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नाखून और दांत उखाड़ डाले, फिर बेहोशी में ही फांसी पर चढ़ा दिया

क्रांतिकारी सूर्यसेन और उनके ग्रुप ने चटगांव में ब्रिटिश आर्मरी को लूट लिया था

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18 अप्रैल 1930 को भारत के महान क्रान्तिकारी सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगांव शस्त्रागार पर छापा मार कर उसे लूटने का प्रयास किया गया था (तस्वीर: wikimedia Commons)
साल 2012 की बात है. कोलकाता विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह का आयोजन हुआ. जिसने जो पढ़ा, जो पास किया वो डिग्री बांट दी गई. अंत में नंबर आया दो लड़कियों का. बीना दास और प्रीतिलता वादेदार. दोनों में से कोई भी वहां पर मौजूद नही था. होता भी कैसे. इनको कॉलेज पास किए, ग्रेजुएशन किए 82 साल हो गए थे. 1930 में. लेकिन तब अंग्रेज सरकार ने डिग्री रोक दी थी. काहे कि क्रांतिकारी थी दोनों की दोनों.
भारत के क्रांतिकारी. पूछोगे क्रांति क्या? तो सामने रख देंगे एक बंदूक, एक कलम और एक बम. इनमें से क्रांति के लिए सिर्फ़ कलम ज़रूरी है. लेकिन कई बार लिखने के बाद मिटाना भी ज़रूरी हो जाता है. इसलिए बम और बंदूक़ साथ में. ‘हेल द आइस किंग’ 24 सितंबर 1932 की एक सुबह. पहरतली में मौसम सुर्ख़ और आसमान में बादल काले हैं. सूरज अभी अभी निकला है और क्लब में हलचल बस शुरू हुई है. ये चटगांव में पहरतली का फ़ेमस यूरोपियन क्लब है. अंदर कुछ अंग्रेज जेंटलमनी पर उतरे हैं. सुबह-सुबह बीयर खोल दी गई है. और बीयर का गिलास थामते हुए एक अंग्रेज साहिब दुआ दे रहे हैं. ‘आइस किंग’ को.
Fredrick Tudor
दुनिया में बर्फ़ पहुंचाने वाले फ़्रेडरिक टुडोर (तस्वीर: Wikimedia Commons
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एक अमेरिकी जिनका यूं तो नाम फ़्रेडरिक टुदोर था. लेकिन लोग ‘हेल द आइस किंग’ कहकर बुलाते थे. वो इसलिए क्योंकि अमेरिका के ईस्टर्न कोस्ट से लाकर भारत के क्लब्स और ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास दर्जे में बर्फ़ पहुंचाने वाले का श्रेय इन्हीं को जाता था. टुडोर की ही मेहरबानी थी कि अब बीयर को ठंडा रखने के लिए भीगे हुए कपड़े में लपेट कर नहीं रखना पड़ता था. जिसे अंग्रेज बहादुर पता नहीं क्यों पर पेटी कोट बोला करते.
ये तो है अंदर का हाल. बाहर क्या मिज़ाज हैं.
बंगाल का बाशिंदा. बचपन से रहा नंगा. उसके रूखसार पे तिल का मतलब समझो. दौलत-ए-बिरतानिया पे दरबान बिठा रखा है. साथ में लगा है एक बोर्ड. जिस पर कपड़ा मारा जा रहा है. कुछ देर में बोर्ड भी साफ़ है और उस पर लिखी बात भी. “भारतीय और कुत्तों का आना मना है”. दरबान को इससे फ़र्क नहीं पड़ता. तो क्या अगर अंग्रेजों ने अपने क्लब में आने पर बैन लगा रखा है. बड़े ठाकुर के घर घुसने पर भी तो गेट पर ही रोक दिया जाता है. वां तो पानी पीने के लिए भी बर्तन नहीं छूने देते. यां कम से कम किसी को छूने की मनाही तो नहीं है. ज़िंदगी का इम्तिहान ‘जो है सो है’ वाले इस दार्शनिक मौन पर बम गिरता है पौने ग्यारह बज़े. बंगाल में सरदार कम दिखते थे. लेकिन जब दिखते थे तो धमाका होता था. उस दिन भी हुआ. पाजी ठान कर आए थे कि क्लब में भारतीय आए ना आए, बिरतानिया हुकूमत को बाहर निकलना होगा. साथ में कुछ 6-7 लोग थे. पहले क्लब में आग लगाई. और फिर दुनाली तान दी. कुछ राउंड फ़ायरिंग के बाद थमे.
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पहरतली क्लब वर्तमान में (तस्वीर: प्रबीर दास)


तब तक क्लब के अंदर से रिटर्न फ़ायर होने लगी थी. हुज़ूर शायद बीयर पीने में ख़लल पड़ने से नाराज़ थे. लगता तो नहीं था कि उन्हें आजादी-वाज़ादी कुछ समझ नहीं आती थी. कुत्ते क्या कम आज़ाद होते हैं. कुछ देर गोली चलाने के बाद 21 साल का सरदार अपने साथियों के साथ भाग निकला. पुलिस ने पीछा किया लेकिन हाथ नहीं आया. एक दिन बाद उसकी लाश मिली. एक गोली लगी थी. लेकिन मौत उस कारण नहीं हुई थी. मौत की वजह थी साइनाइड.
पुलिस के हाथ आने से बचने के लिए 21 साल के लड़के ने साइनाइड गटक लिया था. अंग्रेज बदले पर उतारू थे. 21 साल के लड़के ने भद्द पीट दी थी. और किरकिरी में इज़ाफ़ा हुआ जब पता चला कि वो लड़का नहीं. एक लड़की थी. प्रीतिलता वादेदार दो साल पहले तक कोलकाता यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही थी. दर्शन शास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी हो गई थी. लेकिन फिर बिरतानी हुकूमत ने डिग्री रोक दी. साल 2012 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी के प्रशासन को याद आया. और प्रीति को अपनी डिग्री मिल गई. ज़िंदगी के इग्ज़ाम में वो बहुत पहले ही पास हो चुकी थी. मास्टर दा प्रीति पर उसके साथियों ने पहरतली के क्लब पर हमला किया था मास्टर दा के कहने पर. मास्टर दा यानी ग़ुलामी के अंधेरे में भारत की आजादी का सूर्य. नाम सूर्यसेन था. लेकिन सब लोग मास्टर दा ही कहकर बुलाते थे. पहले शिक्षक थे. फिर आजादी का सबक़ याद आया तो अपने सब छात्रों को क्रांतिकारी बना डाला. 500 लड़के लड़कियों की फ़ौज. मास्टर दा की खास बात थी कि जितने माहिर वो अपने सब्जेक्ट में थे. उतने ही जंग के मैदान पर भी.
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सूर्यसेन के नाम इनामी पोस्टर और उनके साथी (तस्वीर: Wikimedia Commons)


अपनी छोटी सी फ़ौज लेकर अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्ध किया. और 500 लड़के लड़कियों की मदद से एक बार तो लगभग पूरे चिटगांव को ही बंगाल से तोड़ डाला था. आज ही के दिन यानी 22 मार्च 1894 को सूर्यसेन का जन्म हुआ. नोआपारा चिटगांव में. तब भारत का हिस्सा था. अब बांग्लादेश में पड़ता है.
1916 में जब मुर्शिदाबाद के कॉलेज में पढ़ रहे थे तब अपने शिक्षक से आजादी आंदोलन के बारे में सुना और जाना. और अनुशीलन समिति से जुड़ गए. 1918 में चटगांव लौटे और एक स्कूल में गणित पढ़ाने लगे. शुरुआत में कांग्रेस का हिस्सा भी रहे. लेकिन फिर लगा कि सशस्त्र संघर्ष करना ज़रूरी है. 1926 से लेकर 1928 तक जेल में रहे. बाहर आकर अपने छात्रों को क्रांति का पाठ पढ़ाया. और एक छोटी मोटी फ़ौज भी बना ली. अब सवाल था हथियारों का. चटगांव आर्मरी पर रेड चटगांव में अंग्रेजों का शस्त्रागार यानी आर्मरी हुआ करती थी. मास्टर दा ने प्लान बनाया कि उसे लूटेंगे. लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं. प्लान के अनुसार टेलीग्राम, टेलीग्राफ़ और रेलवे लाइन काट कर पूरे चटगांव को ब्रिटिश राज से अलग-थलग कर देना था. 18 अप्रैल 1930 की रात प्लान को अंजाम भी दे दिया गया. गणेश घोष, लोकनाथ बल और बाकी साथियों के साथ सूर्यसेन पुलिस आर्मरी पहुंचे और उसे अपने कब्जे में ले लिया. अब बारी कम्यूनिकेशन को ध्वस्त करने की थी. इसके बाद सफ़ेद धोती, काले कोट और गांधी टोपी पहले सूर्यसेन ने वहीं पर तिरंगा फहराया और उसे सलामी दी. इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारों के बीच अनंतिम क्रांतिकारी सरकार की घोषणा हुई.
ये सब तो हो गया लेकिन एक बड़ी भूल भी हो गई. उस दिन आर्मरी में नाम मात्र के वेपन थे. और बिना बन्दूकों के अंग्रेजों का सामना करना सम्भव ना था. इसलिए अंग्रेजों ने धावा बोला तो सूर्यसेन और उनकी फ़ौज को भागना पड़ा. और उन्होंने भागकर पहाड़ियों में शरण ली.
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चटगांव रेड की खबर (तस्वीर: Wikimedia Commons)


22 अप्रैल 1930 को पुलिस और क्रांतिकारियों के बीच एक बड़ी मुठभेड़ हुई. जलालाबाद की पहाड़ी पर. इस मुठभेड़ में 12 क्रांतिकारी और 80 पुलिसवाले मारे गए. सूर्यसेन अपने बाकी बचे साथियों के साथ आसपास के गांव में छुप गए. 1932 में पहरतली के यूरोपियन क्लब पर हमले का प्लान भी यहीं से बना. जिसे प्रीतिलता वादेदार ने लीड किया था. बेहोशी में ही फांसी पर लटका दिया सूर्यसेन कई साल तक बचते-बचाते फिरते रहे. कभी मिस्त्री बने तो कभी किसान, कभी पंडित बने तो कभी मौलाना. भेष बदलकर अंग्रेजों को छकाया. क्रांति जारी थी. अपने साथियों के साथ उन्होंने कई बार अंग्रेजों पर गुरिल्ला अटैक किया. उनके एक साथी और रिश्तेदार थे नेत्र सेन. उनको सूर्यसेन के छुपने का ठिकाना पता था. लालच था कि जलन, या दोनों. नेत्र सेन ने अंग्रेजों को सूर्यसेन के छुपने का ठिकाना बता दिया. सूर्यसेन पकड़ लिए गए.

कुछ दिन बाद एक क्रांतिकारी नेत्रसेन के पास पहुंचा और उसका गला रेत दिया. कौन था, कभी पता नहीं चल पाया. क्योंकि नेत्रसेन की पत्नी सूर्यसेन की बड़ी समर्थक थी और पुलिस के लाख पूछने पर भी उन्होंने उस क्रांतिकारी का नाम नहीं बताया.
पकड़े जाने के बाद पुलिस ने सूर्यसेन को जमकर टॉर्चर किया. हथौड़े से उनके सारे दांत तोड़ दिेए गए. नाखून निकाल दिए गए. घुटने के जोड़ों को हथौड़ा मारकर तोड़ दिया गया. जब बेहोश हो गए तो इसी हालत में घसीटते हुए ले जाकर फांसी पर लटका दिया. उनका शरीर भी परिजनों को नहीं सौंपा. लाश को एक बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया.
“मौत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे रही है. मेरा मन अनंत की ओर उड़ रहा है ... इतने सुखद, ऐसे गंभीर क्षण में, मैं तुम्हारे लिए पीछे क्या छोड़कर जाऊं? एक ही चीज है, वो है मेरा सपना, एक सुनहरा सपना-स्वतंत्र भारत का सपना…. 18 अप्रैल, 1930 को कभी मत भूलना, चटगांव की क्रांति को कभी मत भूलना. आजादी की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले उन देशभक्तों का नाम लाल अक्षरों से अपने दिल में लिख लेना”
ये सूर्यसेन के आख़िरी शब्द थे. जो अपनी मौत से कुछ दिन पहले उन्होंने अपने दोस्त को एक ख़त में लिखे थे.

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