साल 1837. मार्च का महीना. बसंत बीते महीना हो चुका है. लेकिन लाहौर की धरती लाल-पीली हुई जा रही है. महाराजा रणजीत सिंह के पौत्र नौ निहाल सिंह की शादी है. मौका शादी का है लेकिन जब आप गद्दी पर बैठे हो तो हर मौका पॉलिटिक्स से तारी हो ही जाता है. पूरे पंजाब से सिख सेना को लाहौर बुलाया गया है. एक खास मेहमान के सामने शक्ति प्रदर्शन के लिए. अंग्रेज़ बहादुर आए हैं. महाराजा के खास निमंत्रण पर. इतना ही नहीं काबुल से अमीर दोस्त मुहम्मद खान को भी न्योता भेजा गया है. पूरा लाहौर सजाया गया है, बड़े-बड़े लोग आए हैं. लेकिन फिर भी एक कमी सी है.
पाकिस्तान में मां बच्चे से कहती थी, सो जा वरना हरि सिंह नलवा आ जाएगा!
हरि सिंह नलवा का जन्म 28 अप्रैल 1791 में हुआ था. 14 साल की उम्र में वो महाराजा रणजीत सिंह से मिले और आगे जाकर खालसा सेना के कमांडर बन गए. अपनी जिंदगी में उन्होंने 20 से ज्यादा लड़ाइयों में खालसा सेना को लीड किया. और 1813 में अटक, 1814 में कश्मीर, 1816 में महमूदकोट, 1818 में मुल्तान, 1822 में मनकेरा, 1823 में नौशहरा को सिख साम्राज्य में मिलाया.

सिख सेना के कमांडर बाघमार, हरि सिंह नलवा को अमृतसर में होना था. लेकिन ऐन मौके पर उनकी तबीयत ख़राब हो गई. सो वो नहीं आ पाए. कुछ रोज़ में पता चलता है कि असली वजह कुछ और है. लाहौर में मेहमान नवाजी का लुत्फ़ उठा रहे दोस्त मुहम्मद ने पीछे से पूरी बारात भेजी है. उनके पांच बेटे काबुल से पूरी फौज लेकर जमरूद यानी अफ़ग़ानिस्तान के बॉर्डर तक आ पहुंचे हैं. 25 हजार की अफ़ग़ान फौज पूरी तरह से जमरूद के किले को घेर लेती है. दोस्त मुहम्मद का फरमान है. पंजाब के बागों को सिखों से खाली करना है. लेकिन मंजिल के बीच में खड़ा है एक इंसान.
रंग हरा हरि सिंह नलवे सेआज के ही दिन यानी 28 अप्रैल 1791 को गुजरांवाला में हरि सिंह का जन्म हुआ था. साल 1967 में आई फिल्म उपकार का गाना सुना होगा आपने.
मेरे देश की धरती सोना उगले…

गीत के दूसरे अंतरे में गीतकार गुलशन बावरा लिखते हैं,
रंग हरा हरि सिंह नलवे से,
रंग लाल है लाल बहादुर से,
रंग बना बसंती भगतसिंह,
रंग अमन का वीर जवाहर से
लाल बहादुर, भगत, जवाहर ये नाम हमारे सुने सुनाए हैं. लेकिन हरि सिंह नलवा का नाम कम सुना होगा आपने. इंट्रो के लिए एक ट्रिविया से बेहतर कुछ न होगा. साल 2014 में ऑस्ट्रेलिया की एक पत्रिका, बिलिनियर ऑस्ट्रेलियंस ने इतिहास के दस सबसे महान विजेताओं की सूची जारी की. इस सूची में हरि सिंह नलवा का नाम सबसे ऊपर था.
चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगारिसर्च के दौरान कई जगह हमें हरि सिंह नलवा के बारे में एक किस्सा पढ़ने को मिला. वो ये कि पाकिस्तान और काबुल में माएं बच्चे को ये कहकर चुप कराती थी कि “चुप सा, हरि राघले” यानी चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगा. पहले लगा कि अपने हीरोज़ से लगाव के चलते ये कहानियां बना दी गई होंगी. लेकिन फिर द डॉन में एक पाकिस्तान पत्रकार का लेख मिला. माजिद शेख लिखते हैं,
“बचपन में मेरे पिता हरि सिंह नलवा की कहानियां सुनाया करते थे. कि कैसे पठान युसुफ़ज़ई औरतें अपने बच्चों को ये कहकर डराती थी. चुप सा, हरि राघले. यानी चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगा”

गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर डॉक्टर SP सिंह इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में इस बात की पुष्टि करते हैं कि हरि सिंह नलवा सालों से अफ़ग़ान लोक कथाओ का हिस्सा रहे हैं. उप्पल जाति में पैदा हुआ हरि सिंह का नाम नलवा कैसे पड़ा. इसके पीछे की कहानी भी बड़ी रोचक है. कहते हैं एक बार हरि सिंह शिकार पर निकले. वहां उनका पाला बाघ से पड़ गया. हरि सिंह ने अकेले ही बाघ को मार गिराया. जब ये खबर महाराजा रणजीत सिंह तक पहुंची. तो उन्होंने कहा, “वाह मेरे राजा नल वाह.” नल से यहां अर्थ राजा नल से है. जिनका जिक्र महाभारत में नल दमयंती प्रसंग में आता है. यहीं से हरि सिंह का नाम हरि सिंह नलवा पड़ गया. इसके अलावा एक और नाम था उनका, बाघमार.
हरि सिंह की महाराजा रणजीत सिंह से मुलाकातहरि सिंह की उम्र कुछ 13 साल की थी जब वो पहली बार महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में पहुंचे. एक संपत्ति विवाद के चक्कर में हरि सिंह लाहौर पहुंचे थे. उस दिन दरबार में कुश्ती का आयोजन रखा था. हरि सिंह ने देखा कि महाराज रणजीत सिंह एक पहलवान का सम्मान कर रहे हैं. तब हरि सिंह ने महाराज से कहा, “मैं इन्हें कुश्ती में हरा सकता हूं.”
महाराज ने परमिशन दी और कुश्ती का आयोजन हुआ. कहते हैं कि इस कुश्ती में हरि सिंह ने अपने से कहीं बड़ी उम्र वाले पहलवान को पछाड़ दिया. तब महाराजा रणजीत सिंह ने हरि सिंह को अपने पर्सनल गार्ड के रूप में नौकरी पर रख लिया. जल्द ही तरक्की करते हुए हरि सिंह सिख सेना के कमांडर बन गए.

महाराजा रणजीत सिंह सिख साम्राज्य को पश्चिम में काबुल तक फैलाना चाहते थे. उन्होंने हरि सिंह को इसकी जिम्मेदारी दी. 16 साल की उम्र में पहली लड़ाई लड़ते हुए हरि सिंह ने कसूर को सिख साम्राज्य में मिलाया. 1827 तक आते- आते वो अटॉक को जीत चुके थे. लेकिन पेशावर पर अब भी काबुल के शासक दोस्त मुहम्मद का कब्ज़ा था.
तब तक हरि सिंह की ख्याति इतनी फ़ैल चुकी थी कि जब उन्होंने पेशावर ओर हमला किया तो अफ़ग़ान सिपाहियों ने बिना लड़े ही हथियार डाल दिए. अपनी जिंदगी में उन्होंने 20 से ज्यादा लड़ाइयों में खालसा सेना को लीड किया. और 1813 में अटक, 1814 में कश्मीर, 1816 में महमूदकोट, 1818 में मुल्तान, 1822 में मनकेरा, 1823 में नौशहरा को सिख साम्राज्य में मिलाया.
दोस्त मुहम्मद खान और काबुल1834 में पेशावर पर कब्ज़ा करने के बाद हरि सिंह जमरूद की और बड़े. जो खैबर-पख्तूनख्वा में एकदम बॉर्डर पर था. 1836 अक्टूबर महीने में हरि सिंह ने जमरूद को भी अपने कब्ज़े में ले लिया. यहां से खैबर दर्रा एकदम हाथ की दूरी पर था.
दोस्त मुहम्मद जानते थे एक बार सिख सेना ने खैबर दर्रे को पार कर लिया तो जल्द ही काबुल भी उनके कब्ज़े में होगा. दोस्त मुहम्मद ने अपनी सेना को इक्कठा किया. वो फ़िराक में थे कि कब मौका मिले और कब वो जमरूद और पेशावर को दोबारा अपने कब्ज़े में ले. अफ़ग़ान सेना को इतनी बार हार का मुंह देखना पड़ा था, कि उनके हौंसले पस्त थे. इसलिए उन्होंने हमला तो नहीं किया लेकिन खैबर दर्रे के पास अपनी सेना को तैनात कर दिया. सेना की अगुवाई दोस्त मुहम्मद के पांच बेटे कर रहे थे.

इसी बीच 1837 में लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह के पौत्र की शादी का आयोजन हुआ. ब्रिटिश फौज के कमांडर इन चीफ हेनरी फेन को इस शादी में स्पेशल गेस्ट के तौर पर बुलाया गया था. ये शक्ति प्रदर्शन का मौका था. इसलिए पूरे पंजाब से सेना को लाहौर बुला लिया गया था.
हरी सिंह ने खतरे को देखते हुए पेशावर में ही रुकना चुना. जमरूद के किले में भी सिर्फ 600 सैनिक बचे थे. जब दोस्त मुहम्मद को इसकी खबर मिली तो उन्होंने सेना को जमरूद को घेर लेने का आदेश दिया. हरी सिंह ने मदद के लिए जाने की ठानी लेकिन महाराजा रणजीत सिंह ने उनसे तब तक रुकने को कहा, जब तक लाहौर से और मदद ना आ जाए. जमरूद के किले में 600 सिपाही और कमांडर महान सिंह अकेले फंसे थे. उनके पास रसद भी लिमिटेड थी. इसलिए हरि सिंह उनकी मदद के लिए जमरूद की ओर निकल गए.
हरि सिंह आ रहे हैंअफ़ग़ान फौज संख्या में बहुत अधिक थी. लेकिन जब उन्हें पता चल कि हरि सिंह नलवा आ रहे हैं. तो अफ़ग़ान फौज में पैनिक फ़ैल गया. 20 लड़ाइयों में उन्होंने हरि सिंह के हाथों मात खाई थी. दोनों सेनाओं में जंग हुई और 28 अप्रैल 1837 के रोज़ जंग में हरि सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए. उन्होंने अपनी फौज को आदेश दिया कि अगर उनकी मौत हो जाए तो इसकी खबर बाहर ना जाने पाए. अगले चार दिनों तक हरि सिंह के कपड़ों को किले के बाहर सुखाया गया.

अफ़ग़ान फौज हरि सिंह से इतनी घबराई थी कि उन्होंने अगले 4 दिन तक सीधे हमला नहीं किया. बल्कि दूर से किले पर गोलाबारी करते थे. चार दिन बाद जब उन्हें खबर लगी कि हरि सिंह मारे गए हैं. तब तक बहुत देर हो चुकी थी. लाहौर से सिख रिइन्फोर्समेंट जमरूद तक पहुंच चुकी थी. ये देखते हुए अफ़ग़ान सेना पीछे हट गई. और जमरूद और पेशावर को बचा लिया गया.
हरी सिंह की मृत्यु से सिख साम्राज्य को एक बड़ा झटका लगा और महाराजा रणजीत सिंह काबुल को अपने कब्ज़े में लेने का सपना पूरा नहीं कर पाए. अफ़ग़ान लड़ाके जिनके चलते काबुल को ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ कहा जाता था. उनके सामने हरि सिंह ने 20 लड़ाइयां लड़ी थी और सबमें जीत हासिल की थी. इसी के चलते महाराजा रणजीत सिंह बड़े चाव से हरि सिंह के जीत के किस्से सबको सुनाया करते थे. इतना ही नहीं उन्होंने कश्मीर से शॉल मांगकर उन पर इन लड़ाइयों को पेंट करवाया था. एक शाल की कीमत तब 5 हजार रूपये हुआ करती थी. हरि सिंह नलवा की आख़िरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए कि उनकी राख को लाहौर में कुश्ती के उसी अखाड़े में मिला दिया गया जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की पहली लड़ाई जीती थी.
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