बात कॉलेज के दिनों की है. मेरे हॉस्टल में रहने वाली एक लड़की लेस्बियन थी. यानी वो लड़कियों के प्रति ही आकर्षित थी. जैसे ही ये बात बाकी लड़कियों को पता चली, सब उससे कटने लगे. उन्होंने उसके साथ कमरा शेयर करने से मना कर दिया. वार्डन से कहा कि लेस्बियन लड़की से उन्हें डर लगता है. वो बाकी लड़कियों पर डोरे डाल सकती है. उनके साथ कुछ गलत कर सकती है.
Gay, Lesbian और Bisexual लोग हर लड़के या लड़की में अपना पार्टनर खोजते हैं?
ये सारी बात कर के समझ आया कि गे, लेस्बियन या बायसेक्शुअल होना भी उतना ही नार्मल है जितना हेट्रोसेक्शुअल होना और वो भी बिलकुल उस ही तरह से पार्टनर्स खोजते या देखते हैं जिस तरह हर कोई देखता है.
जिस लेस्बियन लड़की का मैंने आपको किस्सा बताया, कल मुझे उसकी कुछ तस्वीरें दिखी. इंस्टाग्राम पर. वो अपनी पार्टनर के साथ प्राइड मंथ सेलिब्रेट करने के लिए एक परेड की तैयारी कर रही थी. दुनियाभर में जून का महीना प्राइड मंथ के तौर पर मनाया जाता है. क्यों मनाया जाता है ये जानने के लिए इतिहास के पन्ने पलटना पड़ेगा.
तारीख थी 28 जून 1969 (उन्नीस सौ उनहत्तर). जगह- न्यूयोर्क का स्टोनवेल बार. पुलिस ने रेड मारी और लोगों से आईडी दिखाने को कहा. उस दौर में पुलिस का बार खास कर की वो बार जहां गे पार्टी करते थे वहां रेड मारना बहुत कॉमन था. लोगों की आईडी में लिखे जेंडर और उनके ड्रेसअप में अगर फर्क होता तो उनपर लाठी बरसाई जाती, कार्रवाई होती. लेकिन 28 जून की कहानी कुछ अलग थी. उसदिन बार में मौजूद लोग भड़क गए और उन्होंने पुलिसवालों का विरोध किया. पत्थरबाज़ी भी हुई. अगले कुछ दिन तक लोग सड़क पर उतरे. सतरंगी कपड़े पहने, गे प्राइड थीम पर तैयार हुए जिसे आज प्राइड थीम कहा जाता है. ये घटना को दुनियाभर में LGBTQIA कम्युनिटी के लोगों के लिए अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए मिसाल बनी.
सालों तक LGBTQIA कम्युनिटी को कमज़ोर और दिमागी रूप से बीमार माना जाता था. उनपर कानूनी प्रतिबंध भी लगाए गए. इंडिया में भी ब्रिटिशर्स ने कानून बनाए और 1870 में सेम सेक्स को अप्राकृतिक बताया और गैरकानूनी बताया. 2001 में नाज़ फाउंडेशन ने सेम सेक्स को लीगलाइज़ करने की पेटिशन डाली और 2018 में सुप्रीमकोर्ट ने सेम सेक्स को अपराध के दायरे से बाहर किया.
अब ये प्राइड मंथ की बात. अब ज़रा ये समझ लीजिए कि गे, लेस्बियन और बाईसेक्शुअल लोग कौन होते हैं?
जब फीमेल फीमेल के प्रति आकर्षित हो, तब वो लेस्बियन कहलाती है. जब कोई पुरुष पुरुष के प्रति आकर्षित हो, तब वो गे कहलाता है. और जब कोई मेल या फीमेल दोनों के प्रति आकर्षित हो, तब वो बाईसेक्शुअल कहलाता या कहलाती है.
शुरुआत में मैंने आपको अपनी लेस्बियन हॉस्टलमेट के बारे में बताया था. मैंने उसकी और उसकी पार्टनर की तस्वीरें देखी और वो देखकर मेरे मन में ख्याल आया कि आखिर LGBTQIA कम्युनिटी के लोग पाटनर्स कैसे खोजते हैं? कैसे लेस्बियन लड़की को लेस्बियन पार्टनर ही मिलती है? उन्हें कैसे पता चलता है कि जिस व्यक्ति को वो अप्रोच कर रहे हैं वो हेट्रोसेक्शुअल है या होमोसेक्शुअल?
ये सब समझने के लिए मैंने कुछ ऐसे लोगों से बात की जो अपने आप को गे और लेस्बियन की तरह आइडेंटीफाई करते हैं. उनसे बात कर के मैंने सिलसिलेवार तरीके से सारे सवाल पूछे. कुछ लोग अपनी आइडेंटिटी रीवील करने में सहज नहीं थे, सो उनकी बातें मैंने पॉइंन्ट वाइज नोट कर ली. उन्हें एक काल्पनिक नाम दे देते हैं, ताकि उनकी बात ज्यों की त्यों आप तक पहुंचा पाऊं.
नाम है मनु. मनु खुद को गे की तरह आइडेंटिफाई करते हैं. मनु ने बताया कि उन्होंने अपने पार्टनर को ऑनलाइन डेटिंग ऐप के ज़रिए खोजा था. मनु ने बताया,
“इंडिया में ऑनलाइन मैचमेंकिंग 1996 से चल रही है.2002 में गे कपल्स के लिए प्लैनेट रोमियो आया. 2014 में टिंडर जैसे प्लेटफार्म इंडिया में आये. आज टिंडल और बंबल जैसे प्लेटफार्म मेल और फीमेल के अलावा बाइनरी का भी ऑप्शन देते हैं. इन ऐप्स पर अकाउंट बनाते वक़्त पूछा जाता है कि क्या आप अपनी आइडेंटिटी लोगों को बताना चाहते हैं? और ये भी पूछा जाता है कि आप किसे डेट करना चाहते हैं? उस हिसाब से आपको लोगों के सजेशन मिलते हैं.मनु ने ये भी कहा कि गे या LGBTQI कम्युनिटी का होना पहले नार्मल या नैचरल नहीं माना जाता था. इस कम्युनिटी के लोग हमेशा ऐसे स्पेस की तलाश में रहते जहां उनको समझा जाए, उन्हें स्वीकार किया जाए. 1990 में मुंबई से एक मैगज़ीन निकला करती थी. बॉम्बे दोस्त. उसमे एक कॉलम था जिसमें गे अपनी चॉइस ऑफ़ पार्टनर के बारे में लिखते थे और सूटेबल पार्टनर्स से लेटर मंगाते थे.फिर इस मैगज़ीन की जगह याहू मैसेंजर ने ले ली. जहां एक दूसरे की प्रोफाइल देखने के बाद लोग बात करते, वहां अपनी तस्वीर डालने की बाध्यता नहीं थी जिस वजह से प्राइवेसी मेन्टेन करने का भी ऑपशन था.फिर स्मार्टफोन का कल्चर आया. अब चीज़ें पहले के मुकाबले बेहतर हैं. ज़्यादा से ज़्यादा लोग खुलकर अपनी आइडेंटिटी के बारे में बता रहे हैं, बात कर रहे हैं. पहले फिल्मों में किसी गे या ट्रांस के करैक्टर को फनी रोल ही दिया जाता था. अब चीज़ें बदल रही है. फिल्मों में भी जेंडर सेंसेटिव तरीके से LGBTQI कम्युनिटी की स्टोरीज़ बताई जा रही हैं. धीरे धीरे ही सही, बदलाव आ रहा है.”
मैंने आकांशा से भी बात की जो खुद को बायसेक्शुअल की तरह आइडेंटिफाई करती हैं. मैंने आकांशा से पूछा कि वो कैसे पार्टनर खोजती हैं? क्या प्रोसेस होता है? इस बात पर आकांशा ने कहा,
"मेरा ऐसा मानना है कि जैसे एक नार्मल लोग एक दूसरे से बात करते हैं वैसे हम भी करते हैं अगर वो अजनबी हो तो. और हम उसे किसी की जान पहचान से जानते है तो पहले उससे बात करते हैं. एक दूसरे को जानने की कोशिश करते हैं. अपने आप को वो कैसे समझते हैं या आइडेंटिफाई करते है. और उसके बाद हम उनसे बात करते हैं. पर जो बेसिक आकर्षण होता है नॉर्मल इंसान को जो इस कम्युनिटी का नहीं है वो भी जैसे ढूंढते है वैसे ही हम ढूंढते है. कोई फर्क नहीं है. हम भी पहले एक इंसान से आकर्षित होते है भले ही वो स्त्री हो या पुरुष हो."
क्या लेस्बियन सिर्फ लेस्बियन लड़की के प्रति ही आकर्षित होती है? या कोई हरट्रोसेक्शुअल के प्रति भी आकर्षित हो सकते हैं? इस बात पर आकांशा ने कहा,
"कई बार ऐसा होता है हम जिससे आकर्षित हैं वो हमारी कम्युनिटी का नहीं है या वो हेट्रोसेक्सुअल है. तो जब हम उनसे बात करते है तो पता चलता है. कई बार ऐसा होता हैं रहने के ढंग से या उनके बात करने के ढंग से हमे अंदाजा हो जाता है. क्या उनका भी हमारी तरफ झुकाव है? क्या वो भी हम पसंद करते हैं?और फिर उसके बाद ही हम उनसे आगे बातचीत करते है. ऐसा होता है हमारे साथ हम किसी हेट्रोसेक्सुअल से अट्रैक्ट हो जाते है और जब उनसे बात करने जाते है तो बात आगे नहीं बढ़ पाती है."
एक आम धारणा है कि कोई लेस्बियन या गे या बाई है तो वो हर लड़का और लड़की में अपना पोटेंशिअल पार्टनर खोजेगा? इस सवाल पर आकांशा ने कहा
“ये कहना बहुत बड़ा मिथ है. ऐसा नहीं होता है. जैसे एक हेट्रोसेक्सुअल के साथ होता है. वैसा हमारे साथ होता है. जैसे एक लड़के को एक लड़की पसंद होती है. हो सकते है कुछ समय बाद उसे कोई और पसंद आ जाए. या हमारे कुछ क्रश होते है. ऐसा नहीं है की बचपन से ही हम एक इंसान से प्यार करते है. जिंदगी के पड़ाव में हमारे अलग अलग साथी आते है. इसका जेंडर या कम्युनिटी पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.”
बायसेक्शुअल व्यक्ति एक ही वक्त में मेल फीमेल दोनों के प्रति आकर्षित होते हैं?
"ये हमारा माइंड सेट नहीं होता है. ऐसा नहीं होता है. अगर मेरा एक औरत के साथ संबंध है तो में एक पुरुष के साथ संबंध नहीं बनाऊंगी. अट्रैक्शन होता इतना ही आम है जैसा हेट्रोसेक्सुअल के साथ होता है. फर्क सिर्फ इतना है लोगों को ऐसा लगता है कि हम दोनो के साथ संबंध बना सकते है तो हम दोनो से संबंध बनाएंगे. इस बात में बहुत फर्क है. बना सकते है या बनाएंगे. ये हमारे ही ऊपर होता है. जरुरी नहीं है."
ये सारी बात कर के समझ आया कि गे, लेस्बियन या बायसेक्शुअल होना भी उतना ही नार्मल है जितना हेट्रोसेक्शुअल होना और वो भी बिलकुल उस ही तरह से पार्टनर्स खोजते या देखते हैं जिस तरह हर कोई देखता है. कोई भी किसी के प्रति भी आकर्षित हो सकता है, लेकिन रिश्ता या संबंध तब ही बनता है जब दोनों तरफ से सहमति हो. इसलिए लेस्बियन के संबंध लेस्बियन के साथ ही होते हैं. क्यूंकि कोई हेट्रोसेक्शुअल लड़की लेस्बियन के प्रति तो आकर्षित होगी नहीं.
और ये मिथ है कि LGBTQI कम्युनिटी के लोग हर लड़का या लड़की में अपना पोटेंशियल पार्टनर ही खोजेंगे या उनके प्रति आकर्षित होंगे.
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