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चंबल का वो डाकू जिससे इंदिरा भी डर गई थीं!

डाकू मोहर सिंह गुर्जर की कहानी, जिसने फिरौती का रिकॉर्ड तोड़ दिया था.

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15 साल तक चम्बल में एक छत्र राज करने के बाद डाकू मोहर सिंह ने साल १९७२ में सरकार के आगे समर्पण कर दिया (तस्वीर- फाइल फोटो/सांकेतिक तस्वीर)

वो आदमी पान सिंह तोमर का पहला वर्जन था. चंबल (Chambal Dacoits) का बागी. जिसे कभी दद्दा, कभी रॉबिन हुड तो कभी जेंटलमेन डाकू कहा गया. एक और विशेषण भी उसके नाम से जुड़ा था- ‘इंडिया का सबसे महंगा डाकू’. 3 लाख का इनाम था उसके सिर पे. और ये बात है 1960 के दशक की. 3 लाख तो फिर भी कम है, उस दौर में उसने सिर्फ एक किडनैपिंग से 26 लाख रूपये की फिरौती हासिल की थी. आतंक ऐसा था कि कहते हैं जब 1972 में JP ने चंबल के डाकुओं के सरेंडर की स्कीम बनाई, इंदिरा अड़ गई थी. उनका कहना था,

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“ये काम सिर्फ़ एक शर्त पर होगा. शर्त ये कि मोहर सिंह हथियार डालने को तैयार हो.”

कौन था मोहर सिंह (Mohar Singh Gurjar). कैसे बना डाकू, क्या थी पूरी कहानी?

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Mohar Singh
डाकू मोहर सिंह पहली बार पुलिस रिकॉर्ड में 1958 में आया, जब वह गांव में एक रंजिश के चलते हत्या करने के बाद बीहड़ों में भाग गया था(तस्वीर- Indiatoday)

बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में

पान सिंह तोमर में प्रिय इरफ़ान का ये डायलॉग अब किंवदंतियों का हिस्सा है. पान सिंह तोमर, फिल्म 2012 में आई थी. इससे कई साल पहले ऐसा ही एक डॉयलॉग काफी फेमस हुआ था. लेकिन अंतर इतना था कि वो डायलॉग किसी फिल्म का नहीं था. मई 1960 की बात है. चंबल के किनारे भाषण देते हुए विनोबा भावे ने कहा,

‘चंबल के डकैत संसद में बैठे डकैतों से तो बेहतर ही हैं.’

विनोबा डाकू तहसीलदार सिंह की पहल पर डाकुओं के सरेंडर की कोशिश कर रहे थे. तहसीलदार सिंह, मान सिंह का बेटा था. जो 1950 के दशक में चंबल का सबसे बड़ा डाकू था. उसने 180 से ज्यादा क़त्ल किए थे, जिनमें से 32 पुलिस अफसर थे. मान सिंह 1955 में एक पुलिस एनकाउंटर में मारा गया. जिसके बाद डाकुओं के अलग-अलग गैंग्स में सबसे बड़ा बनने के लिए वर्जिश होने लगी.

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1958 में इस खेल में एंट्री हुई एक और नाम की. मोहर सिंह गुर्जर. मोहन सिंह की कहानी भी चंबल के बाकी डाकुओं जैसी थी. ज़मीन किसी रिश्तेदार ने हड़प ली. मामला पुलिस के पास गया. और फिर अदालतों का चक्कर. मोहर सिंह दर-दर ठोकर खाता रहा लेकिन इंसाफ़ न मिला. थक हार के उसने हथियार उठाया और बीहड़ का रास्ता पकड़ लिया. चंबल में तब फिरंगी सिंह, देवीलाल, छक्की मिर्धा, शिव सिंह और रमकल्ला जैसे डाकुओं का डंका बोलता था. मोहर ने इनसे अपने गैंग में जोड़ने की गुज़ारिश की. लेकिन हर किसी से उसे दुत्कार ही मिली. अंत में तय हुआ - मोहर सिंह अपना गैंग बनाएगा.

मुखबिरी का अंजाम 

140/60- पुलिसिया रिकॉर्ड में मोहर सिंह गैंग का पहला अपराध इस नंबर से दर्ज़ हुआ. साल था 1960. आने वाले सालों में बाद इन नंबरों का एक लम्बा सिलसिला तैयार हुआ, जिसमें उगाही, हत्या, फिरौती जैसे गुनाह शामिल थे. कुछ ही सालों में मोहर सिंह ने 150 डाकुओं का एक गैंग बना लिया था. उसका नाम UP, MP, राजस्थान तक फैल चुका था. गैंग के मेम्बर उसे दद्दा कहकर बुलाते थे लेकिन पुलिस के लिए वो E-1 था. E-1 यानी एनेमी नंबर 1.

पुलिस उसकी खोज़ में लगी थी. लेकिन मोहर सिंह ने बचने का एक अचूक तरीक़ा ईजाद कर लिया था. डाकुओं को पकड़ने के लिए पुलिस मुखबिरों की मदद लेती थी. मोहर सिंह ने पूरे इलाक़े में ऐलान कर दिया कि अगर किसी ने मुखबिरी की, तो वो उसके पूरे परिवार को मार डालेगा. जैसा उसने कहा, वैसा किया भी. मुखबिरों की हत्याओं के ऐसे कई केस उसके और उसके गैंग के नाम से दर्ज़ हुए और पूरे इलाक़े में उसका ख़ौफ़ बन गया. जहां दूसरे गिरोह मुखबिरी के डर से किसी भी गांव में रुकने से डरते थे, वहीं मोहर सिंह बेख़ौफ़ और बेरोकटोक गांवों में आता-जाता था.

Mohar Singh & JP
साल 1972 में मोहर सिंह ने अपने भरे पूरे गैंग यानी 140 डाकुओं के साथ जयप्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण किया था (तस्वीर- ट्विटर@IndiaHistorypic)

मुखबिरों की हत्या के अलावा उसने अपने गैंग के लिए कुछ और कड़े नियम बनाए थे. मसलन वो किसी महिला को अपने गैंग में शामिल नहीं करता था. गैंग के किसी मेम्बर को किसी लड़की से छेड़छाड़ की पर्मिशन नहीं थी. बल्कि कहानियां तो यहां तक चलती हैं कि कभी कोई महिला गलती से बीहड़ में भटक जाए तो गैंग उसे पैसे देकर घर तक छोड़कर आता था. यही कारण था कि महिलाओं से जुड़े अपराधों में मोहर सिंह के गैंग का नाम यदाकदा ही सुनाई देता था. हालांकि एक दूसरा फ़ील्ड जरूर था, जिसमें मोहर सिंह का नाम सबसे ऊपर था- किडनैपिंग.

सबसे बड़ी फिरौती का रिकॉर्ड 

चंबल में अपहरण को पकड़ कहा जाता है. इन्हीं पकड़ों से मिली फिरौती से गैंग का काम चलता है. मोहर सिंह इस काम में माहिर था. और 1965 में उसने एक ऐसी घटना को अंजाम दिया, जिसने देश-विदेश में उसका नाम पहुंचा दिया. उस दौर में अधिकतर अपहरण चंबल के आसपास के इलाक़ों और शहरों से होते थे. लेकिन उस साल मोहर ने ठानी कि क्यों न, दिल्ली की मोटी आसामी पर हाथ मारा जाए. दिल्ली में मूर्तियों का एक नामी व्यापारी हुआ करता था. जिसका असली धंधा मूर्तियों की तस्करी से चलता था. मोहर गैंग ने किसी तरह व्यापारी तक खबर भिजवाई कि चंबल में कुछ प्राचीन मूर्तियां मिली हैं. व्यापारी ने अपना एक खास आदमी चंबल भिजवाया. आदमी तो वापिस नहीं लौटा लेकिन मूर्तियों के असली होने की खबर व्यापारी तक भिजवा दी गई. मामला सेट हो चुका था. व्यापारी कुछ रोज़ बाद खुद चंबल पहुंचा, सौदा पूरा करने के लिए. यहां मोहर का गैंग उसके इंतज़ार में था. मौका मिलते ही उन्होंने उसे अगवा कर लिया.

व्यापारी का संभ्रांत समाज में बड़ा नाम था. इसलिए सरकार तुरंत हरकत में आई. तीन राज्यों की पुलिस दौड़ाई गई लेकिन न मोहर सिंह हाथ आया, न व्यापारी की कोई खबर लगी. अंत में मजबूरन परिवार को फिरौती चुकानी पड़ी. ये रक़म कितनी थी, इसको लेकर अलग-अलग अनुमान हैं. कोई कहता 50 लाख दिए गए तो कोई 26 लाख बताता था. असलियत जो भी हो इतना पक्का था कि चंबल के इतिहास में ये सबसे बड़ी फिरौती थी.

JP & Indira
1970 में जय प्रकाश नारायण ने चम्बल में डाकुओं के पुनर्वास का  बीड़ा उठाया (तस्वीर- wikimedia/Indiatoday)

इस मामले के अलावा मोहर सिंह के गैंग पर 250 से ज़्यादा अपहरण और 85 क़त्ल के मामले दर्ज़ थे. कुल 76 बार उसका पुलिस से सामना हुआ था लेकिज हर बार वो बच निकला था. 1970 आते-आते मोहर सिंह पुलिस के लिए इतना बड़ा सरदर्द बन चुका था कि उसके सिर पर 3 लाख का इनाम रख दिया गया था. वहीं उसकी पूरे गैंग को पकड़वाने वाले को पुलिस 12 लाख देने वाली थी. ये रक़म किसी भी डाकू के सिर पर रखी रक़म से ज़्यादा थी. लगभग एक दशक तक मोहर सिंह बेताज बादशाह बना रहा. लेकिन फिर गोली का डर तो था ही. उसे अहसास था कि कोई गोली तो होगी, जो उसके नाम से दागी जाएगी, और उस रोज़ न ताज बचेगा, न राज़. साल 1970 में उसे खबर लगी कि सरकार डाकुओं के पुनर्वास की योजना बना रही है.

आत्मसमर्पण और पिक्चर का डाकू 

जैसा कि शुरुआत में बताया 1960 के आसपास विनोबा भावे ने चंबल के डाकुओं को मुख्यधारा में लाने की पहल की लेकिन जल्द ही वो पहल ठंडी पड़ गई. 1970 में जय प्रकाश नारायण ने एक बार फिर इस पहल को ज़िंदा किया. आउटलुक पत्रिका में पत्रकार जीवन प्रकाश शर्मा के लेख से इस बाबत एक किस्सा मिलता है. लेख के अनुसार जेपी डाकुओं का समर्पण कर उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की स्कीम लेकर इंदिरा से मिलने गए. तब इंदिरा ने उनसे कहा था कि वो केवल तभी तैयार होंगी जब मोहर सिंह हथियार डालने के लिए राज़ी होगा. सरकार की इस पहल पर 1972 में मोहर सिंह और उसका गैंग समर्पण के लिए राज़ी हो गए.

अप्रैल के पहले हफ़्ते में मध्य प्रदेश के मोरोना से कुछ 30 किलोमीटर दूर, धोरेरा नाम के गांव को खाली करवाया गया. अगले कुछ दिनों में चंबल के 200 डाकू यहां इकट्ठा हुए. और 14 अप्रैल के रोज़ जय प्रकाश नारायण के सामने मोहर सिंह, उसकी गैंग और कुछ अन्य छोटी मोटे गिरोहों ने आत्म समर्पण कर दिया. इस दौरान वे सब गांधी की जय, जेपी की जय, के नारे लगा रहे थे. सरेंडर के बाद मोहर सिंह और बाकी डाकुओं को ग्वालियर जेल लाया गया. किस्सा है कि अदालत में जब उस पर मुक़दमा चला, जज ने उसे फांसी की सजा सुनाई , साथ में दस हजार रुपये का जुर्माना लगाया. ये सुनकर मोहर सिंह बोला, जज साहब, अगर मैं फांसी चढ़ गया तो जुर्माना कौन चुकाएगा.

Mohar Singh Film
1982 की एक फिल्म 'चंबल के डाकू' में डाकू मोहर सिंह ने अभिनय भी किया था (तस्वीर- wikimedia commons)

जेल में रहते हुए भी मोहर सिंह की अकड़ कम न हुई. ग्वालियर में जब एक पुलिस अफसर ने डींगें हांकी तो मोहर ने जेल से उन्हें चुनौती दे डाली, कि अंदर ही दो दो हाथ करके देख लो. ऐसी कहानियां कई हैं, लेकिन चंबल की घाटियों की तरह इनका भी पक्का ओर-छोर नहीं मिलता. मोहर सिंह को आख़िरकार 20 साल की सजा सुनाई गई. अच्छे व्यवहार के चलते 1980 में उसे रिहाई मिली और मिला एक नाम- जेंटेलमेन डकैत. जेल से बाहर आकर आत्मसमर्पण के एवज़ में सरकार से मिली 35 एकड़ ज़मीन में उसने खेती शुरू की. इसी दौरान हालांकि उसे एक फिल्म में काम करने का मौका भी मिला. 1982 में रिलीज हुई फिल्म ‘चंबल के डाकू’ में उसने एक डाकू का रोल किया.

इसके 12 साल बाद मोहर सिंह ने राजनीति का दामन थामा और कांग्रेस में शामिल हो गए. नगर पंचायत का चुनाव लड़ा और जीते भी. बाद के दिनों में वो समाज सेवी बन गए थे और पुराने टूटे मंदिरों के बनवाने का काम करने लगे थे. 2019 में उन्होंने इस बाबत पीएम मोदी को एक पत्र भी लिखा था. साल 2020 में मोहर सिंह ने अंतिम सांस ली. तारीख थी आज की ही. 5 मई. 92 साल की जिंदगी के बाद एक डाकू की कहानी ने इस तरह विराम लिया. 

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