हम रेप की कहानियां किस तरह सुनना चाहते हैं?
मसाला छिड़ककर या मलाई मारकर?
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दिल्ली, मई 10, 2016: रेप केस में जल्द और सख्त न्याय हो, इसलिए धरना देती लड़कियां.
बीते दिनों अलीगढ़ में एक ढाई साल की बच्ची की हत्या हुई है. हत्या करने वाला अपनी ही नाबालिग बच्ची के रेप का आरोपी था. उसने बच्ची को मारकर फ्रिज में रखा ताकि दुर्गंध न आए. रिपोर्ट्स के मुताबिक़ बच्ची के बाएं पैर में फ्रैक्चर और आंखों पर चोट के निशान थे. सिर में चोट थी. उसका दायां हाथ शरीर से अलग हो गया था. पुलिस ने बताया कि बच्ची की मौत गला दबाने की वजह से हुई.
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ऐसा एक भी दिन नहीं होता, कि देश के किसी न किसी अख़बार में किसी बच्चे के साथ हिंसा या यौन हिंसा की खबर न छपे. कई बार रेप का शिकार नवजात बच्चियां भी होती हैं. मगर वे राष्ट्रीय हेडलाइंस में नहीं आतीं क्योंकि उनमें पर्याप्त मसाला नहीं होता.
रेप में मसाला ढूंढना
ये बात पढ़ने में बड़ी ही नीच लगती है. मगर न्यूज़ इंडस्ट्री में रेप की ऐसी ही भूमिका है. टीवी न्यूज़ हमारे बीच सबसे ज्यादा पॉपुलर है क्योंकि ये सबसे सहज साधन है. यहां हमें न्यूज़ पढ़नी नहीं पड़ती. हम टीवी के सामने बैठकर उसे कंज्यूम कर सकते हैं. घर के बाकी काम निपटाते हुए.
इसलिए हमें इसमें कुछ अनैतिक नहीं लगना चाहिए कि तमाम ख़बरों के साथ हम रेप का भी उपभोग कर रहे हैं.
देश में हो रहे तमाम बलात्कारों में से एक आप कैसे चुनेंगे, जिसे खबर बना सकें? न्यूज़ इंडस्ट्री का इतिहास गवाह है कि रेप की खबर टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से घर-घर पहुंचने के लिए कम से कम ये क्वॉलिफिकेशन लगती हैं:
कठुआ गैंगरेप: 8 साल की बच्ची 17 जनवरी 2018 को कई दिन लापता रहने के बाद मृत पाई गई थी.
रेप पत्रकारिता की पुरुष-प्रधान भाषा
अक्सर नेता और पत्रकार कहते हुए पाए जाते हैं कि रेप पर राजनीति नहीं करनी चाहिए. इसके पीछे वो तर्क ये देते हैं कि रेप से असल में किसी की अस्मिता को ठेस पहुंचती है. किसी की जान जाती है. किसी का घर बर्बाद हो जाता है.
विडंबना ये है कि जिस विक्टिम के दुख पर राजनीती करने का आरोप लगाया जाता है, वो तो तभी गौण हो जाती है, जब अखबारों में या न्यूज चैनल पर रेप की पहली खबर आती है.
पत्रकारिता में गौण रेप विक्टिम
हमारे देश में रेप विक्टिम के नाम, शक्ल या उसकी पहचान ज़ाहिर करती किसी भी चीज़ को सार्वजनिक करना अपराध है. ऐसे में रेप की ख़बरों में न लड़की का नाम होता है, न शक्ल, न उसकी बाइट ली जाती है. हम लड़कियों को उनकी उम्र और शहर से आइडेंटीफाई करते हैं.
हमारी सामूहिक परिकल्पना से रेप का डिस्क्रिप्शन मिसिंग है. हम रेप को उतना ही इमैजिन कर पाते हैं, जितना ख़बरों में बताया जाता है. नैतिकता के कीड़े हमारी भाषा को इतना खा चुके हैं कि हम रेप को कभी चित्रित नहीं करते हैं.
रेप की एक खबर का स्क्रीनशॉट, जिसमें पीड़िता एक FIR संख्या भर है.
रेप की भयावहता की कल्पना न कर पाना हमें उससे इम्यून बना देता है. इसलिए जब हम अखबारों में रेप की ख़बरें देखते हैं तो ज्यादा विचलित नहीं होते. एक क्षण के लिए घृणित महसूस कर आगे बढ़ जाते हैं. टीवी बुलेटिन्स में रेप की ख़बरों को 100 या 50 फटाफट ख़बरों के बीच डाल दिया जाता है. जहां एक लाइन में उन्हें पढ़ दिया जाता है.
रेप को थर्ड पर्सन में लिखने वाले पत्रकार खुद रेप की कल्पना नहीं कर पाते. क्योंकि जिसे न आपने देखा, न महसूस किया, उसे आप कैसे लिखेंगे. जिस समय पत्रकारिता की भाषा और व्याकरण तय हुए, उस समय महिला पत्रकार होती ही नहीं थीं. इसलिए पत्रकारों की कल्पना में रेप की भयावहता को स्थान मिले भी तो कैसे? आज न्यूज़रूम्स में महिलाएं हैं. लेकिन पत्रकारिता की पहले ही तय हो चुकी भाषा को बदला नहीं जा सका है.
रेप और यौन शोषण को बयां करने की भाषा
'छेड़छाड़' शब्द पर गौर कीजिए. कोई आपके फोन की सेटिंग्स बदल दे तो उसे कहते हैं फोन से 'छेड़छाड़' करना. 'छेड़ने' का शाब्दिक अर्थ है, किसी चीज़ को बिना एक्सपर्टीज़ के हाथ लगाना, जिससे वो बगड़ जाए.
अब 'छेड़छाड़' और 'यौन शोषण' को अगल-बगल रखिए. 'यौन शोषण' एक भयानक शब्द लगता है. 'छेड़छाड़' हल्का शब्द लगता है. जिस घूरने, कमेंटबाज़ी करने, हाथ लगाने, महसूस करने, चिकोटी काटने को हम पत्रकारीय भाषा में छेड़छाड़ कहते हैं, वो कानूनी रूप से यौन शोषण होता है.

छेड़छाड़ का क्या है. आज लड़की के साथ हुई, कल EVM के साथ होगी लेकिन हमारी भाषा नहीं बदलेगी.
रेप की पुरुषवादी भाषा में महिला का ट्रॉमा कभी केंद्र में रहा ही नहीं. इसलिए रेप को आज भी बड़ी सहजता से 'दुष्कर्म' कहा जाता है. 'दुष्कर्म' का शाब्दिक अर्थ है बुरा काम. नैतिक रूप से बुरा काम तो चोरी भी है, गुंडई भी. पर वो दुष्कर्म नहीं कहे जाते क्योंकि उनको ऑडियंस की कल्पना में नरम कर परोसने की जरूरत नहीं पड़ती.
धर्म और जाति की नंगई
ये बताना न होगा कि कठुआ में 8 साल की कश्मीरी बच्ची के रेप और हत्या नेशनल मुद्दा न होते, अगर वो बच्ची मुसलमान न होती. ये सच है कि मुसलमान, दलित या गरीब होना किसी भी लड़की या औरत के लिए दोहरा पिछड़ापन लेकर आता है. उसे दूसरी महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा असुरक्षित करता है. इसलिए इसपर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि ऐसी बच्ची का बलात्कार खबर क्यों बना.
पर रेप के बाद उपजा नैरेटिव निराशाजनक है. देश का लिबरल धड़ा प्लेकार्ड लेकर रेप का विरोध करता है. रेप के विरोध की पॉलिटिक्स अपने आप में सवालों के दायरे में है. क्योंकि सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े संदेश लेकर खड़ा होना असल तो क्या, प्रतीकात्मक रूप से भी कोई बदलाव नहीं ला सकता.

प्लेकार्ड पॉलिटिक्स निरर्थक है, क्योंकि इसमें रेप पीड़िता गौण हो जाती है.
इस तरह देश के लेफ्ट और राइट, दोनों ही धड़े, रेप के नैरेटिव को बदलकर धर्म का नैरेटिव कर देते हैं. रेप की शिकार बच्ची पासा बन जाती है, जिसे बारी-बारी से दोनों ग्रुप्स की ओर से चला जाता है.

अलीगढ़ में जिसकी हत्या हुई, उससे ज़रूरी इस समय उसके हत्यारे का धर्म हो चला है.
अलीगढ़ में हुई बच्ची की हत्या को पहले रेप की झूठी इनफार्मेशन के साथ पोस्ट किया गया. ताकि कठुआ केस के बराबर राइट विंग का नैरेटिव तैयार ही सके. ये राइट धड़े के लिए दुखद ही रहा होगा कि बच्ची का रेप नहीं हुआ है. और पोस्टमॉर्टेम में इस बात की पुष्टि हुई है.
कठुआ और अलीगढ़, दोनों के ही नैरेटिव में बार-बार मुसलमान नाम ही लिखे गए. चाहे वो रेप पीड़िता का हो, या रेपिस्ट का. पत्रकारीय भाषा की प्रयॉरिटी ये नहीं दिखती की लड़की को न्याय मिले. बल्कि ये दिखती है कि कैसे मुसलमान नामों का जिक्र बार-बार आता रहे.
सामूहिक प्रतिक्रिया
वहशी, दरिंदा, क्रूर. टीवी की ख़बरें रेपिस्ट को इन्हीं विशेषणों से संबोधित करती हैं. हम भी रेपिस्ट को टीवी पर देखकर कोसते हैं. गालियां देते हैं. फांसी की मांग करते हैं. सोशल मीडिया पर लिखते हैं कि इनके लिंग काट लेने चाहिए. ये हमारी नैसर्गिक प्रतिक्रिया है.
पर जब सोशल मीडिया पर कोई लड़की अपने साथ हुए यौन शोषण के बारे में लिखती है. तो सबसे पहले उसपर सवाल उठाते हैं. एक समाज के तौर पर हम यौन शोषण का विरोध करते हैं. पर उसकी कहानी फर्स्ट पर्सन में आए तो भरोसे के पहले हम सवाल करना चाहते हैं.
निर्भया की मां, जिन्हें रेप विक्टिम की मां होने के लिए सम्मानित किया जाता है.
ये लड़की जबतक हिंसा की शिकार न हो, मर न जाए, इसकी अंतड़ियां निकालकर ज़मीन पर न फेंक दी जाएं, तबतक कोई इसपर भरोसा नहीं करता.
रेप की कहानियां हम पीड़िता के मुंह से नहीं, उसकी पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट से सुनना चाहते हैं.
रेप में मसाला ढूंढना
ये बात पढ़ने में बड़ी ही नीच लगती है. मगर न्यूज़ इंडस्ट्री में रेप की ऐसी ही भूमिका है. टीवी न्यूज़ हमारे बीच सबसे ज्यादा पॉपुलर है क्योंकि ये सबसे सहज साधन है. यहां हमें न्यूज़ पढ़नी नहीं पड़ती. हम टीवी के सामने बैठकर उसे कंज्यूम कर सकते हैं. घर के बाकी काम निपटाते हुए.
इसलिए हमें इसमें कुछ अनैतिक नहीं लगना चाहिए कि तमाम ख़बरों के साथ हम रेप का भी उपभोग कर रहे हैं.
देश में हो रहे तमाम बलात्कारों में से एक आप कैसे चुनेंगे, जिसे खबर बना सकें? न्यूज़ इंडस्ट्री का इतिहास गवाह है कि रेप की खबर टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से घर-घर पहुंचने के लिए कम से कम ये क्वॉलिफिकेशन लगती हैं:
1. लड़की या रेपिस्ट में से कोई एक दलित हो
2. लड़की या रेपिस्ट में से कोई एक मुसलमान हो
3. रेप मीडिया स्टैंडर्ड्स के मुताबिक़ पर्प्याप्त जघन्य हो
4. रेप देश या उस राज्य में होने वाले अगले चुनाव के कितना निकट है

कठुआ गैंगरेप: 8 साल की बच्ची 17 जनवरी 2018 को कई दिन लापता रहने के बाद मृत पाई गई थी.
रेप पत्रकारिता की पुरुष-प्रधान भाषा
अक्सर नेता और पत्रकार कहते हुए पाए जाते हैं कि रेप पर राजनीति नहीं करनी चाहिए. इसके पीछे वो तर्क ये देते हैं कि रेप से असल में किसी की अस्मिता को ठेस पहुंचती है. किसी की जान जाती है. किसी का घर बर्बाद हो जाता है.
विडंबना ये है कि जिस विक्टिम के दुख पर राजनीती करने का आरोप लगाया जाता है, वो तो तभी गौण हो जाती है, जब अखबारों में या न्यूज चैनल पर रेप की पहली खबर आती है.
पत्रकारिता में गौण रेप विक्टिम
हमारे देश में रेप विक्टिम के नाम, शक्ल या उसकी पहचान ज़ाहिर करती किसी भी चीज़ को सार्वजनिक करना अपराध है. ऐसे में रेप की ख़बरों में न लड़की का नाम होता है, न शक्ल, न उसकी बाइट ली जाती है. हम लड़कियों को उनकी उम्र और शहर से आइडेंटीफाई करते हैं.
हमारी सामूहिक परिकल्पना से रेप का डिस्क्रिप्शन मिसिंग है. हम रेप को उतना ही इमैजिन कर पाते हैं, जितना ख़बरों में बताया जाता है. नैतिकता के कीड़े हमारी भाषा को इतना खा चुके हैं कि हम रेप को कभी चित्रित नहीं करते हैं.
अगर चित्रित करते भी हैं, तो ये कभी 'प्रथम पुरुष' में नहीं होता. यानी कभी खुद पीड़िता के मुंह से नहीं आता. ऐसे में रेप हमारी कल्पना में वैसे ही आते हैं, जैसे फिल्मों में दिखाए गए. या निर्भया जैसे इक्के-दुक्के केसेज में मीडिया में उठाए गए.

रेप की एक खबर का स्क्रीनशॉट, जिसमें पीड़िता एक FIR संख्या भर है.
रेप की भयावहता की कल्पना न कर पाना हमें उससे इम्यून बना देता है. इसलिए जब हम अखबारों में रेप की ख़बरें देखते हैं तो ज्यादा विचलित नहीं होते. एक क्षण के लिए घृणित महसूस कर आगे बढ़ जाते हैं. टीवी बुलेटिन्स में रेप की ख़बरों को 100 या 50 फटाफट ख़बरों के बीच डाल दिया जाता है. जहां एक लाइन में उन्हें पढ़ दिया जाता है.
रेप को थर्ड पर्सन में लिखने वाले पत्रकार खुद रेप की कल्पना नहीं कर पाते. क्योंकि जिसे न आपने देखा, न महसूस किया, उसे आप कैसे लिखेंगे. जिस समय पत्रकारिता की भाषा और व्याकरण तय हुए, उस समय महिला पत्रकार होती ही नहीं थीं. इसलिए पत्रकारों की कल्पना में रेप की भयावहता को स्थान मिले भी तो कैसे? आज न्यूज़रूम्स में महिलाएं हैं. लेकिन पत्रकारिता की पहले ही तय हो चुकी भाषा को बदला नहीं जा सका है.
रेप और यौन शोषण को बयां करने की भाषा
'छेड़छाड़' शब्द पर गौर कीजिए. कोई आपके फोन की सेटिंग्स बदल दे तो उसे कहते हैं फोन से 'छेड़छाड़' करना. 'छेड़ने' का शाब्दिक अर्थ है, किसी चीज़ को बिना एक्सपर्टीज़ के हाथ लगाना, जिससे वो बगड़ जाए.
अब 'छेड़छाड़' और 'यौन शोषण' को अगल-बगल रखिए. 'यौन शोषण' एक भयानक शब्द लगता है. 'छेड़छाड़' हल्का शब्द लगता है. जिस घूरने, कमेंटबाज़ी करने, हाथ लगाने, महसूस करने, चिकोटी काटने को हम पत्रकारीय भाषा में छेड़छाड़ कहते हैं, वो कानूनी रूप से यौन शोषण होता है.

छेड़छाड़ का क्या है. आज लड़की के साथ हुई, कल EVM के साथ होगी लेकिन हमारी भाषा नहीं बदलेगी.
मगर पत्रकारीय भाषा इंतज़ार करती है मामले के और संगीन होने का, इससे पहले कि वो उसे यौन शोषण बतला सके.हमारी ख़बरें हमसे कहेंगी, 'फलां लड़की के सामने आदमी ने की अश्लील हरकत.' क्योंकि अगर न्यूज़ में बता दिया जाए कि एक युवा लड़की के सामने एक अधेड़ पुरुष ने पैंट खोलकर हस्तमैथुन किया, तो इससे आपकी कल्पना में किरकिरी पड़ सकती है.
रेप की पुरुषवादी भाषा में महिला का ट्रॉमा कभी केंद्र में रहा ही नहीं. इसलिए रेप को आज भी बड़ी सहजता से 'दुष्कर्म' कहा जाता है. 'दुष्कर्म' का शाब्दिक अर्थ है बुरा काम. नैतिक रूप से बुरा काम तो चोरी भी है, गुंडई भी. पर वो दुष्कर्म नहीं कहे जाते क्योंकि उनको ऑडियंस की कल्पना में नरम कर परोसने की जरूरत नहीं पड़ती.
धर्म और जाति की नंगई
ये बताना न होगा कि कठुआ में 8 साल की कश्मीरी बच्ची के रेप और हत्या नेशनल मुद्दा न होते, अगर वो बच्ची मुसलमान न होती. ये सच है कि मुसलमान, दलित या गरीब होना किसी भी लड़की या औरत के लिए दोहरा पिछड़ापन लेकर आता है. उसे दूसरी महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा असुरक्षित करता है. इसलिए इसपर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि ऐसी बच्ची का बलात्कार खबर क्यों बना.
पर रेप के बाद उपजा नैरेटिव निराशाजनक है. देश का लिबरल धड़ा प्लेकार्ड लेकर रेप का विरोध करता है. रेप के विरोध की पॉलिटिक्स अपने आप में सवालों के दायरे में है. क्योंकि सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े संदेश लेकर खड़ा होना असल तो क्या, प्रतीकात्मक रूप से भी कोई बदलाव नहीं ला सकता.

प्लेकार्ड पॉलिटिक्स निरर्थक है, क्योंकि इसमें रेप पीड़िता गौण हो जाती है.
एक रेप केस, जो तमाम और रेप केसेज की तरह खो सकता है. उसे मीडिया में हवा मिलती है. पर जिन्हें हवा नहीं मिली, क्या वे औरतें, लड़कियां, बच्चियां न्याय के लायक नहीं हैं? सेलेब्रिटीज का रवैया सेलेक्टिव है. और जिस वक़्त हम एक रेप को दूसरे रेप से अधिक 'आकर्षक', प्लेकार्ड लेकर फोटो लगाने लायक मानते हैं, ठीक उसी वक़्त हम रेप को एक पुरुषवादी नैरेटिव दे देते हैं. क्योंकि ठीक इसी समय रेप विक्टिम का लड़की होना गौण होकर उसका मुसलमान होना अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है.इससे भी घृणित होता है रेपिस्ट के सपोर्ट में खड़े हो जाना, उसके समर्थन में रैली निकालना. क्योंकि उसपर आरोप लगना नेताओं को धर्म विशेष पर हमला लगने लगता है.
इस तरह देश के लेफ्ट और राइट, दोनों ही धड़े, रेप के नैरेटिव को बदलकर धर्म का नैरेटिव कर देते हैं. रेप की शिकार बच्ची पासा बन जाती है, जिसे बारी-बारी से दोनों ग्रुप्स की ओर से चला जाता है.

अलीगढ़ में जिसकी हत्या हुई, उससे ज़रूरी इस समय उसके हत्यारे का धर्म हो चला है.
अलीगढ़ में हुई बच्ची की हत्या को पहले रेप की झूठी इनफार्मेशन के साथ पोस्ट किया गया. ताकि कठुआ केस के बराबर राइट विंग का नैरेटिव तैयार ही सके. ये राइट धड़े के लिए दुखद ही रहा होगा कि बच्ची का रेप नहीं हुआ है. और पोस्टमॉर्टेम में इस बात की पुष्टि हुई है.
कठुआ और अलीगढ़, दोनों के ही नैरेटिव में बार-बार मुसलमान नाम ही लिखे गए. चाहे वो रेप पीड़िता का हो, या रेपिस्ट का. पत्रकारीय भाषा की प्रयॉरिटी ये नहीं दिखती की लड़की को न्याय मिले. बल्कि ये दिखती है कि कैसे मुसलमान नामों का जिक्र बार-बार आता रहे.
सामूहिक प्रतिक्रिया
वहशी, दरिंदा, क्रूर. टीवी की ख़बरें रेपिस्ट को इन्हीं विशेषणों से संबोधित करती हैं. हम भी रेपिस्ट को टीवी पर देखकर कोसते हैं. गालियां देते हैं. फांसी की मांग करते हैं. सोशल मीडिया पर लिखते हैं कि इनके लिंग काट लेने चाहिए. ये हमारी नैसर्गिक प्रतिक्रिया है.
पर जब सोशल मीडिया पर कोई लड़की अपने साथ हुए यौन शोषण के बारे में लिखती है. तो सबसे पहले उसपर सवाल उठाते हैं. एक समाज के तौर पर हम यौन शोषण का विरोध करते हैं. पर उसकी कहानी फर्स्ट पर्सन में आए तो भरोसे के पहले हम सवाल करना चाहते हैं.
भारत ने मी टू मूवेमेंट देखा. सवाल उठाने आली अभिनेत्रियों, महिला पत्रकारों, स्टूडेंट्स, सभी के बारे में कहा गया कि वो पब्लिसिटी के लिए ऐसा कर रही हैं. या फिर एक बड़े नाम को नीचे गिराना चाहती हैं. बदला ले रही हैं, वगैरह. लड़की अपने रेप की खबर खुद सार्वजनिक करे तो उससे प्रूफ़ मांगते हैं. जिसपर आरोप लग रहे हैं, उसकी बेगुनाही का प्रूफ मांगने के बजाय.

निर्भया की मां, जिन्हें रेप विक्टिम की मां होने के लिए सम्मानित किया जाता है.
ये लड़की जबतक हिंसा की शिकार न हो, मर न जाए, इसकी अंतड़ियां निकालकर ज़मीन पर न फेंक दी जाएं, तबतक कोई इसपर भरोसा नहीं करता.
रेप की कहानियां हम पीड़िता के मुंह से नहीं, उसकी पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट से सुनना चाहते हैं.
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