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क्या भारत में मंदी आने वाली है?

भारत की अर्थव्यवस्था 2016 के आस-पास धीमी पड़ने लगी थी, सरकार ने उसी वक्त नोटबंदी का ऐलान कर दिया.

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IMF

एक व्यक्ति थोड़ा बीमार था, कुछ कड़वी दवाइयां ली तो फायदे की जगह रिएक्शन हो गया. अगले ही साल डॉक्टर ने दूसरी दवा लेने का प्रिस्किप्शन दिया. दवा थी तो अच्छी लेकिन शरीर उसको तेजी से स्वीकार नहीं कर पा रहा था. थोड़ा वक्त लगा वो व्यक्ति ठीक होने लगा. जब ये समझ आने लगा कि अब तबीयत ठीक हो सकती है तो वो व्यक्ति घर से निकलने लगा. मगर जैसे ही वो घर से निकला बर्फ गिरने लग गई. ओले पड़ने लग गए.

कुछ सुनी सुनी कहानी लगती है क्या? नहीं?, अच्छा, कहानी में व्यक्ति को देश कर दीजिए. भारत की अर्थव्यवस्था 2016 के आस-पास धीमी पड़ने लगी थी, सरकार ने उसी वक्त नोटबंदी का ऐलान कर दिया. जानकारों ने उस वक्त कहा इस फैसले का देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा. सरकार ने काला धन के खात्मे समेत तमाम तर्क दिए,कड़वी दवाई कहा गया, लेकिन असर प्रतिकूल रहे. अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा. जीडीपी धड़ाम हो गई. अगले ही साल सरकार ने एक और बदलावकारी फैसला लिया. 2017 में GST लागू की गई. अचानक आई जीएसटी को समझने और बरतने में व्यापारियों को वक्त लग गया. नतीजा ये हुआ कि अर्थव्यवस्था और डामाडोल हुई. 2019 का लोकसभा चुनाव आया तो उस वक्त GDP ग्रोथ रेट 4% के पास थी. चुनाव राष्ट्रवाद की लहर पर हुआ. नतीजे बीजेपी के पक्ष में 2014 से भी बड़े थे. GST में सुधार हुए तो थोड़ा-थोड़ा अर्थव्यवस्था में भी सुधार नजर आने लगा. मालूम पड़ा कि अब सब ठीक हो जाएगा. तभी 2020 के शुरुआत में पूरी दुनिया  में कोरोना की महामारी छा गई. 2020-21 के साल ने दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को चौपट कर दिया, हिंदुस्तान भी उससे अछूता नहीं रहा. कोरोना का दौर गया तो सरकार की तरफ दावा किया गया कि अब V शेप में रिकवरी होगी. विश्व की तमाम संस्थाओं ने भी ऐसा ही अनुमान लगाया. लेकिन रुस-यूक्रेन युद्ध के बाद चीजें हाथ से फिर फिसलने लग गई. भारतीय अर्थव्यवस्था को उस व्यक्ति की तरह समझिए और कोविड के बाद रुस-यूक्रेन युद्ध को आप बर्फ और ओले की तरह समझिए.

कुल मिलाकर स्थिति चिंताजनक इसलिए है क्योंकि अब IMF यानी इंटनेशनल मॉनेटरी फंड ने वैश्विक मंदी की आशंका जता दी है. IMF ने कहा है कि अगले सप्ताह वो साल 2023 के लिए ग्लोबल ग्रोथ का अनुमान घटाकर 2.9 फीसदी करने जा रहा है. IMF की  मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने कहा- दुनियाभर में मंदी का खतरा बढ़ रहा है और इसी वजह से दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाएं पहले के मुकाबले कम तेज रफ्तार से तरक्की करेंगी, दुनिया की सभी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं फिर चाहें यूरोप हो या चीन या अमेरिका, सभी देशों की ग्रोथ धीमी पड़ रही है. इसकी पीछे की वजह ये है कि कि लोगों की रियल टाइम इनकम घट रही है और रोजमर्रा के सामानों को कीमत तेजी से आसमान छू रही हैं. IMF ने  ये भी कहा कि अब से लेकर 2026 तक वैश्विक उत्पादन में करीब 4 लाख करोड़ डॉलर की कमी का अनुमान है. ऐसा हुआ तो पूरी दुनिया के लिए बड़ा झटका होगा क्योंकि ये आंकड़ा दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की कुल GDP के बराबर है. अब हो सकता है आप कहें कि दुनिया में कुछ होता है तो उससे अपन को क्या. तो जरा रुक कर अपने देश के नेताओं के बयानों को स्मरण में लाइए. जब भी सत्ताधारी नेताओं ने खराब अर्थव्यवस्था, महंगाई या रुपये के गिरने पर सवाल पूछा जाता है तो कहते हैं रुस-यूक्रेन युद्ध की वजह से हुआ. दो देश आपस में लड़े तो असर आपके देश पर हुआ. दुनिया में मंदी आई तो हमारा देश कैसे अछूता रह पाएगा? कुछ ना कुछ असर तो होगा ही. 

1. एक तो करेला, दूसरा नीम चढ़ा. स्थिति कुछ ऐसी ही है. मंदी की आहट से भारत के लिए परेशान होने की 3 वजहें हैं. 1. 6 अक्टूबर को  World Bank ने कहा कि  चालू वित्त वर्ष यानी 2022-23 में भारत की जीडीपी ग्रोथ रेट 6.5 फीसदी रहने वाली है. इससे पहले  जून में World Bank ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान 7.5 फीसदी जताया था. यानी World Bank ने भारत के भी आर्थिक विकास दर के अनुमान को 1 फीसदी तक घटा दिया है.
2. भारत के रुपये का लगातार टूटना. अब डॉलर के मुकाबले जब भी रुपये का जिक्र आता है तो बात ऑल टाइम लो या फिर रिकॉर्ड निचले स्तर की बात होती है. आज भी रुपया गिरकर एक डॉलर के मुकाबला 82 की संख्या को पार गया.
3. रुपया कमजोर होगा तो बाजार में महंगाई आएगी. क्योंकि भारत अपनी जरूरत का ईंधन से लेकर ज्यादातर सामान दूसरे देशों से खरीदता है. डॉलर महंगा होगा तो ज्यादा पैसे देने होंगे. जिससे महंगाई बढ़ेगी. महंगाई अकेले नहीं बढ़ती वो साथ-साथ गरीबी को भी बढ़ाती है. विश्व बैंक ने इससे संबंधित आंकड़े भी एक दिन पहले ही जारी किया. बताया कि 2020 के साल में दुनियाभर के 7 करोड़ लोग गरीब हो गए. चौंकाने वाली बात ये थी कि दुनिया में बढ़ी हुई गरीबों 7 करोड़ की संख्या में अकेले भारत से 5.6 करोड़ है.

विश्व बैंक ने ये भी साफ किया है कि साल 2011 के बाद भारत सरकार ने गरीबी से जुड़े आंकड़े देना बंद कर दिया, उन्होंने जो आंकड़े जारी किए हैं वो सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी यानी CMIE की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों के आधार पर जारी किए. इन खांकों में बांध कर भारतीय अर्थव्यवस्था को देखें तो जानकारों का मानना है कि अगले 3-4 महीने काफी महत्वपूर्ण है. उम्मीद की जा रही है कि त्योहारों के सीजन में बाजार में थोड़ी तेजी आ सकती है. लेकिन दिक्कत ये हो रही है कि पहली बात लोगों के हाथ में पैसा नहीं है, दूसरा चीजें बहुत मंहगी.

कुछ लोग कह सकते हैं कि ऑनलाइन साइट्स पर तो खूब खरीददारी हो रही है तो जानकारी के लिए बता दें, भारतीय रीटेल बाजार का सिर्फ 5% हिस्सा ही ऑनलाइन है. आज भी 95% रीटेल आम बाजारों पर निर्भर कर रहे हैं. देश में सबसे बड़ा उपभोक्ता कौन है? लो इनकम वर्ग. जो 15 से 35 हजार रुपये महीना कमाते हैं. त्योहारों के सीजन में 3 सेक्टर में सबसे ज्यादा खरीददारी होती है. इलेक्ट्रॉनिक, ऑटोमोबिल और गोल्ड. ऐसा नहीं है कि बाजार से गाड़ियां नहीं खरीदी जा रही हैं. बड़ी गाड़ियां अब भी खरीदी जा रही हैं, लेकिन लो इनकम वाली वो मास डिमांड नजर नहीं आ रही. जो छोटी कारें, सस्ती बाइकें खरीदते हैं. ऑटोमोबिल सेक्टर कोरोना काल से ही जूझ रहा है, जो अब तक जारी है. सितंबर महीने में कई जगहों पर सेल लगी. 2020 और 21 के मुकाबले ज्यादा गाड़ियां बिकी. मगर 2019 यानी कोरोना काल के पहले जैसी बेहतर स्थिति 3 साल बाद भी नहीं हो पाई है. 2019 से तुलना करें तो सितंबर में लगी सेल के बावजूद 4% कम गाड़ियां बिकी. फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलस एसोसिएशन के मुताबिक टू व्हीलर की बिक्री में 14 प्रतिशत, थ्री व्हीलर की बिक्री में 39 प्रतिशत और लोडिंग व्हीकल की बिक्री में 17 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है. जो अच्छे संकेत नहीं हैं. आम तौर पर मंदी की स्थिति में चीजें सस्ती हो जाती हैं, मगर इस बार वस्तुएँ सस्ती भी नहीं हो रही है. ऐसी स्थिति में होगा क्या ? लोगों को क्या करना चाहिए ? 

जानकार बताते हैं कि मंदी आने पर सबसे पहले नौकरियां जाने का खतरा होगा, कंपनियों में छटनी शुरू हो जाएगी. दावा था कि V शेप यानी फॉर्मल और इनफॉर्मल सेक्टर दोनों से तरह से ग्रोथ होगी, जबकि ऐसा हो नहीं रहा है. जानकार कहते हैं अभी जो ग्रोथ है वो K शेप की है. मतलब फॉर्मल यानी संगठित क्षेत्र तो धीरे-धीरे बढ़ रहा है लेकिन असंगठित क्षेत्र लगातार नीचे जा रहा है.हाल ही में रिजर्व बैंक गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी मौद्रिक नीति की समीक्षा में चालू वित्त वर्ष के लिए ग्रोथ रेट अनुमान को 7.2 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी कर दिया था. मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने हाल ही में कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था सात प्रतिशत की दर से बढ़ेगी. जबकि इसी साल जनवरी के आखिर में संसद में पेश आर्थिक समीक्षा में वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान आर्थिक वृद्धि दर 8 से 8.5 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया था. आप इसी से समझ सकते हैं कि लगातार अनुमान घटाए जा रहे हैं. RBI लगातार रेपो रेट बढ़ाकर महंगाई कम करने और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की कोशिशें कर रहा है, लेकिन कोशिशें अब तक उतनी कारगर नहीं हुई हैं, जितनी हो जानी थी. इस पर जानकार क्या सोचते हैं.
लोगों के साथ असल दिक्कत ये भी हो रही है कि अगर इनकम बढ़े तो वो महंगाई को झेल भी लें. मगर ऐसा हुआ नहीं है. जब भी किसी देश की अर्थव्यवस्था तेजी से ग्रो करती है तो उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है. ज्यादा रोजगार पैदा होते हैं. लेकिन अगर जीडीपी घटती है तो उद्योगों का पहिया थमने लगता है. लोग डर के चलते कम खर्च करने लगते हैं. बेरोजगारी का खतरा बढ़ जाता है. भारत के लिए सबसे चिंता की बात यही है. दूसरी टेंशन रुपये की कमजोरी बढ़ा रहा है. कमजोर रुपया आपको हर तरफ से मारता है. लोगों को भले ही लगता हो कि रुपया कमजोर मजबूर होने से उन्हें फर्क नहीं पड़ता. मगर सच्चाई ये है कि इसका असर देश के हर इंसान की जेब पर पड़ता है. कोयला, तेल, गैस, एनर्जी सबकुछ इंपोर्ट करता है. जो डॉलर में खरीदा जाता है, डॉलर के मुकाबले ज्यादा रुपया देना होगा तो चीजें महंगी हो जाएंगी. जिसका असर आप पर होगा. बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है. भारत में डॉलर की आमद भी कम हो गई है.
क्योंकि भारत का एक्सपोर्ट कम हो गया है. मतलब ये कि जो सामान भारत दूसरे देशों के बेच रहा था उसमें कमी आई है.

सितंबर महीने में भारत ने 33.81 अरब डॉलर का सामाना एक्सपोर्ट किया. जबकि ये अक्टूबर में ये घटकर 32.62 अरब डॉलर पर आ गया. इस कमी को आप ऐसे तौलिए कि मार्च में भारत 90 अरब डॉलर का सामान बेच रहा था. मात्र 4 महीने में 2 तिहाई नुकसान हो गया है. जिसकी वजह से भारत का फॉरेक्स रिजर्व भी कम हो गया है. मार्च महीने में भारत के पास 15 महीने का फॉरेक्स रिजर्व था, अब सिर्फ 9 महीने का ही मचा है. इन सबके पीछे की एक बड़ी वजह रुपये का कमजोर होना है. ये स्थिति चिंताजनक क्यों है?

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