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मैरिटल रेप, सेक्स एजुकेशन सुनते ही तिलमिलाने वालों को सुप्रीम कोर्ट की ये बातें बहुत चुभेंगी!

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला अविवाहित महिलाओं को अबॉर्शन का अधिकार देने तक सीमित नहीं है.

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सांकेतिक फोटो- Pixabay

तारीख 29 सितंबर. साल 2022. सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया. फैसला ये कि गर्भपात के अधिकार यानी Right to abortion के लिए एक महिला का शादीशुदा होना ज़रूरी नहीं है. इस फैसले ने उन तमाम सामाजिक मान्यताओं और रूढ़ियों को चुनौती दी है जिन्हें कई लोग श्रेष्ठ भारतीय परंपरा का हिस्सा मानते हैं – मसलन लड़कियों का विवाह से पहले यौन संबंध बनाना. इसे अब भी सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अविवाहित लड़कियों और महिलाओं के गर्भपात के अधिकार पर कानूनी मुहर लगाकर इस धारणा को झकझोर दिया है कि विवाह से पहले लड़कियों को यौन संबंध नहीं बनाने चाहिए. इसलिए इस फैसले के दूरगामी परिणाम होने की उम्मीद है.

ये फैसला एक अविवाहित महिला की याचिका पर आया था, जो एक लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हुए गर्भवती हुई. जिसके पार्टनर ने शादी से इनकार कर दिया और महिला का कहना था कि वो अकेले बच्चे की परवरिश नहीं कर पाएगी. मामला दिल्ली हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने की. उस महिला को अबॉर्शन की अनुमति दे दी. लेकिन इस मामले ने भारत के मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट के एक भेदभाव को उजागर किया और सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई जारी रही.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल अविवाहित महिलाओं के अबॉर्शन के अधिकार तक सीमित नहीं रहा. इस फैसले में महिलाओं के उनके शरीर पर अधिकार, अबॉर्शन के लिए जाने वाली लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव, असुरक्षित अबॉर्शन, सेक्स एजुकेशन की कमी, शादी के अंदर होने वाली जबरदस्ती (मैरिटल रेप को कानून अब भी रेप नहीं मानता) और उससे होने वाली प्रेग्नेंसी को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने महती टिप्पणी की. एक-एक करके उन ज़रूरी टिप्पणियों पर बात करते हैं. सबसे आखिर में बात करेंगे मैरिटल रेप पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और फैसले पर.

महिला के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ उसका अधिकार है: सुप्रीम कोर्ट

इस साल अबॉर्शन का अधिकार पूरी दुनिया में बहस का विषय रहा. वजह थी अमेरिका में शुरू हुई ‘रो बनाम वेड’ की बहस. जून में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन का अधिकार कानूनी रूप से खत्म कर दिया. कोर्ट ने कहा कि राज्यों को अधिकार होगा कि वो अबॉर्शन को लेकर अपने-अपने कानून बना सकते हैं. इस फैसले में महिलाएं क्या चाहती हैं? महिलाओं के उनके शरीर पर अधिकार का क्या? जबरदस्ती के गर्भ से महिलाओं की मानसिक और शारीरिक सेहत पर क्या असर होगा? इन सारे सवालों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था.

अमेरिका में अबॉर्शन के अधिकार के लिए हुए प्रोटेस्ट की एक तस्वीर (विकिमीडिया कॉमन्स)

भारत का MTP एक्ट इन सवालों के जवाब देता है. और ये साफ कहता है कि एक महिला एक ऐसी प्रेग्नेंसी को खत्म कर सकती है, जो उसके मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाले, उसे मानसिक प्रताड़ना दे. हालांकि, कई मामलों में ये देखा गया है कि मेडिकल प्रैक्टिशनर्स या डॉक्टर्स जबरिया कानूनी शर्तें (Extra Legal Conditions) लगाने लगते हैं कि महिला के परिवार या पति की सहमति चाहिए या फिर उससे डॉक्यूमेंट्स मांगे जाते हैं. जबकि, इन जबरिया शर्तों का कोई कानूनी आधार नहीं है. अबॉर्शन के लिए सिर्फ और सिर्फ महिला की सहमति मायने रखती है. हां, नाबालिगों या मानसिक रूप से अक्षम लोगों के केस में अभिभावक की सहमति ज़रूरी होती है.

कोर्ट ने कहा,

"मेडिकल प्रैक्टिशनर्स ऐसी शर्तें न लगाएं, उन्हें केवल ये सुनिश्चित करना होगा कि MTP एक्ट की शर्तें पूरी हो रही हैं या नहीं."

महिला के अपने शरीर पर अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

"एक महिला शादीशुदा हो या न हो, अपनी मर्ज़ी से प्रेगनेंट हो सकती है. अगर ये प्रेग्नेंसी इच्छा से हुई है तो मां और पिता दोनों पर बच्चे की बराबर जिम्मेदारी आती है. पर अगर प्रेग्नेंसी अनचाही हो तो उसका बोझ अपने आप ही महिला पर आ जाती है, जिसका उसकी मानसिक और शारीरिक सेहत पर असर पड़ता है. आर्टिकल 21 एक महिला को गर्भपात की अनुमति देता है अगर उससे महिला के मानसिक और शारीरिक सेहत पर बन आए. एक महिला के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ उसका अधिकार है और ये फैसला सिर्फ और सिर्फ वो ही कर सकती है कि वो अबॉर्शन चाहती है या नहीं."

कोर्ट ने ये भी कहा कि गर्भपात का फैसला एक महिला बिना किसी बाहरी दबाव के ले सकती है.

सेक्स एजुकेशन की कमी प्रेग्नेंसी का बड़ा कारण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि नाबालिगों को यौन अपराधों से बचाने वाले POCSO एक्ट और MTP एक्ट के बीच एक तालमेल बनाने की ज़रूरत है. कोर्ट ने कहा कि अगर कोई नाबालिग लड़की अबॉर्शन के लिए अस्पताल जाती है तो पुलिस को दी जाने वाली जानकारी में नाबालिग की पहचान और उसकी दूसरी डिटेल्स देना ज़रूरी नहीं है.

सांकेतिक फोटो- Pixabay

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि 18 से कम उम्र के लड़के-लड़कियां भी सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं. लेकिन POCSO एक्ट इसे मानता नहीं है.  फैसले में कोर्ट ने कहा,

"देश में सेक्शुअल हेल्थ एजुकेशन नहीं होने की वजह से ज्यादातर किशोरों को ये पता ही नहीं होता है कि हमारा रिप्रोडक्टिव सिस्टम काम कैसे करता है और कैसे कॉन्ट्रासेप्टिव मेथड्स की मदद से प्रेग्नेंसी को रोका जा सकता है. शादी से पहले सेक्स को लेकर बने टैबू के चलते लड़के-लड़कियां गर्भनिरोध के तरीकों का इस्तेमाल नहीं करते. इसी टैबू के चलते प्रेगनेंट होने पर लड़कियां अपने माता-पिता या अभिभावकों को बताने से डरती हैं."

कोर्ट ने कहा कि हो सकता है कि प्रेगनेंट होने वाली नाबालिग और उसके परिजन कानूनी चक्कर में न पड़ना चाहते हों. ऐसे में हो सकता है कि पुलिस को जानकारी दिए जाने के डर से वो लोग किसी ऐसे डॉक्टर या मेडिकल प्रैक्टिशनर के पास चले जाएं जो अबॉर्शन करने के लिए क्वालिफाइड न हो.

कोर्ट ने फैसले में कहा कि MTP एक्ट का फायदा 18 से कम उम्र की सभी महिलाओं को मिलेगा जो सहमति से संबंध बनाती हैं. कोर्ट ने कहा,

"रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर केवल तब नाबालिग की पहचान और उसकी दूसरी डिटेल्स पुलिस को दे सकते हैं जब नाबालिग या उसके परिजन इसके लिए कहें. क्रिमिनल प्रोसीडिंग्स में भी मेडिकल प्रैक्टिशनर के पास नाबालिग की पहचान न बताने का अधिकार होगा."

आपको बता दें कि अगर कोई नाबालिग लड़की अबॉर्शन के लिए आती है, तो पॉक्सो एक्ट के तहत मेडिकल प्रैक्टिशनर के लिए ज़रूरी होता है कि वो इसकी सूचना पुलिस को दे.

'MTP एक्ट के लिए मैरिटल रेप का मतलब रेप होगा'

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबसे बड़ा हाईलाइट रही मैरिटल रेप पर टिप्पणी. कोर्ट ने कहा कि शादी में हुई जबरदस्ती को MTP एक्ट में रेप माना जाएगा. कोर्ट ने कहा कि अगर पति जबरदस्ती सेक्स करे और उससे पत्नी गर्भवती हो जाए, तो MTP एक्ट के तहत वो भी यौन शोषण, रेप और इंसेस्ट (परिवार के सदस्यों के साथ शारीरिक संबंध बनाना) की पीड़ित मानी जाएगी. ऐसी स्थिति में महिला 20 से 24 हफ्ते के बीच गर्भपात कराने के लिए एलिजिबल होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने अबॉर्शन के अधिकार पर फैसला देते हुए महिलाओं के अधिकारों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं. फोटो- PTI

कोर्ट ने कहा,

"अगर हम ये स्वीकार न करें कि इंटिमेट पार्टनर हिंसक होते और वो रेप भी कर सकते हैं तो ये हमारी लापरवाही होगी. ये मान लेना दुर्भाग्यपूर्ण है कि सेक्स और लिंग आधारित हिंसा के लिए केवल अनजान लोग जिम्मेदार हैं. परिवार के संदर्भ में भी सेक्स और लिंग आधारित हिंसा से एक महिला गुज़रती है."

IPC की धारा 375 में रेप की परिभाषा पर अपवाद को लेकर भी कोर्ट ने टिप्पणी की. धारा 375 मुताबिक, पति द्वारा जबरन बनाए गए यौन संबंधों को रेप नहीं माना जाता है.  कोर्ट ने कहा,

"भले ही IPC की धारा 375 में अपवाद हो,  MTP एक्ट के रूल 3B(a) में सेक्शुअल असॉल्ट और रेप के दायरे में पति द्वारा पत्नी पर की गई यौन हिंसा और रेप भी शामिल होंगे."

कोर्ट ने ये साफ किया है कि केवल MTP एक्ट के लिए मैरिटल रेप को रेप माना जाएगा. कोर्ट ने कहा कि मैरिटल रेप से ठहरने वाले गर्भ को पालने और बच्चा पैदा करने का दबाव एक महिला को मानसिक और शारीरिक रूप से नुकसान पहुंचाएगा.इस नियम के तहत अबॉर्शन कराने के लिए ये ज़रूरी नहीं है कि महिला कानूनी प्रक्रिया से गुज़रे और ये साबित करे कि पति ने उसके साथ जबरदस्ती की है.

आपको बता दें कि मैरिटल रेप को रेप माना जाए या नहीं, इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है. इससे पहले 11 मई को दिल्ली हाईकोर्ट ने मैरिटल रेप को लेकर स्प्लिट वर्डिक्ट दिया था. स्प्लिट वर्डिक्ट यानी दो जजों की बेंच बैठी थी, दोनों अलग-अलग फैसला दिया था. जस्टिस राजीव शकधर मैरिटल रेप को रेप मानने के पक्ष में थे. वहीं जस्टिस सी हरिशंकर का मानना था कि मैरिटल रेप को रेप मानना शादी की संस्था के लिए खतरनाक होगा.

वीडियो- कर्नाटक हाईकोर्ट ने मैरिटल रेप पर ज़रूरी फैसला दिया है