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लड़कियों की जींस में जेबें छोटी काहे होती हैं? इतिहास ने गवाही दी तो समाज के धागे खुल गए!

जेबों में बराबरी का अधिकार मांगना क्या बेमानी है?

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जींस में छोटे पॉकेट होना एक रियल प्रॉब्लम है दोस्तों. ऐसे पॉकेट होने का क्या ही मतलब जिसमें आपका फोन तक ठीक से न आ पाए. (सांकेतिक फोटो)

'यार ये फोन रख लेना जेब में, यार ये चाबी भी रख लो प्लीज'

ये एक ऐसी लाइन है जो मैं अपनी महिला दोस्तों से अक्सर सुनता हूं. पहले मैं सोचता था कि उनने भी जींस पहननी है, मैं भी जींस पहनता हूं. उनके पास भी उतनी ही पॉकेट्स हैं, जितनी मेरे पास हैं. फिर मैं क्यों उनका सामान ढोऊं? एक दिन तंग आकर मैंने अपनी एक दोस्त से पूछ ही लिया कि भई दिक्कत क्या है, तुम अपनी पॉकेट में क्यों नहीं रखतीं अपनी चीज़ें. उधर से जवाब आया-

'हमारी पॉकेट्स में हाथ नहीं जाता, सामान क्या रखेंगे.'

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसे कैसे. फिर एक दिन मैं शॉपिंग मॉल में गया, महिलाओं के सेक्शन में जाकर मैंने जेबों की तलाशी ले डाली. कुछेक ब्रांड्स को छोड़ दें तो सच में महिलाओं की जींस और पैंट्स की जेबें इतनी छोटी होती हैं कि उनमें एक फोन रखना भी मुश्किल होता है. मेरी एक दोस्त ने बताया कि लड़कियों के ज्यादातर कपड़ों में या तो जेब होती ही नहीं है और होती भी है तो बहुत छोटी होती हैं.

लेकिन ऐसा क्यों है? ये समझने के लिए मैंने गूगल तलाशा तो पता चला इतिहास, लड़कियों की पैंट्स की जेबों का इतिहास.


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(साभार- Tenor)

क्या है औरतों के कपड़ों में जेब का इतिहास? 

शुरुआत करते हैं तब से जब जेबों का अविष्कार ही नहीं हुआ था. जब महिला और पुरुष दोनों ही रस्सी में कपड़ा बांधकर, उसे झोले की तरह अपने साथ रखते थे. इसमें वो जरूरत का सारा सामान रख सकते थे. यहां तक तो सब सही था. जेबों के मामले में ही सही आदमी और औरत बराबर थे. फिर आई 17वीं शताब्दी. इन रस्सी वालों बैग्स को कपड़ों में सिला जाना लगा, ताकि इनमें रखा सामान सेफ रहे और बैग कहीं भूल जाने वाला डर भी खत्म हो जाए.

दिक्कत यहीं से शुरू हुई. अब आदमियों की जेबों को तो कोट या शर्ट में सीधे सिल दिया जाता था- जैसा कि आज भी किया जाता है, लेकिन महिलाओं को अभी भी वही छोटा कपड़े का बैग रखना होता था. जिसे वे एक रस्सी से अपने कमर पर बांधती और इसे अपने पेटीकोट के अंदर रखती थीं. इससे दिक्कत ये थी कि आदमी तो जेब में रखे सामान को आसानी से निकल सकते थे लेकिन महिलाएं सार्वजनिक रूप से सामान नहीं निकाल सकती थीं. क्योंकि उन्हें पूरा पेटीकोट उठाकर तब अंदर से सामान निकालना होता था. यहीं से शुरू हुई महिलाओं और पुरुषों की जेबों में असमानता.


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महिलाएं कुछ इस तरह कपड़ों के नीचे छोटे बैग को छिपाती थीं. (साभार-विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय)

'रोटी-चौका-चूल्हा करेगी तो जेब का क्या काम'

1790 के दशक में महिलाओं के कपड़ों के फैशन में बदलाव हुए. शरीर से चिपके और हद से ज्यादा टाइट कपड़ों का जमाना आया. तो फिर से जेबें गायब हो गईं. जो ड्रेस आप फोटो में देख रहे हैं, वैसी ड्रेसेस औरतों के लिए बनाए जाने लगे. ऐसी ड्रेसेस जिनमें जेब की जगह ही नहीं होती थी.


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18वीं शताब्दी के ड्रेस की एक पेंटिंग (साभार- Pinterest)

यहां से पर्स रखने की शुरूआत हुई. अब महिलाओं को छोटे पर्स रखने पड़ते थे. इन्हें रेटिक्यूल (Reticules) कहा जाता था. ये इतने छोटे होते थे कि केवल रूमाल और कुछ सिक्के ही इसमें आ सकें. इनके छोटे होने के पीछे एक कारण था कि उस समय महिलाओं के पास समाज में कोई अधिकार नहीं थे, उन्हें पैसों के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता था. उस समय ऐसा माना जाता था कि महिलाएं तो रोटी-चौका-चूल्हा के लिए ही हैं, तो उनको जेबों की क्या जरूरत. इसीलिए महिलाओं की जेबें गायब हो गईं.


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रेटिक्यूल कुछ इस तरह के होते थे. सांकेतिक फोटो (साभार- Jane Austen's World)

फिर जैसे-जैसे समय बीता पर्स एक स्टेटस सिंबल भी बन गए. फिर भी पर्स छोटे ही होते थे क्योंकि बड़े पर्स को पुरुष प्रधान समाज में गलत माना जाता था. बड़े पर्स रखने वाली महिला को जज किया जाता था कि ये काम करने के लिए घर से बाहर जाती है, घर नहीं संभालती, परिवारवालों का ध्यान नहीं रखती.


कपड़ों में पॉकेट्स की मांग के लिए सड़क पर उतरी औरतें

19वीं सदी के आखिरी कुछ सालों में महिलाओं ने विरोध करना शुरू कर दिया. आर्ट और डिजाइन की हिस्ट्री का लेखाजोखा रखने वाले लंदन के विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम के अनुसार, ये वो समय था जब लंदन में रैशनल ड्रेस सोसायटी (Rational Dress Society) ने महिलाओं के कपड़ो को आरामदेह बनाने के लिए अभियान चलाए. इस सोसायटी की एक मांग ये भी थी कि औरतों के कपड़ों में जेब सिला जाए, ये महिलाओं के ज्यादा इंडिपेंडेंट फील कराएगा.

20वीं सदी के पहले दशक में महिलाएं अपने पॉकेट राइट्स को लेकर थोड़ी और एक्टिव हुईं. उन्होंने पैंट पहनना शुरू किया. उनमें जेबें होती थीं. 1910 में सफ्राजेट सूट्स आए. इनमें कम से कम छह जेबें होती थीं.


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सफ़्राजेट सूट इस तरह के होते थे. (साभार- History Today)

इसके बाद 1914 से 1945 के बीच दो विश्वयुद्ध हुए. ये वो दौर था जब महिलाओं के कपड़ों को लेकर उन्हें वो आजादी मिली जो मिलनी चाहिए. महिलाओं के कपड़ों में जेब बनाई जाने लगीं.


Patriarchy Returns 

अब तक की जानकारी पढ़कर अगर आपको ये लगा रहा है कि जेब के लिए औरतों की लड़ाई तो 100 साल पहले ही खत्म हो गई थी. तो आप गलत सोच रहे हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जंग पर गए पुरुष घर लौट आए, फिर वही राग शुरू हुआ कि महिलाओं के पुरुषों जैसे दिखने वाले कपड़े नहीं पहनने चाहिए.

इसी समय एक और बदलाव आया. औरतों के लिए ऐसे कपड़े बनाए जाने लगे जिनमें वो स्लिम दिख सकें. इन कपड़ों में जेबों के लिए जगह नहीं होती थी. और इसके साथ ही हैंडबैग भी चलन में आने लगे. तो जेबों की जरूरत भी समय के साथ कम होने लगी.


Were Back Meme
(साभार- Meme Generator)

अब वर्तमान में आते हैं. 21वीं सदी में अब महिलाओं के जींस या और कपड़ों में पॉकिट या तो होती नहीं और अगर होती है तो इतनी छोटी कि फोन भी सही से न आए. कई बार तो फेक पॉकिट भी रहती हैं. कई एक्सपर्ट्स मानते हैं कि फैशन इंडस्ट्री मेल डॉमिनेटिंग है. इसीलिए वो महिलाओं के कपड़ों में कंफर्ट से ज्यादा फैशन पर ध्यान देते हैं. इसीलिए कपड़ों में जेबों को छोटा रखा जाता है या फिर रखा ही नहीं जाता है.

वैसे औरतों के कपड़ों में जेबों के छोटे होने या नहीं होने का एक कारण हैंडबैग मार्केट को भी माना जाता है. कई तरह के हैंडबैग्स मार्केट में अवेलेबल हैं, साइज़ के हिसाब से, डिज़ाइन्स के हिसाब से.

जेबों के इतिहास पर ये जानकारी हमने निकाली है बारबरा बर्मन और एरियन फेनेटॉक्स की किताब 'द पॉकेट: ए हिडन हिस्ट्री ऑफ वुमन लाइव्स, 1660-1900' से. ये किताब बताती है कि जेबें हमारे पुरुष प्रधान समाज के इतिहास का हिस्सा रही हैं.

हालांकि, अब थोड़ा-थोड़ा करके वक्त बदल रहा है. औरतों की ड्रेसेस में, कुर्तों में पॉकेट्स आने लगी हैं. हमारे आसपास कई लड़कियां हैं जिनके किसी कपड़ों की तारीफ कर दो तो वो बड़ी खुश होकर बताती हैं कि उसमें जेब भी है. ये खुशी बनी रहे.