननी चाहिए. वह मोहन जोदारो के प्रशासकों को कहता है कि नदी जिस घाटी से होकर आती है उसके तल में सोन (सोना) निकलता है. वहां बांध बनाकर नदी का रुख मोड़ना चाहिए ताकि जब तल पर से जल हट जाएगा तो ज्यादा सोन निकाला जा सकेगा और उसे दूसरे नगरों को बेचकर ताकतवर बना जा सकेगा. अब यहां तत्कालीन प्रमुख की चिंता देखें. वह कहता है कि बांध गैर-जरूरी है, इससे नदी के किनारे बसे गांव के गांव प्यासे रह जाएंगे, बर्बाद हो जाएंगे. वे जिएंगे कैसे? लेकिन महन बाकी दरबार के लोगों को डर और लोभ दिखाकर अपने पक्ष में ज्यादा वोट कर लेता है. फिर वो उस प्रमुख को मरवा देता है. अब उसका असल इरादा देखें, उसने बांध बनाया जिससे नदी किनारे बसे गांव पानी न होने पर आकर मोहन जोदारो में ही बसने लगे. इससे उसका साम्राज्य और ताकत बढ़ गई. और सोन ज्यादा से ज्यादा निकालकर व बेचकर वो लोगों के लिए समृद्धि नहीं बल्कि सुमेर राज्य के व्यापारियों से हथियार खरीद रहा था. ताकि एक दिन हड़प्पा पर चढ़ाई कर सके. प्रतिशोध ले सके. उसे लोगों की सेवा कतई नहीं करनी थी. फिल्म के आखिर में जब महन अपने उतने ही बुरे बेटे मूंजा (अरुणोदय सिंह) को कहता है कि वो अपनी प्रिय चानी (पूजा हेगड़े) को मार दे और जब वो कहता है कि वह उससे प्रेम करता है तो महन समझाता है कि प्रेम व्रेम कुछ नहीं होता है. सत्ता जरूरी है. ताकि भोग भोग सको. एक बार सत्ता बनी रही तो जिस भी लड़की पर नजर डालोगे वो तुम्हारी होगी. इस महन के नगर में, पड़ोस के आमरी का रहने वाला नौजवान सरमन (ऋतिक रोशन) पहली बार व्यापार करने आता है और धीरे-धीरे उसकी बुरी सत्ता का अंत करता है. इस कहानी में कई सारे पहलू हैं लेकिन जो याद रहेगा वह ये कि जब सरमन के हाथ में लोगों का नेतृत्व आता है तो वो क्या करता है? उसके प्रशासन में पूर्व-शासक के मुकाबले क्या फर्क होता है? सबसे पहले तो सिंहासन ही तोड़ दिया जाता है. वो जनता के बीच खड़ा रहने वाला ही बना रहता है. वह कहता है अब मोहन जोदारो के लोग ही शासन करेंगे. उसके बाद जब एक विनाशकारी आपदा इस पूरी नगर सभ्यता को नष्ट करने को होती है तो अद्वितीय तत्परता से वह एक कुशल प्रशासक की तरह नेतृत्व करता है और लोगों की ऐसे जान बचा लेता है कि यकीन नहीं होता है. सरमन ही वो नायक बनता है जो गंगा नाम की एक नदी के किनारे फिर से ये सभ्यता स्थापित करता है. इस फिल्म में लगान जितने अनुपम संवाद और गीत नहीं हैं. इसमें स्वदेस वाली मनोरंजक सरलता, भीनी भीनी मिठास और सम्मोहक आकर्षण नहीं है. इसके पात्रों के अभिनय में वो अभिनव व्यावहारिकता और अमरता नहीं है जो उन दोनों फिल्मों में आमिर-शाहरुख व अनेक अन्य अभिनेताओं में थी. इसमें क्रिकेट, बिजली या नासा जैसे रोचक संदर्भ भी नहीं हैं जिनके कारण दर्शक बिना खास प्रयास के कहानी से आकृष्ट हो जाता है. ये कहानी ऐसी सिंधु घाटी सभ्यता की है जिसे कभी किसी ने नहीं देखा. जिसके लोगों की सही भाषा, सही कपड़े, रंग, कद-काठी, भाव कोई सही-सही नहीं जानता. ये एक बहुत बड़ी कठिनाई है जो निर्देशक आशुतोष के लिए दुष्कर चुनौती साबित हुई होगी. पर इसमें वो ठीक ठाक काम कर जाते हैं. कॉस्ट्यूम, मोहन जोदारो की बनावट, शिल्प, लोगों की बोली में प्रयोग (जैसे ये बहुत सही फैसला रहा कि फिल्म के पात्र जानवर को जिनावर, सपना को सपीना, राक्षस को राकस, कृपा को किरपा, चांदनी को चानी कहते हैं). चूंकि मोहन जोदारो का असली उच्चारण मुअनजो दड़ो यानी मौत का टीबा है और ये सिंधी भाषा से आया है तो हमें दिखाया जाता है कि फिल्म के शुरुआती सीन में एक बुजुर्ग कुछ देर इसी भाषा में बात करता है. रस्मी तौर पर यह करने के बाद सिर्फ हिंदी चलती है. लेकिन फिर भी फिल्म देखने लायक है. ए. आर. रहमान पूरे एल्बम के साथ प्रतिबद्ध नहीं रह पाते लेकिन फिल्म की पहचान वाली एक-दो धुनें बनाने में वे सफल रहते हैं जिन्हें बीस साल बाद भी सुनेंगे तो पहचान कर लेंगे कि कौन सी फिल्म की है.महन जिन विकारों से इस नगर की बर्बादी की नींव रखता है वो हमें आज 2016 में भी उन्हीं अविश्वसनीय समानताओं के साथ विद्यमान दिखते हैं. वे विकार हैं साम्राज्यवाद, हथियारों की दौड़, युद्ध की मानसिकता, लोभ, बांधों का निर्माण, प्रकृति से छेड़छाड़, जनता के सेवक से मालिक बन बैठना और असमानता में वृद्धि. इसके बेपनाह उदाहरण भारत से लेकर विश्व भर में मौजूद हैं.
लगान और स्वदेस के साथ जिस बात के लिए ये फिल्म समान मंच पर खड़ी होती है वो है इसका संदेश. उस लिहाज से फिल्म जितना अपने अंत के करीब बढ़ती है उतनी ही हमें अच्छी लगने लगती है. अंतिम दृश्य और एंड क्रेडिट्स तक हम इसकी तमाम कमजोरियां भूल चुके होते हैं. मन में कामना रह जाती है कि यदि मोहन जोदारो भाग-2 बनती है तो इससे बहुत अनुपम कहानी देखने को मिल सकती है.
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