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एडसमेटा मुठभेड़: सुरक्षाबलों ने बस 'घबराहट में' बेकसूर आदिवासियों​ को मार डाला था!

न्यायिक जांच रिपोर्ट से सीआरपीएफ के काम करने के तरीके पर फिर सवाल खड़ा हुआ है.

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सुरक्षाबलों ने माओवादी समझ कर ग्रामीणों पर गोली चला दी थी. (फोटो-सांकेतिक)
छत्तीसगढ़ का बीजापुर जिला. यहां 17-18 मई 2013 की दरम्यानी रात एक मुठभेड़ हुई थी. इसमें सुरक्षाबलों ने सात कथित माओवादियों को मार गिराने का दावा किया था. लेकिन नौ साल बाद आई इस मामले की न्यायिक जांच रिपोर्ट ना सिर्फ इस दावे को खारिज करती है, बल्कि सुरक्षाबलों के काम करने के तरीके और कमियों को भी उजागर करती है. रिपोर्ट के मुताबिक उन सात लोगों के माओवादी होने का कोई सबूत नहीं मिला है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सोमवार 14 मार्च को ये रिपोर्ट राज्य विधानसभा में पेश की. इसमें जांच समिति ने कहा है कि इस दावे का कोई प्रमाण नहीं है कि नौ साल पहले हुई मुठभेड़ में मारे गए लोग माओवादी थे. समिति ने कहा कि ऐसा हो सकता है कि सुरक्षाबलों ने घबराहट में निहत्थे लोगों की भीड़ पर गोलियां चलाई थीं. ये भी बताया गया है कि मुठभेड़ में मारे गए एक जवान की मौत संभवत: उसके ही दल के सदस्य की गोली लगने से हुई थी.

क्या है एडसमेटा मुठभेड़?

ये घटना बीजापुर जिले के एडसमेटा गांव में हुई थी. उस रात आदिवासी समुदाय के 25-30 सदस्य ‘बीज पंडुम’ मनाने के लिए एकत्र हुए थे. इस त्योहार में बीज के रूप में नए जीवन की पूजा की जाती है. आदिवासी ये त्योहार मना ही रहे थे कि तभी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की कमांडो यूनिट बटालियन फॉर रेजोल्यूट एक्शन (कोबरा) का एक समूह घटनास्थल पर पहुंचा और सभा पर ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं. इस हिंसा में एक सीआरपीएफ जवान समेत आठ लोग मारे गए थे. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक घटना के अगले दिन तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक सदस्यीय न्यायिक समिति गठित की थी. इसकी जिम्मेदारी हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज वीके अग्रवाल को दी गई थी. उन्होंने पिछले साल सितंबर महीने में राज्य सरकार को ये रिपोर्ट सौंप दी थी. आठ सितंबर 2021 को इसे राज्य मंत्री परिषद के सामने रखा गया था. और अब इसे विधानसभा में पेश कर दिया गया है.

'आत्मरक्षा में' गोली चलाई

भूपेश बघेल द्वारा सदन में रखी गई रिपोर्ट में कहा गया है,
'सुरक्षाबलों ने आग के आसपास कुछ लोगों को देखा था. पहले ये कहा गया कि जवानों को संभवत: ये लगा कि वे माओवादी हैं, इसलिए उन्होंने आत्मरक्षा में गोली चलाई. जबकि पहले बताया जा चुका है कि इन लोगों से सुरक्षाबलों को कोई खतरा नहीं था. ये साबित नहीं हो पाया है कि उस जगह पर जो लोग इकट्ठा हुए थे, उन्होंने सीआरपीएफ पर कोई हमला करने की कोशिश की थी.
इसलिए सुरक्षाबलों द्वारा आत्मरक्षा में गोली नहीं चलाई गई थी, बल्कि ये संभवत: घबराहट में की गई कार्रवाई थी. अगर सीआरपीएफ के पास प्रभावी गैजेट्स होते और उन्हें खुफिया जानकारी मुहैया कराई गई होती तो इस फायरिंग से बचा जा सकता था.'
रिपोर्ट के मुताबिक इसकी पूरी संभावना है कि कोबरा कमांडो देव प्रकाश की मौत उनके ही दल के सदस्य की गोली लगने से हुई. इसके अलावा रिपोर्ट में स्थानीय पुलिस द्वारा घटना की जांच के संबंध में की गई चूक की ओर भी इशारा किया गया है.

क्या हैं समिति की सिफारिशें?

जस्टिस अग्रवाल समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षाबलों की और बेहतर ट्रेनिंग कराई जाए ताकि वे क्षेत्र की सामाजिक, भौगोलिक और धार्मिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कदम उठा सकें. उन्होंने कहा कि खुफिया सूचना की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है और सुरक्षाबलों को बुलेट प्रूफ जैकेट, नाइट विजन डिवाइसेस जैसी अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस किया जाना चाहिए ताकि उनमें आत्मविश्वास आए और वे घबराहट में कोई कार्रवाई न करें. राज्य सरकार ने आयोग की सिफारिशों पर एक कार्रवाई रिपोर्ट भी पेश की है. इसमें कहा गया है कि सरकार स्थानीय खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है और भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने के लिए एक काउंटर-इंटेलिजेंस सेल की स्थापना की जाएगी.

पहले भी हुई है बेकसूरों की मौत

छत्तीसगढ़ राज्य करीब चार दशकों से माओवाद से प्रभावित रहा है. यहां बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और नारायणपुर जिलों में माओवादियों की मौजूदगी ज्यादा है. इसके चलते स्थानीय निवासियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इनमें ऐसी मुठभेड़ें भी शामिल हैं जिनमें माओवादी के नाम पर जाने-अनजाने निर्दोष आदिवासियों को मार दिया गया. एडसमेटा की घटना इसका उदाहरण है. इस केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी मई 2019 में सीबीआई जांच का आदेश दिया था. 2012 में बीजापुर में भी ऐसी ही घटना देखने को मिली थी. उस मामले में भी निष्कर्ष यही निकला था कि सुरक्षाबलों ने मनमाने ढंग से ग्रामीणों पर गोलियां चलाई थीं जिससे 17 निर्दोष लोगों की मौत हो गई थी. ये जांच भी वीके अग्रवाल समिति ने ही की थी. ये रिपोर्ट दिसंबर, 2019 में सरकार को सौंप दी गई थी. इसमें बताया गया था कि सुरक्षाबलों के हाथों मरने वालों में से कोई भी माओवादी नहीं था. हालांकि सरकेगुड़ा की घटना पर सेवानिवृत्त जस्टिस वीके अग्रवाल की रिपोर्ट अभी भी राज्य के कानून विभाग के पास लंबित है. इसमें भी सुरक्षाकर्मियों पर ही आरोप लगाया गया था. बता दें कि एडसमेटा की तरह सरकेगुड़ा के लोग भी जून 2012 में बीज पंडुम पर्व के लिए एकत्र हुए थे, जब सुरक्षाबलों ने नाबालिगों सहित कई लोगों को मार दिया था.