दिल्ली फतेह के लिए यूपी जरूरी और उससे भी जरूरी अवध, इस बार कौन है आगे?
राजनीतिक रूप से अवध का बहुत महत्व है. इस बात का अंदाज़ा बस इतने से लगाया जा सकता है कि देश के पांच प्रधानमंत्री इसी इलाक़े से चुनकर संसद गए हैं. पीछे के चार चुनाव देखें, तो जिस पार्टी ने इस इलाक़े में सीटें निकालीं, अंततः उसी ने सरकार बनाई.
अप्रैल-मई में आम चुनाव होने हैं (Lok Sabha Elections 2024). आम चुनाव माने ख़ास गणित, ख़ास मुद्दे, ख़ास समीकरण. कुछ स्वाभाविक, कुछ पकाए हुए. मसलन, उत्तर प्रदेश. चुनावी लिहाज़ से सबसे ज़रूरी राज्य. 80 सीटें. दिल्ली में सरकार किसकी, ये उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के गणित से तय होता है. आज भी. मगर उत्तर प्रदेश के सभी उत्तर एक नहीं हैं. कुछ पूरब, कुछ पश्चिम, कुछ केंद्र भी हैं. इसीलिए आज केंद्रीय उत्तर प्रदेश - यानी अवध (Awadh) - का चुनावी गणित समझेंगे.
संस्कृति, साझा इतिहास और भाषा के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश में कई छोट-छोटे क्षेत्र हैं. कुछ-एक बार इसके नक्शे भी सुझाए गए. कोई सर्वमान्य दावा नहीं है. कुछ भी स्थापित नहीं. मगर दी लल्लनटॉप ने पाठकों की सुविधा और तफ़्सील समीक्षा के लिए उत्तर प्रदेश को चार क्षेत्रों में बांटा है: पूर्वांचल, पश्चिमी यूपी, अवध और बुंदेलखंड. इन चारों के अलावा भी ब्रज, रुहेलखंड और तराई का इलाक़ा है. मगर इन्हें भी इन्हीं चार हिस्सों में क्लब कर दिया गया है.
अवध में ज़िले कौन-कौन से हैं?लखनऊ मंडल - लखनऊ, लखीमपुर खीरी, हरदोई, कन्नौज, रायबरेली, सीतापुर.
कानपुर मंडल - कानपुर देहात, कानपुर नगर, औरैया.
अयोध्या मंडल - अयोध्या, सुल्तानपुर, अमेठी.
प्रयागराज मंडल - प्रयागराज, कौशांबी, फ़तेहपुर, प्रतापगढ़.
देवीपाटन मंडल - बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, गोंडा.
*कुछ-कुछ दावों में प्रयागराज मंडल को बुंदेलखंड में गिना जाता है, कहीं पूर्वांचल में. मगर सांस्कृतिक समानताओं में प्रयागराज अवध के ज़्यादा क़रीब है.
अवध, सिंधु-गंगा मैदान में घनी आबादी (~4 करोड़) वाला क्षेत्र है. उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी वाला क्षेत्र. हिंदू, बौद्ध और जैन ग्रंथों में जिस इलाक़े को कोसल महाजनपद के तौर पर चिह्नित किया गया है, वही बढ़-घट कर अवध बना. 12वीं सदी में इस्लामिक आक्रांताओं ने अवध को अपने अधीन कर लिया. फिर मुग़ल साम्राज्य बना, तो उन्होंने भी अवध प्रांत पर शासन किया. मुग़लों के पतन के साथ 1720 से 1856 तक अवध को ग्यारह नवाबों ने चलाया. मुग़ल हुकूमत और नवाबों की संस्कृति का असर क्षेत्र पर पड़ा जो साहित्यिक, कलात्मक, धार्मिक और स्थापत्य संरक्षण का एक प्रमुख केंद्र बना.
ब्रिटिश आए, तो उनकी नज़र भी इस इलाक़े पर पड़ी. 1800 के बाद से ही उन्होंने वहां अपना नियंत्रण बढ़ाना शुरू कर दिया. साल 1856 में अंग्रेज़ों ने इसे अपने क़ब्ज़े में ले लिया. इस क़दम से उत्तर भारतीय बहुत खीजे और इसे 1857 की क्रांति का एक प्रमुख कारण बताया गया. 1877 में अंग्रेज़ों ने अवध क्षेत्र को आगरा के साथ मिलाकर यूनाइटेड प्रॉविंस ऑफ़ आगरा ऐंड अवध बना दिया. देश आज़ाद हुआ और अवध बस उत्तर प्रदेश का एक क्षेत्र भर रह गया, गाहे-बगाहे अवधी भाषा का ज़िक्र होता रहा. आज भी प्रयागराज, लखनऊ की बोली में अवधी की खनक सुनाई पड़ती है.
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प्रयागराज को अवध से अलग गिने जाने का एक कारण भाषा है. पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर और अवधी पर काम किए हुए अम्रेंद्र बताते हैं कि अवधी भाषा उतनी फल-फूल नहीं पाई. जबकि तुलसीदास की कलम से अवधी में राम लोगों की कल्पना में रच-बस गए. नायक बन गए. मगर अवधी वैसी नहीं बस पाई. न फैली. उल्टा सिमट गई. जो क्षेत्र अवधी बोलते थे, आज नहीं बोलते. मिसाल के लिए सुल्तानपुर में आज भोजपुरी ज़्यादा बोली जाती है, जो भूगोल की नज़र से भोजपुरी-भाषी इलाक़ों से सटा हुआ नहीं है. और, अवधी की साख धुंधलाई किसी राजनीतिक पार्टी या मूवमेंट के साथ न होने की वजह से. राजनीति में तूल नहीं मिला, तो भाषा और संस्कृति कहीं धुल गई.
हालांकि, वर्तमान ने जितना सितम किया, इतिहास ने उतना नहीं किया. सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से इस क्षेत्र का आज भी बहुत महत्व है. इस बात का अंदाज़ा बस इतने से लगाया जा सकता है कि देश के पांच प्रधानमंत्री इसी इलाक़े से चुनकर संसद गए - जवाहरलाल नेहरू (फूलपुर), लाल बहादुर शास्त्री (प्रयागराज), इंदिरा गांधी (रायबरेली), वीपी सिंह (फ़तेहपुर, फूलपुर) और अटल बिहारी वाजपेयी (लखनऊ).
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अवध जिसने साधा, उसी ने सरकार बनाईपीछे के चार चुनाव देखें, तो जिस पार्टी ने इस इलाक़े में सीटें निकालीं, अंततः उसी ने सरकार बनाई. जब 2007 विधानसभा चुनाव में बसपा को 403 में से 206 सीटें मिली थीं और मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं, तब अवध में उन्हें अच्छी बढ़त मिली थी. 2009 के आम चुनाव तक सपा ने अपनी पैंठ मज़बूत करनी शुरू कर दी थी. इसका असर आम चुनाव पर भी पड़ा. 2009 के आम चुनाव में सपा 23 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. राज्य में सरकार होने के बावजूद बसपा तीसरे नंबर पर रही. तब भाजपा 10 सीटों पर ही सिमट गई थी. फिर 2012 के विधानसभा चुनाव तक समाजवादी पार्टी अपनी जगह बना चुकी थी. नतीजा उन्हें राज्य में मिला. 403 में से 224 सीटें जीतकर अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों पर बसपा की धाक जमी, लेकिन अवध और पूर्वांचल सपा ने मोटे तौर पर अपने हिस्से कर लिए थे.
साल 2014. नरेंद्र मोदी की लहर में लड़ा हुआ चुनाव. भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में निर्णायक जीत दर्ज की. 78 सीटें लड़ीं और 71 जीत गई. अमेठी और रायबरेली छोड़ कर पूरे अवध ने नरेंद्र मोदी को वोट दिया.
2017 में नरेंद्र मोदी की लहर प्रचंड हो चुकी थी. नोटबंदी के कुछ ही समय बाद लड़े इस चुनाव में भाजपा को 312 सीटों का ज़बरदस्त बहुमत मिला. इस बार पश्चिम और अवध उनके साथ थे.
2019 में भी यही पैटर्न दिखा. इस बार तो कांग्रेस के हाथ से उनका पुराना गढ़ अमेठी भी चला गया. रायबरेली के अलावा अवध की एक सीट नहीं थी, जिस पर भाजपा ने जीत न दर्ज की हो.
जाति कार्ड कितना कारगर?अवध या केंद्रीय उत्तर प्रदेश में जातियों का बंटवारा मिला-जुला है. बहुत हद तक पूरे सूबे जैसा ही है. (दलित: ~22%, यादव: 16-18%, ब्राह्मण: 13-14%, मुस्लिम: ~7%) चुनावी लिहाज़ से किसी एक जाति का प्रभुत्व समझ नहीं आता. हालांकि, यादवों समेत अन्य ओबीसी जातियों - ख़ासकर कुर्मी और लोदी - की इस बेल्ट में अच्छी संख्या है. बाराबंकी, सीतापुर, हरदोई जैसी सीटों पर बहुत मज़बूत नहीं, मगर संगठित वोट बैंक मालूम पड़ता है. कुछ ज़िलों में कुछ ख़ास जाति-समुदाय की संख्या ज़्यादा है. जैसे, बहराइच, लखनऊ, लखीमपुर खीरी में मुस्लिम आबादी ठीक-ठाक है. लखीमपुर में सिख भी मिलते हैं. दलितों और सवर्ण जातियों का अनुपात कमोबेश प्रदेश जितना ही है.
बीबीसी के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार समीरात्मज मिश्र ने दी लल्लनटॉप को बताया कि पहले के मुक़ाबले अब सवर्णों का वोट ज़्यादा संगठित है और भाजपा के साथ गया है. बीच में कुछ डिफ़्लेक्शन बसपा में दिखा, क्योंकि बसपा ने सवर्णों को अपने साथ लिया. बाक़ी जो पैटर्न पूरे सूबे में रहा, लगभग यहां भी दिखेगा. मसलन, कुर्मी जाति के लोगों का वोट सपा के पाले भी था, और बसपा के भी. मगर 2014 के बाद यादवों के अलावा जो कुर्मी थे, उनका एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पाले चला गया है.
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हालांकि, इस इलाक़े में कुर्मियों का एक ठीक-ठाक वोट प्रतिशत सपा के पास अभी भी है. सपा के बड़े नेता रहे, बेनी प्रसाद वर्मा. उनका अपने क्षेत्र में प्रभाव रहा. पूरे उत्तर प्रदेश की तरह ही जाटव और ग़ैर-जाटव दलितों का वोट बसपा के हिस्से ही आया.
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी जीत मिली थी. तब राजनीतिक विशेषज्ञों ने उत्तर प्रदेश की डायनैमिक्स पर भतेरे ऑप-एड्स लिखे थे. लिखा गया -
- 90 के दशक का मंदिर आंदोलन अब कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं रह गया है. इसके बजाय रोज़गार, कृषि संकट, नदी प्रदूषण और सबसे बढ़कर, उम्मीदवार की जाति प्रमुख चुनावी मुद्दे होंगे.
- इस चुनाव में साफ़ तौर पर कोई लहर नहीं है. जाति सबसे प्रमुख कारक है. उज्ज्वला योजना, नोटबंदी, GST जैसे विकास के मुद्दे और पुलवामा जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले केवल एक फ़ैक्टर है, जिसे वोटिंग प्रेफ़्रेंस को सही ठहराने के लिए कहा-बोला जा रहा है.
बावजूद इसके 20 में से 18 सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों ने बहुमत पाया. जमाल किदवई ने द वायर के लिए लिखे अपने एनालिसिस में लिखा कि इस इलाक़े में बड़ी संख्या में कोरी, पासी, नाई, वाल्मिकी, निशाद और हेलस - जो पहले सपा और बसपा के मुख्य वोटर थे - उन्होंने बीजेपी को चुना. उनके लिए सपा और बसपा का शासन केवल यादवों और जाटवों को ही फ़ायदा पहुंचा रहा था. उन्होंने ‘मज़बूत और निर्णायक’ नेता का समर्थन किया, क्योंकि उनकी नज़र में वही पहले प्रधानमंत्री हैं जो 'भारत को विश्व मंच पर लाए' और 'पाकिस्तान को उसकी जगह दिखा दी'.
'अवध की जंग' में कौन आगे?2024 में भाजपा इस क्षेत्र में मज़बूत है – पुराने पत्रकारों ने ऐसा बताया. उनका कहना है कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने से अयोध्या और आस-पास के इलाक़ों में भाजपा के लिए विश्वास बढ़ा है. धार्मिक और भावनात्मक पहलू एक तरफ़, शहर के विकास और निवेश को लेकर भी लोग आश्वस्त हुए हैं.
हालांकि, इसमें एक और संभावना है. समीरात्मज मिश्र का कहना है कि मंदिर मुद्दे पर जो वोटर 2024 में नरेंद्र मोदी सरकार को वोट करेगा, वो तो 2014 से कर रहा था. मगर सूबे में राज्य सरकार को लेकर एक सत्ता-विरोधी ‘झोंका’ (लहर नहीं) है. पेपर लीक और बेरोज़गारी के मसले पर छात्र योगी सरकार से बहुत ख़ुश नहीं हैं. और, इंडिया गठबंधन - कांग्रेस और सपा - इसका फ़ायदा ले सकते हैं.
सपा और बसपा कितनी मिट्टी में?दी लल्लनटॉप ने उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सिंह से बात की. उन्होंने बताया कि तराई से लेकर अवध तक, सपा के पास जनाधार तो है. प्रधानी और नगर स्तर पर वो बेहतर भी कर रहे हैं. मगर मसला ये है कि वो अपने पुराने फ़ॉर्मूले - यादव और मुस्लिम - के साथ किसी और वोट बैंक को क्लब नहीं कर पा रहे हैं. ख़ासतौर पर अवध में उनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि अवध में जो कुर्मी वोट हैं, जो लोदी वोट हैं, जो अति-पिछड़ो के वोट हैं, उनको सपा जोड़ नहीं पा रही है. स्वामी प्रसाद मौर्या को सपा में शामिल करना इन्हीं वोटों को जोड़ने की दिशा में की गई जुगत थी. लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज जैसे नेताओं को अपने साथ लाने का मक़सद भी यही माना जा रहा है. हालांकि, अभी तक ये प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा है.
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वहीं, बसपा का पारंपरिक वोटर अपनी पार्टी से संतुष्ट नहीं है. बकौल राजकुमार सिंह, बसपा का वोटर अपनी पार्टी को लड़ता हुआ नहीं देख रहा. पार्टी में संगठनात्मक बदलाव ज़रूर हुए हैं. पार्टी सुप्रीमो मायावती ने आगे की दिशा खींची ज़रूर है, मगर पार्टी फ़ाइट में नहीं नज़र आ रही है. वहां कुछ ऐसे ज़िले हैं, जिसे बसपा का गढ़ कहा जा सकता है. मगर गढ़ की कितनी गढ़बंदी हो रही, ये कहना मुश्किल है.