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फिल्म रिव्यू: 8 डाउन तूफ़ान मेल

उस 'राजकुमारी' की कहानी जो दस साल तक दिल्ली स्टेशन के वेटिंग रूम में जमी रहीं.

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'8 डाउन तूफ़ान मेल' सीमित बजट में बनी एक कमाल फिल्म.
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शुभम्
9 फ़रवरी 2022 (Updated: 9 फ़रवरी 2022, 04:20 PM IST)
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पाठकगण कृपया ध्यान दें फ़िल्म '8 डाउन तूफ़ान मेल' को हमने देख लिया है. ये फ़िल्म इंडिक फ़िल्म उत्सव 2021 में बेस्ट फ़िल्म (ऑडियंस चॉइस) का अवॉर्ड, यूके फ़िल्म फेस्टिवल में यूथ क्युरेटिड चॉइस अवॉर्ड जीत चुकी है. इंडो-जर्मन फ़िल्म वीक में भी ऑफिशियली सिलेक्ट की गई थी. सिर्फ़ इतना ही नहीं IFFI (इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया) में भी ये फ़िल्म स्क्रीन हुई थी.
तो ग्लोबल लेवल पर ख्याति बटोर रही फिल्म में ऐसा क्या खास है? सब अच्छा है या कुछ बुरा भी है? आइए आपको बतलाते हैं.

#कहानी 8 डाउन तूफ़ान मेल की

सन 1974. जगह दिल्ली रेलवे स्टेशन. रेलवे कर्मचारी हड़ताल पर जाने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन यहां के स्टेशन मास्टर गुरप्रीत सिंह ईमानदारी से अपनी ड्यूटी बजा रहे हैं. इसी दौरान स्टेशन पर 25 से 28 साल की एक लड़की महंगी सी साड़ी पहने रेल से उतरती है. इनके पीछे तीन आदमी कुछ भारी लकड़ी के संदूको और एक बड़े से झूमर को लेकर रेलगाड़ी से उतरते हैं. ये सभी लोग दिल्ली स्टेशन के फर्स्ट क्लास वेटिंग रूम की तरफ़ कदम बढ़ाते हैं. वेटिंग रूम में दाखिल होते ही वहां रखे थ्री सीटर सोफ़े को एक तख्त की तरह सज़ा दिया जाता है. जिस पर वो लड़की बैठ जाती है. वेटिंग रूम में झूमर वगैरह टांग एक दरबार का माहौल बना दिया जाता है.
स्टेशन मास्टर गुरप्रीत जब उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं, तो लड़की के बगल में खड़ा लखनवी नवाबी सूट और टोपी पहना शख्स बताता है कि ये अवध के महाराजा वाजिद अली शाह की वंशज विलायत महल हैं. और वे तब तक यहां से नहीं जाएंगी, जब तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी मीटिंग फिक्स नहीं हो जाती. विलायत कहती हैं, उनकी सरकार से मांग है कि वो उनके अवध के महल वापस कर दें.
गुरप्रीत की उन्हें वहां से जाने के लिए बोली गई हर बात सिर्फ़ कमरे में ही गूंज कर रह जाती है. कुछ वक्त बाद रेलवे हड़ताल कवर करने आए प्रेस रिपोर्टर की नज़र में भी ये मामला आ जाता है. जहां से ये मैटर नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया से होता हुआ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंच जाता है.
क्या प्रधानमंत्री इंदिरा आगे इनसे मिलती हैं ? इस सवाल का जवाब आपको फ़िल्म देखने पर मिलेगा.

#इस असल घटना से प्रेरित है फ़िल्म

फ़िल्म की कहानी सत्य घटना से प्रेरित है. 1970 में विलायत नाम की एक महिला अपने बेटे, कुछ नौकरों और कुछ पालतू जीवों के साथ दिल्ली के वेटिंग रूम में आकर जम गई थीं. जहां वो दस साल से ऊपर रहीं. विलायत को उनके नौकर 'हर हाइनेस' कहकर बुलाते थे. और दूसरों से भी उन्हें ऐसे ही पुकारने को कहते थे. विलायत खुद को वाजिद अली शाह की वंशज बताती थीं. और इंदिरा सरकार से अपने अवध के महल वापस करने की मांग कर रहीं थीं. दस साल से ज़्यादा समय तक विलायत वेटिंग रूम में ही रहीं. 1984 में इंदिरा गांधी ने विलायत की मांग मान ली. और दिल्ली का मालचा महल उन्हें सौंप दिया.

#ए क्लास राइटिंग और डायरेक्शन

'8 डाउन तूफ़ान मेल' को लिखा है आकृति सिंह और शौर्य अग्रवाल ने. फ़िल्म की राइटिंग बहुत ही बेहतरीन और वेल रिसर्च्ड  है. फ़िल्म का मुख्य प्लॉट विलायत के वेटिंग रूम में जमने से उस वक़्त की राजनीति पर क्या असर पड़ा था, उसका जीवन वहां कैसे गुज़र रहा था, इस बात पर फोकस रखता है. इमरजेंसी के दौरान की मुश्किलें, पार्टीशन में बेघर होकर ज़िंदगी ज़ीरो से शुरू करने पर मजबूर हुए लोगों की तकलीफें, जैसे कई पहलुओं को बहुत ही संजीदगी से फ़िल्म में समेटा गया है. जो कहीं भी फोर्स्ड या 'इन योर फेस' नहीं लगता.
फ़िल्म में जेपी आंदोलन, इमरजेंसी के दौरान अरेस्ट हुए रेलवे यूनियन लीडर जॉर्ज फ़र्नान्डिस मामले समेत कई राजनीतिक ईस्टर एग्स डाले गए हैं. महीन संवाद इस फ़िल्म को और बेहतर बनाते हैं. जैसे फ़िल्म में एक सीन है. जहां इंदिरा गांधी ऑफिस में मीटिंग कर रही होती हैं और पीछे से आवाज़ आती है
'नहीं राहुल.. दादी अभी मीटिंग में हैं.'
ये एक छोटा सा टच ही कहानी को और वास्तविक बना देता है. ऐसा ही एक सीन और है, जहां विलायत महल फ़ोन पर इंदिरा गांधी से बात करते हुए कहती हैं,
'अवध के महल हमारी विरासत हैं, हम ख्याल नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा. ये बात तो आप समझ सकती हैं. आप भी तो नेहरू की विरासत चला रही हैं.'
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राइटर- डायरेक्टर- एक्टर आकृति सिंह.

#अभिनय भी ऑन मार्क है

फ़िल्म में राजकुमारी विलायत महल का किरदार आकृति सिंह ने ही निभाया है. बतौर एक्टर भी आकृति अव्वल नंबरों से पास होती हैं. अपने अभिनय से वो दर्शकों को अंत तक कंफ्यूज़ कर के रखने में कामयाब होती हैं कि वो वाक़ई एक राजकुमारी हैं या कोई ठग. फ़िल्म में गुरप्रीत सिंह का रोल तेलुगु एक्टर सूर्या राव ने किया है. सूर्या भी पूरे तरीके से तारीफों के हकदार हैं. जैसे-जैसे गुरप्रीत का करैक्टर ग्रो होता है, आप सूर्या के एक्टिंग स्किल्स को भी बढ़ता हुआ देखते हैं.

#टॉप क्लास डायरेक्शन

राइटर आकृति और एक्टर आकृति की बात हमने ऊपर की. लेकिन डायरेक्टर आकृति की बात अलग से करना बेहद ज़रूरी है.
'8 डाउन तूफ़ान मेल' एक पीरियड ड्रामा है. फिल्ममेकिंग में पीरियड ड्रामा क्रिएट करना कुछ सबसे मुश्किल कामों में से एक है. गुज़रे वक़्त को पर्दे पर उतारने के लिए बहुत ही हाई प्रोडक्शन वैल्यू और डीटेलिंग की ज़रूरत होती है.
ये फ़िल्म एक लो बजट फ़िल्म है. जाहिर है 70 के दशक की बारीकियां दर्शाने के लिए यहां महंगे सेट्स का बजट फिल्ममेकर के पास नहीं था. बावजूद टाइट बजट के आकृति सिंह ने सही शूटिंग स्पॉट्स का चुनाव कर फ़िल्म को कहीं भी फ़ीका नहीं पड़ने दिया. फ़िल्म में दिल्ली स्टेशन दिखाए जा रहे हिस्से की शूटिंग उन्होंने किसी छोटे स्टेशन पर की है. 70 का दशक उन्होंने पुराने रेडियो, उस वक़्त आने वाले 'हवामहल' जैसे रेडियो प्रोग्राम्स, बड़े 2 रुपये के नोटों और बेलबॉटम पैंट्स के साथ दर्शाया है.
फ़िल्म में इंदिरा गांधी का किरदार भी है. जिनके चेहरे से दुनिया भली-भांति परिचित है. लिहाज़ा आकृति ने इंदिरा के करैक्टर को बिना चेहरा दिखाए उनके चश्मे, फेमस हेयर स्टाइल औऱ वॉइस के ज़रिए बहुत कन्विनसिंगली उतारा है. जो किसी भी क्षण खटकता नहीं है.
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सूर्या राव ने भी किया है बढ़िया काम.

#एडिटिंग थोड़ी कमज़ोर

तारीफ़ के हक़दार फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफर शौर्य अग्रवाल भी हैं. जिन्होंने लिमिटिड स्पेस में अलग-अलग कैमरा एंगल, लाइट सैचुरेशन की मदद से फ़िल्म को पर्दे पर डल नहीं होने दिया.
फ़िल्म में कई जगहों पर वाजिब अली शाह और ग़ालिब की शायरियां भी सुनाई पड़ती हैं. जो अच्छी लगती हैं संवाद के रूप में. लेकिन जब ये कविताएं बतौर बैकग्राउंड म्यूजिक फ़िल्म में आती हैं, तो चुभन महसूस होती है. खासतौर से जिस तेज़ आवाज़ में वो आती हैं. यहां गलती एडिटर की मानी जाएगी. जिसने बैकग्राउंड स्कोर का वॉल्यूम कम नहीं किया.

#देखें या नहीं

'8 डाउन तूफ़ान मेल' एक बहुत ही अच्छी फिल्म है. इस फ़िल्म को आप कॉमेडी, ड्रामा, सटायर यहां तक कि हाइस्ट मूवी की कैटेगरी में भी डाल सकते हैं. देश के पॉलिटिकल सिनेरियो, हिंदू-मुस्लिम कनफ्लिक्ट, ऑफ्टर पार्टीशन इफेक्ट्स पर बात करते हुए भी फ़िल्म कहीं भी प्रीची नहीं होती, या मेन प्लॉट से नहीं भटकती.
'8 डाउन तूफ़ान मेल' सभी को देखनी चाहिए. ख़ासतौर से उन फिल्ममेकर्स को जो कम बजट का हवाला देकर अपनी फ़िल्म की कमियों को ढंकने की कोशिश करते हैं. एक कम बजट में भी कैसे एक मनोरंजक फ़िल्म बनाई जा सकती है, इसका स्पष्ट नमूना '8 डाउन तूफ़ान मेल' है.
ज़रूर देखें और थोड़ा जल्दी करें क्योंकि फ़िल्म अभी सिर्फ़ दिल्ली, मुंबई के PVR चेन्स में ही उपलब्ध है. बाकी छोटे शहर वाले निराश ना हों जल्द ही '8 डाउन तूफ़ान मेल' आपके स्ट्रीमिंग डिवाइस पर भी आ जाएगी.

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