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राहुल की सांसदी जाने की पूरी कहानी, इंदिरा गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था

23 मार्च को जब राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि के मामले में 2 साल की सज़ा सुनाई गई

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सांकेतिक फोटो (साभार: आजतक)

23 मार्च को जब राहुल गांधी को आपराधिक मानहानि के मामले में 2 साल की सज़ा सुनाई गई, तो किसी को लगा नहीं था कि उनकी सांसदी पर आंच आएगी. कारण - ट्रायल कोर्ट ने स्वयं सज़ा के अमल को 30 दिनों के लिये निलंबित कर दिया था. और उन्हें 10 हज़ार के बॉन्ड पर बेल भी दे दी थी. सब ये मानकर चल रहे थे कि राहुल के वकील ऊपरी अदालतों में अपील करेंगे और उन्हें वहां से राहत मिल जाएगी, क्योंकि मानहानि के मामले में इतनी लंबी सज़ा की मिसाल कम ही मिलती है. लेकिन ये खुशफहमी 24 मार्च की दोपहर को हवा हो गई. और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत राहुल गांधी की सांसदी वाकई चली गई, ठीक उसी दिन, जब 14 विपक्षी पार्टियां केंद्र की शिकायत लेकर सुप्रीम कोर्ट गईं, कि उनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है.

एक सांसद या विधायक हज़ारों-लाखों लोगों के वोट से निर्वाचित होता है. इसीलिए उसपर कार्रवाई दो कसौटियों पर खरी उतरे, ये बहुत ज़रूरी है -
> पहली है कानून के अमल में तकनीकी बारीकियां.
> दूसरी और ज़्यादा अहम पक्ष है कानून की मंशा.
आइए जानते हैं आज जो हुआ, वो इन दो बिंदुओं के हिसाब से कहां ठहरता है. 

राहुल का क्या होगा, इसपर राय 23 मार्च को बंटी हुई थी. अंग्रेज़ी अखबार ''द हिंदू'' से बात करते हुए लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल पी.डी.टी. आचारी ने कहा था,

''अयोग्यता का सीधा संबंध सज़ा से है. और चूंकि सूरत की अदालत ने सज़ा को 30 दिनों के लिए निलंबित किया है, अयोग्यता का फैसला भी कुछ दिनों बाद होगा.''

लेकिन इसी अखबार से बात करते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा,

''न्यायालय ने सज़ा को निलंबित किया है. लेकिन राहुल पर दोष तो सिद्ध है ही. माने कंविक्शन बना हुआ है. जनप्रतिनिधित्व कानून और लिलि थॉमस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस कानून की व्याख्या यही कहती है कि अयोग्यता ऑटोमैटिक है. माने संबंधित प्रतिनिधि कोर्ट का फैसला आते ही अयोग्य हो जाता है. ‘’

ऐसे ही मतांतर के चलते कांग्रेस उम्मीद कर रही थी कि सदस्यता पर कोई फौरी खतरा नहीं है. फिर कानूनी बारीकियां भी थीं. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 की धारा 8(3) ये तो कहती है कि 2 साल की सज़ा पाए प्रतिनिधि सज़ा सुनाए जाने की तारीख से अयोग्य घोषित हो जाएंगे. लेकिन अयोग्यता की आधिकारिक घोषणा तभी होती है, जब संसद की एथिक्स कमेटी ऐसा फैसला ले. इसके बाद संसद के बुलेटिन में ये जानकारी छापी जाती है. फिर लोकसभा सचिवालय ऐलान करता है कि संबंधित सीट खाली हो गई है. इसी के बाद चुनाव आयोग सीट पर पुनः चुनाव की घोषणा कर सकता है.

कहने को ये औपचारिकताएं हैं. लेकिन ऐसे मामले, जहां न्यायपालिका, विधायिका और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के बीच समन्वय की ज़रूरत हो, वहां औपचारिकताओं का बड़ा महत्व होता है. सरकार का कहना यही है कि जो हुआ, वो बिलकुल नियमों के तहत हुआ. अगर किसी को समस्या है, तो वो पहले ये बताए कि नियम टूटा कहां.

राजनीति के विद्यार्थी याद कर रहे हैं कि कैसे इन्हीं औपचारिकताओं के तहत कभी राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी की सदस्यता गई थी. और उनकी मां सोनिया गांधी की सदस्यता पर खतरा आया, तो उन्होंने स्वयं इस्तीफा दे दिया था. आइए इतिहास के पन्ने पलटते हैं.

तारीख 12 जून 1975. प्रधानमंत्री आवास के एक कमरे में दो टेलीप्रिंटर खड़खड़ा रहे थे. इंदिरा गांधी के सबसे वरिष्ठ निजी सचिव एन कृष्ण अय्यर शेषन एक मशीन से दूसरी मशीन की ओर भाग रहे थे. उस पूरे कमरे में एक भयानक चुप्पी थी क्योंकि एक बड़ी खबर का इंतजार था. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा एक याचिका पर अपना फैसला सुनाने वाले थे. ये याचिका विपक्ष के नेता राजनारायण ने 1971  के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के निर्वाचन के खिलाफ दाखिल की थी. उधर इलाहाबाद हाईकोर्ट के खचाखच भरे कमरा नंबर 24 में पेशकार की आवाज आई - 

'महानुभाव ध्यान से सुनिए, जज साहब जब राजनारायण की याचिक पर फैसला सुनाएंगे, तब ताली नहीं बजनी चाहिए.'

थोड़ी देर बाद 258 पेज के फैसले के साथ जस्टिस सिन्हा कोर्टरूम में आए. उन्होंने कहा,

'मैं इस केस से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर केवल अपने निष्कर्षों को पढ़ूंगा.  याचिका स्वीकार की जाती है.'

एक पल के लिए सन्नाटा छा गया. अखबार वाले टेलीफोन की तरफ भागे और खुभिया विभाग के लोग अपने दफ्तरों की तरफ. ठीक सुबह के 10 बजकर 2 मिनट पर दिल्ली की फैक्स मशीन ने 3 शब्द उगले - श्रीमती गांधी अपदस्थ.

इंदिरा की सदस्यता गई. और 6 साल तक चुनाव लड़ने पर भी रोक लग गई. जस्टिस सिन्हा ने उन्हें दो आचरणों पर दोषी ठहराया था. पहला दोष ये कि उन्होंने प्रधानमंत्री सचिवालय के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी - यशपाल कपूर की मदद ली. कोर्ट ने कहा- एक सरकारी अधिकारी के नाते उनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए था, भले ही कपूर ने श्रीमती गांधी के लिए चुनाव प्रचार 7 जनवरी को शुरू किया और अपना इस्तीफा 13 जनवरी को दिया. मगर वो 25 जनवरी तक पद पर बने रहे थे. कोर्ट के मुताबिक दूसरी अनिमितता ये थी, कि श्रीमती गांधी ने जिन मंचों से चुनावी रैलियों को संबोधित किया, उन्हें बनाने में यूपी के अधिकारियों की मदद ली गई, लाउडस्पीकर और बिजली का बंदोबस्त उन्हीं अधिकारियों ने किया.

इस पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट इनफ में लिखा- इंदिरा गांधी ने राजनारायण को 1 लाख ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था, वास्तव में ये अनिमितताएं वैसी नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो. ये आरोप एक प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे.  ये वैसा ही था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए.

टिप्पणीकार चाहे जो भी कहें, हाईकोर्ट का फैसला तो सुप्रीम कोर्ट में ही चैलेंज किया जा सकता था. लोग ये मान भी रहे थे कि हाईकोर्ट का फैसला, सुप्रीम कोर्ट में पलट जाएगा. इस मुद्दे पर अभी प्रधानमंत्री गांधी अपने करीबी सिद्धार्थ शंकर रे और कानून मंत्री हरि रामचंद्र गोखले से चर्चा कर रही रहीं थीं, तभी एक और फ्लैश आया, जिसके मुताबिक सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिनों की रोक लगा दी थी. सबको थोड़ी तसल्ली हुई, इंदिरा गांधी को तत्काल इस्तीफा नहीं देना पड़ा.

उन दिनों सुप्रीम कोर्ट में छुट्टी थी तो मामला अवकाशकालीन बेंच में जस्टिस कृष्णा अय्यर के पास पहुंचा. उन्होंने अपने फैसले में कहा कि अपील का फैसला होने तक इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं, लेकिन सदन में मदतान नहीं कर सकती हैं. इसके आगे जो हुआ वो इतिहास में दर्ज है - इमरजेंसी

लेकिन इंदिरा की सदस्यता जाने का ये इकलौता उदाहरण नहीं है. जी हां, उनकी सदस्यता, एक बार कोर्ट से रद्द हुई तो दूसरी बार 1978 में संसद से. हुआ ये, कि 1977 में इंदिरा ने चुनावों का ऐलान किया, जिसमें उनकी करारी हार हुई. सबसे चौंका देने वाला नतीजा उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से आया, जहां इंदिरा गांधी को राज नारायण ने हरा दिया था. तो 1978 में इंदिरा गांधी ने  कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट से उपचुनाव लड़ा और बड़े अंतर से जीतकर संसद पहुंची.

देश में जनता पार्टी की सरकार थी, नई सरकार में इंदिरा गांधी के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग उठी. सरकार पर दबाव था कि आपातकाल लगाने के लिए इंदिरा गांधी को सबक सिखाया जाए. उनपर आरोप लगा कि उन्होंने चुनाव का प्रचार करने में भ्रष्टाचार किया. प्रचार के लिए 100 जीपें खरीदी गईं और खरीदारी का पैसा कांग्रेस पार्टी का नहीं था. उसमें सरकारी और उद्योगपतियों से लिए गए पैसे का इस्तेमाल किया गया. तब 14 दिसंबर 1978 को इंदिरा गांधी को लोकसभा से निष्काति करने का प्रस्ताव मोरारजी की सरकार ने पास कराया.

निष्कासन के साथ ही गिरफ्तार किए जाने का भी प्रस्ताव पारित किया गया था. सो CBI ने इंदिरा गांधी को संसद भवन से गिरफ्तार किया और 7 दिन तक तिहाड़ जेल में रखा. एक महीने पहले ही इंदिरा गांधी उपचुनाव जीतकर आईं थी, और दूसरी बार संसद से बाहर हो गईं. बड़ा राजनैतिक तमाशा हुआ लेकिन अंततः 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की सत्ता में जबरदस्त वापसी हुई.

गांधी परिवार में संसद की सदस्यता जाने का एक उदाहरण सोनिया गांधी का भी है. 2004 में सोनिया गांधी रायबरेली से चुनकर आईं.  इसके साथ ही वो यूपीए सरकार के समय गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की चेयरमैन भी थीं, जिसे संविधान के अनुच्छेद 102 (1) A के तहत लाभ का पद करार दिया गया था. इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 191 (1) (A) और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (A) के तहत भी सांसदों और विधायकों को अन्य पद लेने से रोकने का प्रावधान है. जब ये साफ हो गया कि कार्रवाई होकर रहेगी, तो अयोग्यता की कार्रवाई से बचने के लिए सोनिया ने स्वयं इस्तीफा दे दिया. जिसके बाद उन्होंने रायबरेली से दोबारा चुनाव लड़ा.  

अब गांधी परिवार में तीसरी पीढ़ी के सदस्य पर अयोग्यता की कार्रवाई हो रही है. सो कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां हमलावर हैं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पीएम मोदी पर हमला बोलते हुए एक के बाद एक कई ट्वीट किए. उन्होंने लिखा-

'नरेंद्र मोदी जी आपके चमचों ने एक शहीद प्रधानमंत्री के बेटे को देशद्रोही, मीर जाफ़र कहा. आपके एक मुख्यमंत्री ने सवाल उठाया कि राहुल गांधी का पिता कौन है? कश्मीरी पंडितों के रिवाज निभाते हुए एक बेटा पिता की मृत्यु के बाद पगड़ी पहनता है, अपने परिवार की परंपरा क़ायम रखता है. भरी संसद में आपने पूरे परिवार और कश्मीरी पंडित समाज का अपमान करते हुए पूछा कि वह नेहरू नाम क्यों नहीं रखते. लेकिन आपको किसी जज ने दो साल की सज़ा नहीं दी. आपको संसद से डिस्क्वालिफाई नहीं किया. राहुल जी ने एक सच्चे देशभक्त की तरह अडानी की लूट पर सवाल उठाया. नीरव मोदी और मेहुल चौकसी पर सवाल उठाया. क्या आपका मित्र गौतम अडानी देश की संसद और भारत की महान जनता से बड़ा हो गया है कि उसकी लूट पर सवाल उठा तो आप बौखला गए?'

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पीएम मोदी पर हमला बोलते हुए एक के बाद एक कई ट्वीट किए.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी बयान जारी किया. खरगे ने कहा, 

'राहुल गांधी के मामले में जिस बिजली की तेजी से कार्रवाई हुई है, इससे साफ है कि वो राहुल गांधी से कितना डरते हैं. चुनाव में मोदी जी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को क्या-क्या नहीं बोला! सदन में भी नेहरू सरनेम पर टिप्पणी की. राहुल गांधी ने तो नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या के लिए बोला. उनको पकड़ने की बजाय, सच्चाई बोलने वाले राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म कर दी जाती है.'

एक और बात देखने को मिली. बीते दिनों कांग्रेस के इर्द-गिर्द दूसरी विपक्षी पार्टियां खड़े होने में असहज सी नज़र आ रही थीं. लेकिन आज उन दलों ने भी कांग्रेस का पक्ष लिया.  
अरविंद केजरीवाल, सीएम, दिल्ली और मनोज झा, RJD सांसद>

आम आदमी पार्टी की ओर से केजरीवाल ने बयान दिया, तो सांसद राघव चड्ढा ने ट्वीट करके बताया, कि वो आपराधिका मानहानि के कानून के खिलाफ एक बिल लाएंगे. विपक्ष की बात हो रही है तो आपको इस तस्वीर की याद भी दिला देते हैं. 

जब 17 मार्च को समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव प.बंगाल की सीएम ममता बनर्जी से मिलने पहुंचे थे. इस मुलाकात को 2024 के आम चुनाव से पहले गैर कांग्रेसी मोर्चा बनाने की कवायद के तौर पर देखा गया. फिर 19 मार्च को ममता बनर्जी राहुल गांधी पर तंज कसते हुए राहुल गांधी को पीएम मोदी की सबसे बड़ी 'टीआरपी' बताती हैं. ममता के इस बयान का समर्थन करते हुए अखिलेश कहते हैं कि 'BJP की हमेशा कोशिश रहती है कि उनके सामने कोई मजबूत विपक्ष ना हो. अगर कांग्रेस कमजोर ना होती तो देश में बीजेपी ना होती.' लेकिन आज राहुल गांधी की संसद सदस्यता के मुद्दे पर दोनों ने राहुल के समर्थन में बीजेपी को घेरा. ममता बनर्जी ने ट्वीट में लिखा -

'पीएम मोदी के न्यू इंडिया में बीजेपी के निशाने पर विपक्षी नेता! जबकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले भाजपा नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता है, विपक्षी नेताओं को उनके भाषणों के लिए अयोग्य ठहराया जाता है। आज, हमने अपने संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक नया निम्न स्तर देखा है'

अखिलेश ने कहा,

'उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने कई सपा नेताओं की सदस्यता छीन ली. आज कांग्रेस के सबसे बड़े नेता की सदस्यता ले ली गई. अगर हम चीजों को ऐसे ही देखें तो कई बीजेपी सदस्य भी अयोग्य करार दिए जा सकते हैं. अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो कई बीजेपी नेता भी अपने भाषणों-टिप्पणियों के लिए आयोग करार दिए जाएंगे. यह जानबूझकर किया गया है ताकि लोगों का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी, उद्योगपति मित्रों द्वारा भारत के डुबोए गए पैसों से ध्यान भटकाया जा सके. वे इन मुद्दों पर चर्चा नहीं करना चाहते हैं.'

सारे विपक्षी बढ़ राहुल के रिएक्शन का इंतजार शाम 05 बजकर 27 मिनट पर खत्म हुआ. उन्होंने ट्वीट कर लिखा-

'मैं भारत की आवाज़ के लिए लड़ रहा हूं. मैं हर कीमत चुकाने को तैयार हूं.'

चौतरफा हमला हो रहा था, तो भाजपा की ओर से जवाब भी आया -
सीएम शिवराज ने कहा- 

'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा. जो जैसा करता है, उसको वैसी ही परिणाम भुगतना पड़ता है. राहुल गांधी ने जो किया, उनको वैसी ही फल भुगतना होगा.'

बयानों के बाद अब चलते हैं मामले के दूसरे पक्षों पर. जो होना था, वो तो हो चुका. लेकिन क्या अब भी कोई रास्ता बाकी है? इस सवाल के जवाब में लोग लक्षद्वीप के सांसद हैं मोहम्मद फैज़ल का नाम आगे कर रहे हैं. पार्टी - राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी NCP.  इनपर अपने रिश्तेदार मोहम्मद सालिह पर जानलेवा हमला करने का आरोप लगा.  पांच साल मामला चला और 11 जनवरी 2023 को कावारात्ति के ज़िला एवं सत्र न्यायालय ने फैज़ल को दोषी पाते हुए 10 साल की सज़ा सुनाई और 1 लाख का जुर्माना भी लगाया. ज़ाहिर था, सांसदी खतरे में थी और 13 जनवरी 2023 को लोकसभा की एथिक्स कमेटी ने फैज़ल की लोकसभा सदस्यता रद्द करने का फैसला ले भी लिया. 18जनवरी को केंद्रीय चुनाव आयोग ने देश की और सीटों समेत लक्षद्वीप के लिए भी उपचुनावों की घोषणा कर दी. मतदान का दिन मुकर्रर हुआ 27 फरवरी.

लेकिन 25 जनवरी को फैज़ल केरल उच्च न्यायालय से राहत ले आए. अदालत ने उनकी सज़ा तो रोक लगाई ही, उन्हें दोषी करार देने वाले सत्र न्यायालय के फैसले को भी निलंबित कर दिया. माने कंविक्शन और सेंटेंसिंग, दोनों सस्पेंड हो गये. इसके बाद फैज़ल अपनी सीट पर उपचुनाव रद्द करवाने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की अधिसूचना पर रोक लगा दी. और 30 जनवरी के रोज़ एक बयान जारी करके चुनाव आयोग ने लक्षद्वीप उपचुनाव को अगले आदेश तक रोक दिया.इसके बाद केंद्रीय विधि मंत्रालय ने मोहम्मद फैज़ल की सदस्यता बहाल करने की आधिकारिक अनुशंसा जारी की.

बावजूद इस सबके, उनकी सदस्यता नहीं लौटी. लोकसभा की आधिकारिक वेबसाइट पर आप 17 वीं लोकसभा की रिक्त सीटों वाला टैब दबाएंगे, तो आपको जालंधर के साथ-साथ लक्षद्वीप भी नज़र आएगी. फैज़ल इस बात से बड़े नाराज़ हैं. उन्होंने आज समाचार एजेंसी PTI से कहा भी,

'लोकसभा सचिवालय हमें अयोग्य ठहराने में तो झट-पट फैसला लेता है. लेकिन जब सदस्यता बहाल करने की बारी आती है, तो ढीला पड़ जाता है. जबकि विधि मंत्रालय अपनी राय साफ कर चुका है. मैं जब भी सचिवालय से अपने केस के बारे में पूछता हूं, वो यही कहते हैं कि जल्द आदेश आ जाएगा. लेकिन वो तकरीबन दो महीने से फाइल पर बैठे हुए हैं. अब मेरे पास अदालत का दरवाज़ा खटखटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.'

जैसा कि हमने कुछ देर पहले कहा था, किसी भी कार्रवाई को वैध तभी माना जाएगा, जब कानून और कानून की मंशा का पालन होगा. क्या राहुल के मामले में ये हुआ, इसका फैसला आपको, माने जनता जनार्दन को करना है. हमने आपके सामने सारे तथ्य रख दिए हैं.

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