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क्या अल्लाह और मुहम्मद सिर्फ सुन्नी मुसलमानों के हैं?

बात कट्टरपंथ सोच की.

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मक्का में काबा, जहां हज पर शिया और सुन्नी दोनों ही जाते हैं. (Photo: Reuters )
- 2012 में ही सवा सौ से ज़्यादा शिया चरमपंथियों का निशाना बने. - 10 जनवरी 2013 को क्वेटा में हुए दो धमाकों में 115 लोगों की मौत. ज़्यादातर हज़ारा शिया. - इसी साल मार्च में फिर हमला और 89 लोग मारे गए.
मौत के ये वो आंकड़े हैं, जब एक साथ बहुत सारे लोग मारे गए. लेकिन कभी 10 तो कभी पांच की मौत अखबारों में सुर्खियां बनती है. क्यों आखिर क्यों? अगर ये सवाल न उठे तो हैरानी होनी चाहिए. अब एक शिया मुस्लिम तैमूर रज़ा को फेसबुक पर कुछ लिखने के लिए पाकिस्तान के कानून ने मौत की सज़ा सुनाई है. नहीं मालूम उस शिया ने क्या लिखा था? लेकिन जो भी लिखा था, उसको ईशनिंदा की कैटेगरी में रखकर तैमूर को मौत की दहलीज़ पर पहुंचा दिया गया.
मन में ये ही सवाल आता है क्या अल्लाह और पैगंबर मुहम्मद सिर्फ और सिर्फ सुन्नी मुसलमानों के हैं? क्यों शियाओं को पाकिस्तान में निशाना बनाया जाता है. बात सिर्फ मुस्लिमों की करनी है. तौहीन-ए-रिसालत के केस में मौत की सज़ा पाने वाली आसिया बीबी की बात होगी तो तर्क आ जाएगा. हां अल्लाह और पैगंबर सुन्नी मुस्लिमों के हैं, क्योंकि आसिया तो ईसाई समुदाय की हैं. उनका तो गॉड होता है.
ये तस्वीर साल 2013 की है. जब क्वेटा में हुए बम ब्लास्ट में 115 शिया की मौत हुई थी. (Photo: Reuters)
ये तस्वीर साल 2013 की है. जब क्वेटा में हुए बम ब्लास्ट में 115 शिया की मौत हुई थी. (Photo: Reuters)

अगर आपके पास ये तर्क है कि सुन्नी मुस्लिम बहुत दीनी होते हैं. वो अल्लाह को बहुत मानते हैं तो मानिए. कोई नहीं रोक रहा. आप से किसने कह दिया शिया इबादत नहीं करते. आपका तरीका अलग होगा, उनका तरीका अलग. लेकिन ये कौन तय करेगा कि अल्लाह और पैगंबर सिर्फ सुन्नी मुस्लिमों के हैं. और जो सुन्नी कर रहे हैं वही सही है. शिया जो कर रहे हैं वो गलत है.
सच पूछा जाए तो बात पाकिस्तान में अल्लाह और पैगंबर को मानने की नहीं है. बल्कि इसके ज़रिए अल्पसंख्यक को निशाना बनाने की है. चुन चुनके मारने की है. कभी हजारा मुस्लिम तो कभी अहमदी मुस्लिम को. अगर ऐसा न होता तो इनके बारे में ये दुष्प्रचार नहीं फैलाया जाता कि ये काफ़िर हैं.
2015 में शिया मस्जिद पर अटैक हुआ था, जिसमें 60 लोग मरे थे. (Photo : Reuters)
2015 में शिया मस्जिद पर अटैक हुआ था, जिसमें 60 लोग मरे थे. (Photo : Reuters)

'सिपाह-ए-सहाबा पाकिस्तान' ये पाकिस्तान का एक सुन्नी देवबंदी संगठन है, जो राजनीतिक पार्टी भी रहा. इस्लामी इतिहास में 'सहाबा' पैग़म्बर मुहम्मद के साथियों को कहा जाता है. इस संगठन की शुरुआत हक़ नवाज़ झंगवी ने 1984 में की थी. इसको बनाने का मकसद ही शिया विरोध था. क्योंकि 1979 में ईरानी क्रांति होने से शियाओं का प्रभाव बढ़ने लगा था. कहा जाता है कि तानाशाह मुहम्मद ज़िया-उल-हक़ ने इस संगठन को बढ़ावा दिया.
इसका ज़िक्र इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस संगठन का नारा है कि शिया काफ़िर हैं और हुकूमत उनको काफ़िर क़रार दे. और जब पाकिस्तानी सरकार ने ऐसा नहीं किया तो शियाओं को चुन-चुन कर मारने लगे. इस संगठन के हौसले इसलिए बुलंद थे, क्योंकि 1982 में राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ ने संविधान में संशोधन कर अहमदिया मुस्लिम पर पाबंदी लगा दी थी कि वे ख़ुद को मुसलमान भी नहीं कह सकते. यानी उन्हें गैर मुस्लिम घोषित कर दिया गया था. अब बारी शिया की थी.
shia genocide

मुहम्मद साहब ने लोगों को कलमा पढ़वाकर मुसलमान बनाया. मगर ये पाकिस्तान कैसा सिपाह-ए-सहाबा बनता है. जो मुहम्मद साहब के काम को ही उल्टा कर रहा है. जो पहले से मुस्लिम (शिया) हैं, उनको सिर्फ इसलिए काफिर घोषित करने पर तुला है, क्योंकि वो सुन्नी नहीं है. जब इस संगठन ने शियाओं को मारना शुरू किया तो हंगामा हुआ और फिर 2002 में परवेज़ मुशर्रफ ने उसे बैन कर दिया. इसके बाद ये संगठन फिर नए नाम के साथ सामने आ गया. नाम दिया, 'अहले सुन्नत.' जिसे 2012 में फिर बैन करना पड़ा.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तानी जर्नलिस्ट मोहम्मद हनीफ़ का कहना है कि समाज में कट्टरपंथ बढ़ रहा है, जिससे चरमपंथी संस्थाओं का काम आसान हो रहा है. उनके मुताबिक,
'बार-बार उनपर पाबंदियां लगाई जाती हैं, लेकिन ये नाम बदलकर फिर अपना काम शुरू कर देते हैं. कई मोहल्लों में आपको ऐसी मस्जिदें मिल जाएंगी, जहां काफ़िर-काफ़िर शिया काफ़िर के नारे उठते हैं. लोगों को इस तरह उकसाना जुर्म है. लेकिन मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि कोई ऐसा थानेदार नहीं जो जाकर किसी मस्जिद में घुसकर ये बात कह सके या किसी जलसे को रोक सके.'
बात महज़ इस संगठन की नहीं है. ऐसे कई संगठन हैं. तालिबान भी उनमें से एक है. इसकी वजह कट्टरपंथ सोच है, जो मानने को तैयार नहीं कि शिया भी मुस्लिम हैं. ये कट्टरपंथी अल्लाह और पैगंबर मुहम्मद के नाम का बैनामा अपने नाम कराना चाहते हैं. ताकि उसके ज़रिये अपनी हुकूमत चला सकें. अभी अगर इनसे पूछा जाए कि मुझे मुसलमान होना है तो क्या करना होगा? तब ये कहेंगे कि कलमा पढ़िए. 'ला इलाहा इलल्लाह'.
जब मुस्लिम बनाने का पहला स्टेप कलमा है तो फिर क्यों शिया या अहमदी को पाकिस्तान से खत्म करने पर तुले हो? क्या वो कलमा नहीं पढ़ते हैं. अगर पढ़ते हैं तो फिर वो भी तो मुसलमान हुए. कुरान शिया भी पढ़ते हैं. हज करने मक्का ही जाते हैं, कहीं और तो शिया ने मक्का बना नहीं रखा. 'जियो और जीने दो' से क्या दिक्कत है? जब क़यामत का कॉन्सेप्ट तुम भी मानते हो और शिया भी तो उसका इंतजार क्यों नहीं करते. क्यों खुद को मनवाने के लिए अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हो. जितना जोर तौहीन-ए-रिसालत पर है, अगर इतना आतंकियों पर ध्यान दे लो तो दिक्कत ही ख़त्म हो जाएगी.


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