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कहानी पंजाब के पुलिस अफसर की, जिसने बैंक लूटा, आतंकी वारदातें कीं, फिर एनकाउंटर में मारा गया

ख़ालिस्तान से जुड़े लाभ सिंह के एनकाउंटर और बैंक डकैती की कहानी चौंकाती है.

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'जनरल' लाभ सिंह, गोल्डन टेम्पल में (तस्वीर: आर्काइव)
आज 12 जुलाई है और आज की तारीख का संबंध है एक पुलिस मुठभेड़ से. वो मुठभेड़ जिसमें मारा गया एक खूंखार चरमपंथी संगठन का कमांडर. कमांडर, जो पहले पंजाब पुलिस में ऑफ़िसर रह चुका था. कमांडर, जिसकी अगुवाई में हुई अपने समय की सबसे बड़ी बैंक डकैती. इस डकैती के तार जुड़े थे ख़ालिस्तान मूवमेंट से जो उस समय पंजाब में अपने चरम पर था.
लेकिन शुरु करते हैं उस बैंक डकैती के किस्से से,
तारीख़ थी 12 फ़रवरी, 1987. जगह - पंजाब नेशनल बैंक की लुधियाना स्थित मिलर गंज ब्रांच. बैंक में रोज़ की तरह सुबह 9.30 बजे काम शुरू होता है. 9.45 पर बैंक के अंदर कुछ पुलिसवाले घुसते हैं. अचानक ये लोग गार्ड को अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं. क्या पुलिसवाले गार्ड को गिरफ़्तार करने आए थे? जवाब है, नहीं!

थोड़ी ही देर में लोगों को पूरा मामला समझ आ गया. जब ये लोग ज़ोर-शोर से नारे लगाने लगे. साफ़ था कि ये पुलिसवाले नहीं, आतंकी थे. आतंकियों ने बैंक के कर्मचारियों और बाक़ी लोगों को डराया, धमकाया. और बिना गोली चलाए बैंक से क़रीब 6 करोड़ रुपए लेकर चंपत हो गए.

कौन थे ये आतंकी? ये लोग थे KCF यानी ख़ालिस्तान कमांडो फ़ोर्स के सदस्य. इस डकैती का मास्टरमाइंड था ‘जनरल लाभ सिंह’. इस डकैती का मकसद ख़ालिस्तान कमांडो फ़ोर्स के लिए पैसा जुटाना था. ऐसी ही लूटों के दम पर ख़ालिस्तान कमांडो फ़ोर्स ने AK-47 जैसे हथियार ख़रीदे और 80 के दशक में पूरे पंजाब में जमकर आतंक मचाया.

कौन था ये ‘जनरल लाभ सिंह’? इसका असली नाम था ‘सुखदेव सिंह’ उर्फ़ ‘सुक्खा सिपाही’. अमृतसर की पट्टी तहसील में जन्मे सुखदेव को बचपन से ही पुलिस में जाने का शौक़ था. शौक़ पूरा भी हुआ. कब? 1971 में, जब वो पंजाब पुलिस में भर्ती हुआ. खेलकूद में बहुत अच्छा था. शादी भी की. पत्नी का नाम था, देविंदर कौर. 70 के दशक में जहां एक ओर शिव कुमार बटालवी ढूंढ रहे थे, ‘इक कुड़ी जिहदा नाम मुहब्बत’. वहीं दूसरी ओर पूरा पंजाब ख़ालिस्तानी अलगाववाद की आग से धधक रहा था. ‘सुखदेव सिंह’ ने 1983 में पुलिस की नौकरी छोड़ दी और वो ख़ालिस्तानी मूवमेंट से जुड़ गया. 'जरनैल सिंह भिंडरावाले’ से इंस्पायर होकर.


जरनैल सिंह भिंडरांवाले  

जरनैल सिंह भिंडरावाले पंजाब में ख़ालिस्तानी विद्रोह का मुख्य चेहरा था. भिंडरावाले से मिलकर सुखदेव ने ठान लिया कि वो उसी के कदमों पर चलकर ख़ालिस्तानी मूवमेंट का एक नया अध्याय लिखेगा. भिंडरावाले ने उसका नया नामकरण किया. और ‘सुखदेव सिंह’ बन गया ‘लाभ सिंह’.


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एक समय पर जरनैल सिंह भिंडरांवाले दमदमी टकसाल का अध्यक्ष था (तस्वीर : एएफ़पी)
उन दिनों पंजाब के समाचार पत्रों में अलगाववादी आंदोलन को लेकर बहुत कुछ लिख-छप रहा था. कुछ इस आंदोलन के समर्थन में लिख रहे थे तो कुछ विरोध में. ऐसा ही एक समाचार पत्र था ‘हिंद समाचार’. इसके एडिटर रमेश चंदेर, ’भिंडरावाले’ के ख़िलाफ़ थे. वे अपने एडिटोरियल्स में उसे पंजाब में फैले आतंक का कारण बताते. एक बार अपने एडिटोरियल में उन्होंने लिखा -
‘पंजाब एक कत्लख़ाना बनता जा रहा है.’
भिंडरावाले, जिसे कट्टरपंथी ‘संत भिंडरावाले’ कहते थे, उसके ख़िलाफ़ कुछ भी लिखा जाना उन्हें क़तई मंज़ूर न था. इसी का नतीजा था कि मई 1984 में रमेश चंदेर की गोली मारकर हत्या कर दी गई. समाचार एजेंसी को फ़ोन कर इस हत्या की ज़िम्मेदारी ली सिख मिलिटेंट ग्रुप ‘देशमेश रेजिमेंट’ ने. फ़ोन करने वाले ने कहा-
‘संत जरनैल सिंह भिंडरावाले के ख़िलाफ़ जो भी लिखेगा या बोलेगा, उसे गोलियों से जवाब दिया जाएगा.’
हत्या करने वालों में ‘लाभ सिंह’ भी शामिल था. इस हत्या का मक़सद केवल आतंक फैलाना नहीं था. इसका एक राजनैतिक उद्देश्य भी था. दरअसल, उन दिनों कुछ अकाली नेता संविधान के आर्टिकल 25 को जलाने के जुर्म में जेल में बंद थे. आर्टिकल 25 भारत में धर्म की आज़ादी के अधिकारों को निर्धारित करता है. इसके एक सेक्शन 25B में हिंदुओं और सिखों को एक सा माना गया है. अकाली नेताओं की मांग थी कि सिख धर्म को एक अलग धर्म का स्टेटस दिया जाए. आर्टिकल 25 को जलाने वाले नेताओं में शामिल थे प्रकाश सिंह बादल और जी.एस. टोहड़ा. पंजाब में बढ़ती हिंसा को देखते हुए केंद्र सरकार बातचीत का सहारा लेना चाहती थी. इस दिशा में एक कदम था अकाली नेताओं की रिहाई. लेकिन ‘रमेश चंदेर’ हत्याकांड के बाद बातचीत रुक गई. यही चरमपंथी संगठनों का मकसद भी था. वो नहीं चाहते थे कि शांति को लेकर केंद्र से कोई भी बातचीत आगे बढ़े.
इस हत्या के अलावा लाभ सिंह कई आतंकी घटनाओं में शामिल रहा. ऑपरेशन ‘ब्लू-स्टार’ के दौरान गोल्डन टेम्पल में वो भिंडरावाले के साथ मौजूद था. सुरक्षा बलों की कार्यवाही में भिंडरावाले मारा गया. और लाभ सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया.

बुलेट फ़ॉर बुलेट  

‘रमेश चंदेर’ हत्याकांड और अन्य अपराधों के चलते लाभ सिंह दो साल जेल में बंद रहा. 25 अप्रैल, 1986 को वो पुलिस की क़ैद से भाग निकला. हुआ ये कि पुलिस उसे डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, जालंधर में पेशी के लिए ले जा रही थी. इस दौरान आतंकी संगठन के लीडर, ‘मनबीर सिंह छहेरू’ और उसके साथियों ने पुलिस पर हमला कर दिया. आतंकियों ने 6 पुलिस वालों को मार दिया और लाभ सिंह और उसके दो साथियों को छुड़ाकर भाग निकले. इस घटना ने पूरी पंजाब पुलिस को जैसे झकझोर कर रख दिया. पंजाब पुलिस के DGP ‘जूलियो फ्रांसिस रिबेरो’ ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स कर कहा- 'अ बुलेट फ़ॉर अ बुलेट’.


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लाभ सिंह (दाएं) KCF के दिनों में.
इस स्टेटमेंट के पीछे भी एक रोचक कहानी है. बाद में इन्हीं जूलियो फ्रांसिस रिबेरो के संस्मरण जब पेंग्विन से एक किताब के रूप में छपे, तो किताब का नाम पड़ा ‘बुलेट फ़ॉर बुलेट’. इस टाइटल के पीछे की कहानी बताते हुए रिबेरो कहते हैं -
‘मैंने प्रेस ब्रीफ़िंग में ये शब्द कहे ही नहीं थे. मैंने केवल इतना कहा था कि हमारे लोगों के पास भी बंदूक और हथियार हैं. हम उन्हें लड़ना सिखाएंगे. अगले दिन बाक़ी सभी अख़बारों में तो मेरा कहा ज्यों का त्यों छपा पर ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने हेडलाइंस में छापा ‘बुलेट फ़ॉर बुलेट’. नौकरी से रिटायर होने के बाद मुझे पूर्व होम सेक्रेटरी राम प्रधान की किताब ‘माय इयर्स विद सोनिया एंड राजीव’ पढ़ने का मौक़ा मिला. उसे पढ़ते हुए मुझे पता चला कि ये शब्द अरुण नेहरू के थे. उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स के एक संवाददाता को एक प्राइवेट ब्रीफ़िंग के दौरान ये शब्द कहे थे.’

बैक टू ‘लाभ सिंह’ 

चलिए, लाभ सिंह की कहानी पर लौटते हैं. पुलिस की क़ैद से भागने के बाद ‘लाभ सिंह’ ने ख़ालिस्तान कमांडो फ़ोर्स जॉइन कर लिया. इसके कुछ महीनों बाद ही KCF के अगुआ, ‘मनबीर सिंह छहेरू’ को पुलिस ने अरेस्ट कर लिया. इसके बाद लाभ सिंह ने KCF की कमान संभाल ली और बन गया ‘जनरल लाभ सिंह’. ये माना जाता है कि लाभ सिंह के ‘बब्बर खालसा इंटरनेशनल’ के साथ भी लिंक थे.


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ख़ालिस्तान मोवमेंट को अब भी देश-विदेश में समर्थन मिलता है


KCF कई छोटे-मोटे गिरोहों का संगठन भर था. लाभ सिंह से पहले, उसमें ना कोई स्ट्रक्चर था और ना ही कोई हाइरार्की. लाभ सिंह ने उन सभी गिरोहों को एकजुट कर KCF को एक शक्तिशाली संगठन बनाया. पुलिस की माने तो वो एक कुशल ऑर्गनाइज़र भी था. उसने संगठन को सेंट्रलाइज करते हुए अलग-अलग इलाक़ों के लिए 6 लेफ़्टिनेंट जनरल बनाए. हर लेफ़्टिनेंट जनरल के नीचे एक एरिया कमांडर भी होता था. लेफ़्टिनेंट जनरल के पकड़े या मारे जाने पर एरिया कमांडर उसकी जगह ले लेता. KCF का उद्देश्य था, अलग ख़ालिस्तान की मांग. इसके लिए वो पूरे पंजाब में लूट और डकैती भी किया करते थे. इनकी राह में रोड़ा बनकर कोई खड़ा था तो वो थे जूलियो फ्रांसिस रिबेरो.
रिबेरो की ‘बुलेट फ़ॉर बुलेट’ की पॉलिसी के चलते पुलिस आतंकियों पर सख़्त कार्यवाही कर रही थी. उस दौरान चरमपंथी संगठनों से जुड़े लोगों को जेल भेजा गया. साथ ही पुलिस मुठभेड़ में कई आतंकी मारे भी गए. लाभ सिंह ने इस सब का बदला लेने के लिए रिबेरो को मारने की योजना बनाई.

अटैक ऑन रिबेरो  तारीख़ 3 अक्टूबर, 1986. दोपहर का वक्त था. एक जीप में बैठकर 6 आतंकी जालंधर छावनी स्थित पंजाब आर्म्ड पुलिस के हेडक्वॉर्टर के अंदर घुसे. रिबेरो अंदर लॉन में अपनी पत्नी के साथ चहलक़दमी कर रहे थे. पुलिस की यूनिफ़ॉर्म पहने एक आतंकी ने गार्ड से कहा कि वो उसकी बंदूक का मुआयना करना चाहता है. गार्ड ने बंदूक से मैगज़ीन निकाल ली. कुछ ही मिनटों में आतंकी बाउंड्री वॉल पर चढ़ गए. सुरक्षा गार्डों को कुछ समझने का मौक़ा मिलता. इस से पहले ही आतंकियों ने अंधाधुंध फ़ायरिंग शुरू कर दी. इस घटना को याद करते हुए रिबेरो बताते हैं -
‘अचानक मुझे गोली की आवाज़ सुनाई दी. मैं फ़ुट्बॉल के गोलकीपर की तरह झुककर मैदान पर लेट गया. मेरी पत्नी भी एक ओट में छुप गई.’
आतंकी पूरे दो मिनट तक गोली चलाते रहे. इसके बाद वो अपनी जीप वहीं छोड़कर भाग गए. इस पूरे घटनाक्रम में रिबेरो तो बच गए पर एक CRPF कांस्टेबल शहीद हो गया. रिबेरो की पत्नी और चार जवान भी घायल हो गए. इस हमले को लाभ सिंह ने खुद लीड किया था.
इसके बाद ‘लाभ सिंह’ ने 1987 में बैंक डकैती की उस घटना को अंजाम दिया जिसके बारे में आपको शुरुआत में बता चुके हैं. ये अपने समय की सबसे बड़ी बैंक डकैती थी. जिसकी वजह से इस डकैती का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में दर्ज हुआ.

12 जुलाई, 1988 

1988 तक ‘लाभ सिंह’ ख़ालिस्तानी आंदोलन का एक बड़ा नाम बन चुका था. पुलिस उसे पकड़ने के बहुत कोशिश कर रही थी पर वो पुलिस के हाथ नहीं आता था. हमने आपको पहले बताया था कि लाभ सिंह की एक पत्नी भी थी, देविंदर कौर. होशियारपुर ,पंजाब में एक क़स्बा है, उर्मर टांडा.


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ख़ालिस्तान समर्थक प्रदर्शन करते हुए (सांकेतिक तस्वीर)


12 जुलाई, 1988 की ये घटना इसी उर्मर टांडा में हुई. यहीं लाभ सिंह की कहानी का पटाक्षेप हुआ. उस दिन सुबह-सुबह देविंदर कौर अपने घर पर बैठी थी. दरवाज़े पर खटखटाहट हुई. जिसके दो मतलब हो सकते थे. लाभ सिंह के साथी या पुलिस. अधिकतर कोई लाभ सिंह का साथी ही निकलता था. पर उस दिन पुलिस आई थी और वो देविंदर को अपने साथ ले गई. पुलिस की जीप एक ख़ाली खेत में जाकर रुकी. देविंदर जीप से उतरी और उसने देखा खेत में लोगों की भीड़ ने एक घेरा बनाया हुआ था. पुलिस भीड़ को हटाकर उसे एक लाश के पास ले गई. एक पुलिस वाले ने पूछा-
बेटी तू पहचान सकदी ऐ एह कौन ऐ. (बेटी! तुम पहचान सकती हो ये कौन है)
देविंदर ने पुलिस की ओर देखा. अपने आंसुओं को ज़ब्त कर वो बोली-
‘एह ओही ऐ जेहनु तुसी लोग लभ रहे सी’. (ये वही है जिसे तुम लोग ढूंढ रहे थे)
ये लाभ सिंह की लाश थी. लाभ सिंह एक पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था. उसकी मौत पुलिस के लिए एक बड़ी जीत थी. लेकिन आने वाले कई सालों तक पंजाब अलगाववाद की आग में सुलगता रहा. एक ‘लाभ सिंह’ की मौत होती तो कोई दूसरा उसकी जगह ले लेता. जूलियो फ्रांसिस रिबेरो उस समय राज्यपाल के सलाहकार के रूप में कार्यरत थे. लाभ सिंह, जिसने कभी रिबेरो की मौत की साज़िश रची थी, उसकी मौत पर रिबेरो ने कहा -
‘लाभ सिंह का मारा जाना आतंकियों के लिए एक सेट-बैक ज़रूर है, पर कोई और तथाकथित जनरल अब तक उसकी जगह ले चुका होगा.’
यही हुआ भी. ‘लाभ सिंह’ के बाद ‘कंवलजीत सिंह सुल्तानविंद’ KCF का लीडर बन गया.