लेटरल एंट्री से भर्ती में आरक्षण नहीं, पूरा विवाद क्या है? समर्थन और विरोध की पूरी कहानी समझिए
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि सरकार लेटरल एंट्री के जरिये एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण को छीन रही है. लेकिन सरकार के मंत्री तर्क दे रहे हैं कि लेटरल एंट्री के लिए कांग्रेस ने ही आयोग का गठन किया था.
17 अगस्त को UPSC ने सीनियर अफसरों की नियुक्ति के लिए नोटिफिकेशन जारी किया था. इसमें कुल पदों की संख्या 45 है. ये पद लेटरल एंट्री (Lateral Entry) से भरे जाएंगे. यानी ये UPSC की ज़्यादातर भर्ती परीक्षाओं की तरह एंट्री लेवल पर न होकर सीधे उच्च पदों में भर्ती के लिए हैं. 45 पदों में 10 संयुक्त सचिव और 35 निदेशक और उप-सचिव के पद हैं. इनकी नियुक्तियां केंद्र सरकार के 24 मंत्रालयों में की जाएंगी. लेटरल एंट्री के इन पदों का नोटिफिकेशन आते ही विवाद छिड़ गया. विपक्षी पार्टियां सरकार पर आरोप लगा रही हैं कि सरकार लेटरल एंट्री के ज़रिए आरक्षण को दरकिनार कर रही है. सरकार पर क्या आरोप लग रहे हैं, ये बाद में जानेंगे. पहले ‘लेटरल एंट्री’ के बारे में जान लेते हैं.
देश चलाने में विधायकों, सांसदों, मंत्रियों के साथ अफसरों की भूमिका भी काफी अहम होती है. यही अफसर कई प्रशासनिक फैसले लेते हैं. माने रोजमर्रा के काम-धाम यही अफसर करते हैं. राज्यों में अफसरों के चुनाव के लिए हर राज्य में राज्य लोक सेवा आयोग (State Public Service Commission) और केंद्र में संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) होता है. ये आयोग अफसरों की सीधी भर्ती आयोजित कराते हैं.
तीन स्टेज की परीक्षा पास करनी होती हैराज्य और केंद्र के अधिकारियों को चुनने के लिए सरकार जो परीक्षाएं आयोजित करवाती है, उसमें तीन चरण होते हैं. UPSC के जरिए अफसर बनने के लिए प्री, मेन्स और उसके बाद इंटरव्यू देना पड़ता है. जो तीनों परीक्षाएं पास करता है, वही अफसर बन सकता है. जिन अभ्यर्थियों का नाम परीक्षा पास करने के बाद मेरिट लिस्ट में आता है, उन्हें उनकी रैंक के हिसाब से कैडर अलॉट होते हैं. इन कैडर में फिर उनकी ट्रेनिंग होती है और ट्रेनिंग पूरी होने पर किसी भी सेलेक्टेड कैंडिडेट को प्रोबेशन पूरा कर ऑफिसर का पद मिलता है. तब जाकर वो IAS, IPS, IFS, IRS जैसे अलग-अलग ऑफिसर बनकर आते हैं.
लेकिन साल 2018 में मोदी सरकार ने एक बड़ा बदलाव किया. सरकार ने UPSC से होने वाली भर्ती के अलावा भी अधिकारियों को चुनने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाई. इसी को नाम दिया गया ‘लेटरल एंट्री’.
लेटरल एंट्री के तहत प्राइवेट कंपनी में काम करने वाला 40 साल का कोई भी योग्य शख्स केंद्र सरकार में बड़े अधिकारी के तौर पर काम कर सकता है. इसके लिए जरूरी है कि उसके पास काम करने का कम से कम 15 साल का अनुभव हो. इसके लिए कैबिनेट सेक्रेटरी की अगुवाई वाली कमेटी के सामने इंटरव्यू देना होता है. जो इस इंटरव्यू को पास करता है, वो सीधे तौर पर जॉइंट सेक्रेटरी के पद पर तैनात कर दिया जाता है. ये तैनाती तीन साल के लिए होती है. इसे 2 साल एक्सटेंड भी किया जा सकता है.
लेकिन लेटरल एंट्री के कॉन्सेप्ट की शुरुआत इससे भी पहले हो चुकी थी. इसके बारे में भी जान लेते हैं.
प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) करता है सिफारिशेंदेश में प्रशासनिक सुधारों के लिए एक ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ है. 5 जनवरी 1966 को इसका गठन हुआ था. मोरारजी देसाई इसके अध्यक्ष बने थे. लेकिन मार्च 1967 में मोरारजी देसाई देश के उप-प्रधानमंत्री बन गए, तो कांग्रेस के नेता के. हनुमंथैया को इसका अध्यक्ष बनाया गया. आयोग का काम ये देखना था कि देश में सरकारी अफसरशाही को किस तरह से और बेहतर बनाया जा सकता है. ये वो वक्त था, जब देश अकाल से उबरने की कोशिश कर रहा था. और चीन से हुए युद्ध में मिले घाव पूरी तरह से भर नहीं पाए थे.
इस आयोग ने अलग-अलग विभागों के लिए 20 रिपोर्ट्स तैयार की थीं, जिनमें 537 बड़े सुझाव थे. इन सुझावों पर अमल करने की रिपोर्ट नवंबर 1977 में संसद के पटल पर रखी गई थी. तब से लेकर 2005 तक देश की अफसरशाही उन्हीं सिफारिशों के आधार पर चलती रही.
कांग्रेस ने 2005 में दूसरा सुधार आयोग बनायातारीख - 5 अगस्त 2005. यूपीए सरकार में मंत्री रहे वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया. आयोग में केरल के मुख्य सचिव रहे और कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों में बतौर सलाहकार काम कर चुके वी. रामचंद्रन को भी सदस्य बनाया गया था. इसके अलावा पूर्व IAS जय प्रकाश नारायण, डॉ एपी मुखर्जी, डॉक्टर ए.एच. कालरो को भी सदस्य बनाया गया. प्रशासनिक सेवा की वरिष्ठ अधिकारी और भारत सरकार की वित्त सचिव रहीं विनीता राय को इस आयोग का सदस्य सचिव बनाया गया था.
आयोग को देश के लिए एक सक्रिय, जवाबदेह और अच्छा प्रशासन चलाने के दौरान आ रही खूबियों और खामियों की समीक्षा करने और उसका समाधान खोजने की जिम्मेदारी दी गई.
इस आयोग ने 2005 में ही भारतीय अफसरशाही में भारी फेरबदल की गुंजाइश की बात कही थी. आयोग ने सुझाव दिया था कि जॉइंट सेक्रेटरी के स्तर पर होने वाली भर्तियों को विशेषज्ञों से भरा जाए. इन विशेषज्ञों को बिना परीक्षा पास किए सिर्फ इंटरव्यू के जरिए जॉइंट सेक्रेटरी बनाया जा सकता है. इसके लिए प्रशासनिक आयोग ने तय किया था कि अधिकारी की उम्र कम से कम 40 साल होनी चाहिए और उसे काम करते हुए कम से कम 15 साल का अनुभव होना चाहिए.
इसके अलावा, आयोग ने सिफारिश की थी कि जितने भी प्रशासनिक अफसरों की नियुक्ति होती है, उन्हें कम से कम तीन साल के लिए किसी निजी कंपनी में काम करने के लिए भेजा जाना चाहिए. ताकि वो निजी कंपनी में काम करने के तौर-तरीके सीखें और फिर उसे भारतीय अफसरशाही में भी लागू करें. यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को सिरे से खारिज कर दिया था.
1 सितंबर 2007 को जयप्रकाश नारायण ने आयोग से इस्तीफा दे दिया. 1 अप्रैल 2009 को वीरप्पा मोइली ने भी आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. इन दोनों के इस्तीफे के बाद वी. रामचंद्रन को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. आयोग ने 2010 में एक बार फिर से प्रशासनिक सुधारों के लिए कुछ सुझाव दिए. इनमें प्रशासनिक सेवा के लिए ली जाने वाली परीक्षा की उम्र और परीक्षा के तरीकों के बारे में भी सुझाव दिए गए थे. इसके अलावा, आयोग ने 2005 में दिए गए अपने सुझावों को एक बार फिर से सरकार के सामने रखा. मनमोहन सरकार ने एक बार फिर से इन सिफारिशों को सिरे से खारिज कर दिया. 2014 में केंद्र की सरकार बनने के बाद इस आयोग की सिफारिशों पर अमल होना शुरू हुआ.
सबसे पहले आयोग ने कहा था कि सिविल सेवा में सामान्य वर्ग के लिए उम्र सीमा 21 से 25, ओबीसी के लिए 21 से 28 और एससी-एसटी के लिए 21 से 29 साल होनी चाहिए. लेकिन सरकार ने कहा कि सामान्य के लिए उम्र 26 साल, ओबीसी के लिए 28 साल और एससी-एसटी के लिए 29 साल अधिकतम उम्र होगी.
इसके साथ ही प्रशासनिक सुधार आयोग की बिना परीक्षा के भर्तियों की सिफारिश को लागू करवाने के लिए एक समिति बना दी. ये फैसला 2015 में हुआ था. इस प्रशासनिक सुधार आयोग ने और भी 15 रिपोर्ट्स दी हैं, जिनमें से कुछ पर अमल हुआ है और कुछ को सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया है.
ये समिति दो साल तक इस बात की तलाश करती रही कि क्या निजी क्षेत्र के लोगों को जॉइंट सेक्रेटरी जैसे पद पर नियुक्त किया जा सकता है. इसको लेकर सबसे ज्यादा खींचतान आईएएस अधिकारियों के बीच में ही थी. लेकिन आखिरकार 10 जून 2018 को केंद्र सरकार की ओर से इस सिफारिश को मंजूर कर लिया गया और भर्ती के लिए पहला विज्ञापन जारी कर दिया गया. इसके तहत 10 पदों पर भर्ती की गई थी.
बिना UPSC परीक्षा पास किए मिली तैनातीभारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 1971 में भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया था. मनमोहन सिंह ने सिविल सेवा की परीक्षा नहीं दी थी, फिर भी वो इस पद पर पहुंच गए थे. 1972 में मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार भी बनाया गया था और ये पद भी ज़ॉइंट सेक्रेटरी स्तर का ही होता है.
इसी तरह से मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री रघुराम राजन को अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया था. रघुराम राजन भी संघ लोक सेवा आयोग से चुनकर नहीं आए थे, पर वो जॉइंट सेक्रेटरी के स्तर तक पहुंचे. नंदन नीलेकणी के साथ भी यही हुआ था. उन्हें भी UIDAI का चेयरमैन बनाया गया था.
ये तो बात हो गई लेटरल एंट्री की. लेकिन अब UPSC के नोटिफिकेशन पर विपक्षी नेता कई तरह के आरोप लगा रहे हैं.
विपक्ष के आरोपलोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि सरकार लेटरल एंट्री के जरिये एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण को छीन रही है. 18 अगस्त को उन्होंने X पर लिखा,
“नरेंद्र मोदी संघ लोक सेवा आयोग की जगह ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के जरिए लोक सेवकों की भर्ती कर संविधान पर हमला कर रहे हैं. केंद्र सरकार के मंत्रालयों में अहम पदों पर लेटरल एंट्री के ज़रिए भर्ती कर खुलेआम SC, ST और OBC वर्ग का आरक्षण छीना जा रहा है. मैंने हमेशा कहा है कि टॉप ब्यूरोक्रेसी समेत देश के सभी शीर्ष पदों पर वंचितों का प्रतिनिधित्व नहीं है, उसे सुधारने के बजाय लेटरल एंट्री कर के उन्हें शीर्ष पदों से और दूर किया जा रहा है. यह UPSC की तैयारी कर रहे प्रतिभाशाली युवाओं के हक पर डाका और वंचितों के आरक्षण समेत सामाजिक न्याय की परिकल्पना पर चोट है.”
कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी इसी तरह की बातें कहीं. लेटरल एंट्री को खरगे ने भाजपा की सोची समझी साजिश बताया, जिससे SC, ST, OBC वर्गों को आरक्षण से दूर रखा जा सके. खरगे ने कहा,
“अब हमें पता चला कि भाजपा के सहयोगी दल की केंद्रीय मंत्री (अनुप्रिया पटेल) ने नौकरियों में आरक्षण पर हो रही धांधली पर सरकार का ध्यान क्यों आकर्षित कराया था”.
उत्तर प्रदेश के कन्नौज से लोकसभा सांसद और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लेटरल एंट्री को ‘पिछले दरवाज़े’ की एंट्री बताया. उन्होंने लिखा,
“भाजपा अपनी विचारधारा के संगी-साथियों को पिछले दरवाजे से यूपीएससी के उच्च सरकारी पदों पर बैठाने की जो साजिश कर रही है, उसके खिलाफ एक देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने का समय आ गया है. ये तरीका आज के अधिकारियों के साथ, युवाओं के लिए भी वर्तमान और भविष्य में उच्च पदों पर जाने का रास्ता बंद कर देगा. आम लोग बाबू व चपरासी तक ही सीमित रह जाएंगे. ये सारी चाल पीडीए से आरक्षण और उनके अधिकार छीनने की है… भाजपा सरकार इसे तत्काल वापस ले क्योंकि ये देशहित में भी नहीं है.”
वहीं, सरकार दावा कर रही है कि ये नियुक्तियां केवल और केवल ‘मेरिट’ यानी श्रेष्ठता के आधार पर की जाती हैं. इसमें आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है. केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने लेटरल एंट्री पर मचे बवाल को लेकर सरकार का पक्ष रखा. उन्होंने X पर लिखा है,
“लेटरल एंट्री मामले में कांग्रेस का पाखंड साफ दिखाई देता है. लेटरल एंट्री का कॉन्सेप्ट यूपीए सरकार ही लेकर आई थी. दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) 2005 में यूपीए सरकार के दौरान स्थापित किया गया था. वीरप्पा मोइली ने इसकी अध्यक्षता की थी. यूपीए काल के ARC ने कई पदों में रिक्तियों को भरने के लिए विशेषज्ञों की भर्ती की सिफारिश की थी. NDA सरकार ने इस सिफारिश को लागू करने के लिए एक पारदर्शी तरीका बनाया है. UPSC के माध्यम से पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से भर्ती की जाएगी. इस सुधार से शासन में सुधार होगा.”
बता दें कि अश्विनी वैष्णव ने 2005 की उसी कमेटी का हवाला दिया है जिसकी बात हमने ऊपर की है.
आरक्षण विवाद पर सरकार का पक्षलेटरल एंट्री की भर्तियां पहली बार नहीं निकली हैं. इसके पहले भी इसके तहत भर्तियां निकाली जा चुकी हैं और नियुक्तियां भी हुई हैं. लोकसभा में केंद्र सरकार से जब इसकी जानकारी मांगी गई तो सरकार ने बीती 24 जुलाई को इसके आंकड़े सदन में रखे थे. सरकार ने बताया कि विशेषज्ञता के आधार पर लेटरल एंट्री के जरिए जॉइंट सेक्रेटरी, डायरेक्टर, और डिप्टी सेक्रेटरी के अब तक 63 पद भरे जा चुके हैं. इनमें से 35 भर्तियां प्राइवेट सेक्टर से की गई हैं. इन 63 नियुक्तियों में से 57 अधिकारी अभी भी कार्यरत हैं.
सरकार से ये भी पूछा गया था कि क्या इन भर्तियों में आरक्षण पॉलिसी का खयाल रखा गया है? अगर नहीं, तो क्यों? इसके जवाब में सरकार ने कहा था,
“रिज़र्व्ड केटेगरीज़ से आने वाले अभ्यर्थियों को भी इस प्रक्रिया में अन्य योग्य कैंडिडेट्स के साथ शामिल किया गया था. हालांकि ऐसी सिंगल पोस्ट अपॉइंटमेंट में आरक्षण लागू नहीं होता”.
यानी ये बात तो स्पष्ट है कि SC-ST-OBC-EWS को मिलने वाला आरक्षण लेटरल एंट्रीज में नहीं मिलता है. सरकार इसके लिए एक और तर्क देती है, वो ये कि इन भर्तियों में ‘विशेषज्ञता’ को तरजीह दी जाती है. इसलिए आरक्षण के लिए इसमें स्पेस नहीं है.
केंद्रीय मंत्री जीतेंद्र सिंह ने 2019 में राज्यसभा में लेटरल एंट्री में आरक्षण को लेकर बताया कि, लेटरल एंट्री सिंगल कैडर अपॉइंटमेंट हैं, जिन पर आरक्षण लागू नहीं होता है. उन्होंने बताया कि लेटरल एंट्री प्रत्येक मंत्रालय में एक पद को भरने के लिए की जाती है. सिंह ने कहा था कि यह किसी विभाग में नौकरशाह की नियुक्ति के समान है और यहां आरक्षण लागू नहीं होता. इसके अलावा, उन्होंने दलील दी थी कि लेटरल एंट्री छोटे से समय के लिए (5 वर्ष तक) की जाती है, इसलिए इसमें आरक्षण का कोई मतलब नहीं बनता.
एक अन्य भ्रामक बात ये भी है कि लेटरल एंट्री की वजह से इन उच्च पदों पर निचले कर्मचारियों को पदोन्नति नहीं मिलेगी, बल्कि बाहर से प्राइवेट सेक्टर के लोग ही इन पदों पर काबिज होंगे. पर ऐसा नहीं है.
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लेटरल एंट्री के बाद भी सारे उच्च पदों पर सीधी भर्ती नहीं होती है. प्रोमोशन होकर ऊपर पहुंचने की प्रक्रिया अभी भी जारी है. हां मगर, इस बात पर फिर भी बहस की जा सकती है कि ‘उच्च पदों’ की संख्या वैसे भी कितनी होती है जो आप सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ बाहर के लोगों को भी एकॉमोडेट कर लेंगे. ये कोई अनजानी बात नहीं है कि ऊपर के पदों पर जगह कम ही होती है. इसलिए, हर कोई प्रोमोट होकर वहां तक पहुंच भी नहीं पाता है.
इसके अलावा ‘एक्स्पर्टीज़’ वाले तर्क के लिए आलोचक ये भी कहते हैं कि क्या आपको अपने खुद के ट्रेन किए और तजुर्बेकार अधिकारियों की ‘विशेषज्ञता’ पर यक़ीन नहीं है, जो आप बाहर से विशेषज्ञों को हायर कर रहे हैं.
लेटरल एंट्री की एक और बात पर आलोचना होती है. जो है इसकी चयन प्रक्रिया. इसमें कैंडिडेट को एक ऑनलाइन एप्लीकेशन फ़ॉर्म भरना होता है और उसमें अपनी काबिलियत साबित करनी होती है. इन आवेदनों के आधार पर यूपीएससी ये तय करता है कि कौन ‘ज्यादा काबिल’ है. इन कथित ज्यादा काबिल लोगों को फिर यूपीएससी इंटरव्यू के लिए बुलाता है.
इस इंटरव्यू में जो लोग खरे उतरते हैं उन्हें फिर नियुक्तियां दी जाती हैं. ये प्रक्रिया ऑब्जेक्टिव कम और सब्जेक्टिव ज़्यादा है, साथ ही इसमें ट्रांसपेरेंसी की भी कमी है. किसमें आपको क्या अच्छा लग गया और ‘क्यों’? इस बात पर भी समय-समय पर सवाल खड़े होते आए हैं.
ये भर्तियां रेगुलर भी नहीं होती हैं. इन अपॉइन्टीज़ को तीन साल के कॉन्ट्रैक्ट पर हायर किया जाता है, जो अच्छी परफॉर्मेंस के चलते पांच साल तक के लिए भी बढ़ाई जा सकती है.
वीडियो: UPSC ने लेटरल एंट्री का विज्ञापन जारी किया, राहुल गांधी क्या बोल गए?