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महाराष्ट्र में अब किसे गेम करने का मौका मिल गया?

उद्धव ठाकरे या एकनाथ शिंदे, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से किसे फायदा? क्या है शरद पवार की योजना?

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उद्धव ठाकरे या एकनाथ शिंदे, सुप्रीम कोर्ट के आदेश से किसे फायदा? (फोटो- इंडिया टुडे)

आज यूपी के उपचुनाव नतीजों का विश्लेषण करेंगे, प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की खबर भी देंगे. खबरें कई और भी हैं. मगर पहले बात महाराष्ट्र की. यूं तो जून के महीने में मानसून मुंबई तक दस्तक देने लगता है. तापमान 25 डिग्री से 32 डिग्री के बीच रहता है. कई का दिल करता है, मुंबई जाएं, जूहू चौपाटी पर पिकनिक मनाएं. मगर कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें बार-बार बुलाने पर भी जाने का मन नहीं कर रहा है. मेरी मुस्कान के साथ इशारा तो आप समझ ही गए होंगे. संजय राउत का ट्वीट भी याद आया होगा. कब तक छिपोगे गुहाटी में, कभी तो आओगे चौपाटी में. मगर बागी विधायक हैं कि मानने को तैयार नहीं. मसला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है. 

गुवाहाटी से लेकर चौपाटी तक चर्चा यही है कि महाराष्ट्र में आगे क्या होगा? चौपाटी का मतलब होता है चारों तरफ समतल जमीन. आम तौर पर समंदर के किनारे की जमीन के लिए चौपाटी की उपमा इस्तेमाल की जाती है. महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले 7 दिन से परिस्थितियां समंदर में आने वाले ज्वार और भाटा की तरह ऊपर चढ़ती, घटती नजर आ रही हैं. दोनों तरफ सी जुबानी जंग से आगे बढ़कर बात आज सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गई.

एकनाथ शिंदे गुट ने डिप्टी स्पीकर के आदेश को चुनौती दी. डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल ने बागी विधायकों को अयोग्य करार देने का नोटिस दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल बागी विधायकों को डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल के नोटिस से राहत दे दी है. जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने बागियों को अयोग्यता नोटिस का जवाब देने के लिए 14 दिन का वक्त दिया दे दिया. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने डिप्टी स्पीकर, महाराष्ट्र विधानसभा के सचिव, शिवसेना विधायक दल के नेता अजय चौधरी, महाराष्ट्र पुलिस और केंद्र सरकार को नोटिस भेजा है. इस नोटिस का जवाब इन सभी को 5 दिनों के अंदर देना है. अब सुप्रीम कोर्ट 11 जुलाई को इस मामले की अगली सुनवाई करेगा. मतलब पूरे 14 दिन की मोहलत है.

हुआ ये कि सुप्रीम कोर्ट में एकनाथ शिंदे कैंप की ओर से वकील नीरज किशन कौल ने दावा किया कि एकनाथ शिंदे के साथ 39 विधायक हैं. ऐसे में महाराष्ट्र सरकार अल्पमत में है. उनके मुताबिक डिप्टी स्पीकर की छवि जब संदेह के घेरे में है तो फिर वह अयोग्य ठहराने का प्रस्ताव कैसे ला सकते हैं. आरोप लगाया कि डिप्टी स्पीकर सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इनसे ये भी पूछा आप पहले हाईकोर्ट क्यों नहीं गए.
इसके अलावा शिंदे कैम्प ने अपने और परिवार के लिए सुरक्षा की मांग की. विधायकों के दफ्तरों और घर हुई तोड़फोड़ का हवाला दिया गया. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को 39 विधायकों के परिवार को सुरक्षा देने का आदेश दे दिया.

शिवसेना की तरफ से कांग्रेस नेता और वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलीलें रखीं. सिंघवी ने पहले कहा कि विधायकों की जान को खतरा वाली बातें बेबुनियाद हैं. इसके बाद उन्होंने कहा कि 1992 के ‘किहोतो होलोहन’केस का हवाला दिया. कहा जब तक स्पीकर कोई फैसला नहीं लेते, तब तक कोर्ट में कोई एक्शन नहीं होना चाहिए, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या 1992 के केस में भी स्पीकर की पोजिशन पर सवाल खड़े हुए थे. इस पर सिंघवी ने कहा कि रेबिया केस बताता है कि चाहे स्पीकर गलत फैसला ले, लेकिन उसके फैसले के बाद ही कोर्ट मामले में दखल दे सकता है. सिंघवी ने ये भी कहा कि बागी विधायकों के वकील ने हाईकोर्ट में केस चलाने पर कोई जवाब नहीं दिया है. इस पर शिंदे गुट के वकील की तरफ से कहा गया- हमें नोटिस का जवाब देने की मोहलत नहीं दी गई, 14 दिन की मोहलत दी जाती है.

फिर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या जिस स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया हो, वो किसी सदस्य की अयोग्यता की कार्रवाई शुरू कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि अपने खिलाफ आए प्रस्ताव में डिप्टी स्पीकर नरहरि ज़िरवाल खुद कैसे जज बन गए? कोर्ट ने पूछा कि शिंदे गुट ने मेल के जरिये डिप्टी स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था, जिस पर विधायकों के साइन थे.

इस पर डिप्टी स्पीकर के वकील राजीन धवन ने कहा कि नोटिस आया था, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया था. वकील ने आगे कहा कि ई-मेल वैरिफाइड नहीं था, इसलिए उसे खारिज कर दिया गया था. इसपर कोर्ट ने सख्ती से कहा कि डिप्टी स्पीकर और विधानसभा दफ्तर को एक एफिडेविट दाखिल करना होगा. बताना होगा कि डिप्टी स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था कि नहीं. और आया था तो उसे क्यों रिजेक्ट किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने आखिर में 11 जुलाई तक का वक्त देते हुए फैसले में कहा- राज्य सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखे. सभी (बागी) 39 विधायकों के जीवन और आजादी की रक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए. उनकी संपत्ति को कोई नुकसान न पहुंचे, इसका भी सरकार ध्यान रखे.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद गुवाहाटी के होटल में मौजूद एकनाथ शिंदे का ट्वीट आता है. उनकी तरफ से लिखा गया- 

ये हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे और धर्मवीर आनंद दिघे साहब के विचारों की जीत है. 

साथ हैशटैग असली शिवसैनिक लिखा. 

संजय राउत की प्रतिक्रिया तीखी है, मगर बाजी थोड़ी सी पलटी जरूर है. अब सुप्रीम कोर्ट में डिप्टी स्पीकर को अपना जवाब 5 दिन के भीतर पेश करना है. बागी विधायकों को मिली राहत ने उन्हें बगावत का बूस्टर डोज दे दिया है.
उधर उद्धव की तरफ से हर बयान जारी करने वाले संजय राउत को पूछताछ के लिए ईडी ने बुला लिया है. पात्रा चॉल घोटाला मामले में ईडी ने संजय राउत को समन भेज दिया. 28 जून को पेश होने को कहा. सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में ईडी की कार्रवाई की टाइमिंग पर सवाल उठा. शिवसेना ने आरोप लगाया कि ईडी बीजेपी के इशारों पर काम कर रही है.

सजंय राउत पर आए ईडी संकट के बीच, सरकार का भी संकट गहराता जा रहा है. चर्चा है कि बागी विधायक राज्यपाल के पास अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस लाने के लिए जा सकते हैं. सरकार का क्या होगा ये सवाल बना हुआ है?
महाराष्ट्र में सियासी संकट के बाद भी एकनाथ शिंदे और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बीच शह-मात का खेल जारी है. एकनाथ शिंदे शिवसेना के विधायकों को अपने साथ लेकर गुवाहटी में कैंप किए हुए हैं और अब मुंबई वापसी के लिए सियासी जोड़तोड़ बैठाने में जुटे हैं. इधर खबर ये भी है कि एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी के अध्यक्ष राज ठाकरे से फोन पर बात की है, जिसके चलते शिवसेना के बागी विधायकों के MNS में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे हैं. क्योंकि एकनाथ शिंदे के साथ शिवसेना के दो तिहाई यानी 37 विधायकों का समर्थन होने के बाद भी विधानसभा में अलग पार्टी की मान्यता मिलना आसान नहीं है. संविधान के जानकार मानते हैं कि किसी दूसरी पार्टी में शामिल होना ही एकमात्र विकल्प बचता है. इस पर शिवसेना बार बार ये दावा कर रही है कि 20 विधायक उसके संपर्क में हैं. ऐसे में महाराष्ट्र की राजनीति में अभी बहुत कुछ घटना बाकी है. वैसे भी अब 14 की मोहलत मिल चुकी है. यानी सियासी ड्रामा अभी लंबा चलेगा.

दूसरी बड़ी खबर उपचुनाव से जुड़ी.

तीन लोकसभा सीटों और देश के 4 राज्यों की 7 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे आए. सबसे पहले बात उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों की. आजमगढ़ और रामपुर की. अपवादों को छोड़ दें तो पारंपरिक तौर पर ये दोनों ही सीटें समाजवादी पार्टी की मानी जाती रही हैं. सपा प्रमुख अखिलेश यादव और आजम खान के विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद ये दोनों सीटें खाली हुईं. 

दोनों ही सीटें उपचुनाव में बीजेपी ने जीत लीं. आजमगढ़ से भोजपुरी एक्टर और गायक दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ पहली बार संसद पहुंचने में कामयाब रहे. रामपुर से बीजेपी के घनश्याम लोधी ने सपा के आसिम रजा को हरा आजम खान के वर्चस्व को चुनौती दे दी. नतीजे आपको पता होंगे. अब जरा इनका विश्लेषण कर लिया जाए. हार-जीत के कारणों को समझा जाए.

सबसे ज्यादा चर्चा आजमगढ़ की है. वो जिला जहां 3 महीने पहले हुए चुनाव में 10 की 10 विधानसभा सीटें सपा ने जीतीं. 2014 में मुलायम सिंह यादव तो 2019 में खुद अखिलेश यादव यहां से चुनकर संसद गए. उपुचुनाव में यहां से अखिलेश ने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारा. वो भी नामांकन की अंतिम तारीख से ठीक पहले. मगर यहां गौर करने वाली बात थी कि धर्मेंद्र यादव को टिकट, सुशील आनंद के टिकट को काटकर दिया गया. पहले दलित चेहरे के तौर पर सुशील आनंद को उतारा गया. जो बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे बलिहारी बाबू के बेटे हैं. साथ ही स्थानीय भी. अखिलेश के इस्तीफे के बाद से ही चुनाव की तैयारी कर रहे थे. टिकट मिला भी तो ऐन वक्त पर कट गया. फिर विरासत की बागडोर थामे धर्मेंद्र यादव की एंट्री हुई. 

जातीय और धार्मिक गोलबंदी की वजह से आजमगढ़ सपा के लिए सेफ माना जाता रहा है, मगर धर्मेंद्र यादव की डगर इस बार शुरू से ही कठिन बताई जा रही थी. पहली बात ये कि बीजेपी ने निरहुआ को दोबारा मैदान में उतारा जो जाति से यादव हैं और वहीं से यादव वोटों के छिटकने की गुंजाइश बन गई. दूसरी बात ये कि गुड्डू जमाली ने AIMIM से बसपा में वापसी कर ली. चुनाव मैदान में उतर गए. अब निरहुआ की जीत की बड़ी वजह गुड्डी जमाली की दमदारी को बताया जा रहा है.

फाइनल नतीजों पर गौर करें तो.

बीजेपी के निरहुआ को 3 लाख 12 हजार 768 वोट मिले
सपा के धर्मेंद्र यादव को 3 लाख 4 हजार 89 वोट मिले
जबकि गुड्डी जमाली को 2लाख 66 हजार 210 वोट मिले

अब ऐसी स्थिति जब समूची बसपा मिलकर यूपी विधानसभा में मात्र एक सीट जीत पाई, तब उसके प्रत्याशी का 30% के करीब वोट ले जाना. आजमगढ़ के बाहर के लोगों को भले ही आश्चर्य से भर दे. मगर स्थानीय लोग गुड्डी जमाली की ताकत को बखूबी जानते थे. वे आजमगढ़ की ही मुबारकपुर विधानसभा से दो बार विधायक रह चुके हैं. विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सपा में जाने वाले थे. अखिलेश यादव के साथ फोटो भी आ गई थी. मगर टिकट नहीं मिला तो औपचारिक ऐलान से पहले ही साइकिल को ना कह दी. और ओवैसी की पंतग की डोर पकड़ ली. विधानसभा चुनाव लड़ा. हारे. मगर इंतकाम का इंतजार करते रहे. और अब नतीजा सबके सामने है. 

जानकार मानते हैं अखिलेश यादव का व्यक्तिगत तौर पर प्रचार में ना आना, स्थानीय लोगों को काफी अखर गया. यादव वोटों में सेंध लगी तो गुड्डी जमाली के नाम पर मुस्लिम वोट बिखर गया. आजमगढ़ की जान ली. अब रामपुर की बात. रामपुर को आजम खान की वजह से समाजवादी का स्ट्रांग होल्ड माना जाता रहा है. मगर ऐसा नहीं है कि बीजेपी यहां पहले कभी चुनाव जीती नहीं थी. बीजेपी यहां 1991, 1998 और 2014 के लोकसभा चुनाव को जीत चुकी है. मगर आजम खान के जेल से आने के बाद लोकसभा सीट का पहला चुनाव था. एक तरह से कहा जाए तो आजम खान की भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. जमानत मिलने के बाद आजम खान ने दर्जनों सभाएं भी कीं. मगर आजम खान का प्रचार काफी संयमित रहा. ना तो सीएम योगी पर और ना ही पीएम मोदी पर कोई टिप्पणी की.

सिर्फ नवाब परिवार पर हमले किए और स्थानीय बातों को ही एड्रेस करते रहे. नतीजा बीजेपी के पक्ष में रहा. यहां आजमगढ़ से ज्यादा बड़ी जीत हुई. बीजेपी प्रत्याशी घनश्याम लोधी ने सपा के आसिम रजा को 40 हजार से ज्यादा के मार्जिन से हरा दिया. जबकि आजम खान यहां से 1 लाख 10 हजार वोटों से जीते थे. तब 35 हजार वोट कांग्रेस के प्रत्याशी को भी मिले थे. मगर इस बार लड़ाई आमने-सामने की थी. इस बार 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में करीब 4 लाख वोट कम पड़े, वोटर टर्नाआउट पिछले चुनाव के मुकाबले काफी कम रहा. समाजवादी पार्टी ने बार-बार ये आरोप लगाया कि रामपुर में उनके वोटर्स को वोट डालने नहीं दिया गया. सच्चाई ये भी है कि आजम खान के अलावा सपा का कोई भी दूसरा बड़ा नेता रामपुर प्रचार करने नहीं पहुंचा. बीजेपी की तरफ सीएम योगी ने खुद दो-दो सभाएं कि मगर अखिलेश यादव पूरे चुनाव में कहीं नजर नहीं आए. दोनों ही पार्टियों की मेहनत में जमीन आसमान का अंतर रहा.

आजमगढ़ और रामपुर की बात हो गई. अब पंजाब के संगरूर की बात करते हैं. संगरूर सीट पंजाब के सीएम भगवंत मान के इस्तीफे के बाद खाली हुई. भगवंत मान लगतार दो बार यहां से सांसद चुने गए. संगरूर लोकसभा के अंतर्गत 9 विधानसभा की सीटें आती हैं. हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में सभी नौ सीटें आम आदमी पार्टी के खाते में गईं. ऐसे में माना जा रहा था कि आप यहां आसानी से जीत जाएगी. मगर नतीजे आए तो सारा खेल पलट गया.
ना अकाली दल, ना कांग्रेस और ना ही बीजेपी. यहां अकाली दल (अमृतसर) के अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान ने बड़ा उलटफेर कर दिया. आप के गुरमेल सिंह को 5 हजार 822 वोटों से हरा दिया. पंजाब में सत्ता मिलने के मात्र 3 महीने बाद हुए चुनाव में समूची आम आदमी पार्टी मिलकर अपनी एक मात्र लोकसभा सीट ना बचा पाई. 2019 के लोकसभा चुनाव में आप को सिर्फ एक सीट मिली थी, वो भी अब पार्टी हार चुकी है. 

खुद मुख्यमंत्री की सीट थी, इसलिए ये पार्टी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. दूसरी बात ये कि जिन सिमरनजीत सिंह मान को जीत मिली है, वो खालिस्तान के समर्थक माने जाते हैं. अलगाववादी विचारों के लिए पहचाने जाने वाले सिमरजीत सिंह ने जीत के बाद भी भिंडरावले का नाम लेकर जनता को धन्यवाद कहा. 77 साल के सिमरनजीत सिंह मान को पंजाब के बाहर भले कम लोग जानते हैं, मगर वो पंजाब की राजनीति में काफी लंबे समय से सक्रिय हैं.  

सिमरजीत सिंह मान इस जीत के साथ कुल तीन बार के सांसद और पूर्व IPS अधिकारी हैं. मान ने  1989 में तरण तरन से और 1999 में संगरूर सें लोकसभा चुनाव जीता था. 1990 में कृपाण धारण करने पर जोर देने के कारण सिमरनजीत सिंह मान को संसद में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था. 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों के विरोध में सिमरनजीत सिंह मान ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था.  भारतीय पुलिस सेवा से इस्तीफा देने के बाद उन्हें हिरासत में ले लिया गया. बाद में मान पर कई अलगाववादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगा. लगभग 20 बार गिरफ्तार या हिरासत में भी लिया गया है लेकिन कभी दोष साबित नहीं हो पाया. सिमरजीत सिंह मान ने पिछला विधानसभा चुनाव भी अमरगढ़ सीट से लड़ा था. जिसमें वे आम आदमी पार्टी के प्रोफेसर जसवंत सिंह गज्जन माजरा से 6 हजार 43 वोटों से हार गए. मगर सिर्फ 3 महीने बाद लोकसभा चुनाव जीत लिया. सिमरनजीत सिंह मान ने अपने ट्विटर बायो में भी लिख रखा था, खालिस्तान के लिए लड़ रहा हूं. हालांकि चुनाव नतीजों के बाद बायो से खालिस्तान हटा लिया है.

तीन लोकसभा सीट. तीनों के नतीजे और विश्लेषण. हमने आपको दिखाया. बात यही निकल कर आई. कि चाहे अखिलेश यादव हों या फिर आजम खान या फिर भगवंत मान ही क्यों ना हो. राजनीति में किसी का गढ़ सुरक्षित नहीं है. जनता के बीच नहीं दिखे या जनता काम से नाराज हुई तो किसी भी दिन तख्तापलट कर सकती है.