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भारत की महिला DGP कंचन चौधरी, जिन्होंने मर्दों के समझे जाने वाले पुलिस डिपार्टमेंट में झंडे गाड़े

अफ़सोस! कंचन चौधरी भट्टाचार्य को कभी इलेक्शन में सिर्फ 18,170 वोट मिले थे.

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कंचन चौधरी यूपी कैडर की थीं, उत्तराखंड बनने के बाद उन्होंने उस कैडर को चुना.
किरण बेदी. भारत की पहली महिला आईपीएस ऑफिसर. इतिहास में लिख गया ये. अपनी इस एक पहचान की नींव पर किरण बेदी का करियर खूब परवान चढ़ा. उनके नाम के साथ किंवदंतियां जुड़ीं. आगे बहुत कुछ घटा उनके करियर में, जीवन में. वो अन्ना आन्दोलन का हिस्सा बनीं. दिल्ली के सीएम पद की रेस में शामिल हुईं. और आखिरकार पुदुचेरी की गवर्नर बनकर सेटल हुईं. अपने करियर की बेशुमार उपलब्धियों के बावजूद उनकी सबसे प्रॉमिनंट अचीवमेंट यही है कि वो भारत की पहली महिला आईपीएस अफसर थीं.
इस 'पहले' होने की बहुत महिमा है बॉस! जनता टॉप पोजीशन ही नोटिस करती है. जो शीर्ष पर है, वही ज़िक्र के काबिल है. इसीलिए ये बात उतने फैन-फेयर के साथ नहीं दर्ज की जाती कि भारत की दूसरी महिला आईपीएस ऑफिसर कौन हैं? कंचन चौधरी भट्टाचार्य ने किरण बेदी के जस्ट बाद इस मुकाम को हासिल किया था. इस लिस्ट में उनका नाम दूसरे पायदान पर है. तो फिर ऐसा क्या हासिल किया था उन्होंने जिससे उनका नाम भी किसी सूचि के टॉप पर लिखा गया हो! था कुछ. वो लम्हा उनके करियर में तब आया था जब उन्हें इंडियन पुलिस सर्विस की वर्दी पहने लगभग तीन दशक हो चुके थे.
2004 में कंचन चौधरी देश की पहली महिला डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस बनीं. राजकुमार राव की फिल्म 'शाहिद' में एक बढ़िया डायलॉग था, 'वक़्त लगता है पर हो जाता है'. कंचन चौधरी के लिए ये शब्दशः सही साबित हुआ. वक़्त लगा लेकिन हो गया. आज पूरा मुल्क उन्हें भारत की पहली महिला डीजीपी के तौर पर पहचानता है. 26 अगस्त 2019 को उनकी मुंबई में डेथ हो गई. 72 साल की उम्र में. लंबी बीमारी से जूझने के बाद.

'उड़ान'

थोड़ा फ़्लैशबैक में चलते हैं. 80 का दशक ख़त्म होते-होते भारतीय जनता को टेलीविज़न का चस्का लग चुका था. रामायण, महाभारत जैसे ग्रैंड सीरियल लोगों को टीवी महिमा से परिचित करा चुके थे. हालांकि टीवी अब भी इंडियन मिडल क्लास के लिए लग्ज़री आइटम ही था. ऐसा नहीं था कि घर-घर टीवी सेट रखे हुए हो. मोहल्ले में एक दो घर ही ऐसे होते थे जो टीवी अफोर्ड कर सकते थे. और उन्हीं घरों में शाम के वक़्त तमाम मोहल्ला इकट्ठा होता था. सामूहिक तौर पर देखे जाते थे सीरियल्स. उन्हीं दिनों एक सीरियल एयर होने लगा. नाम था 'उड़ान'.
कविता चौधरी ने अपनी बहन पर बेस्ड किरदार में जान डाल दी थी.
कविता चौधरी ने अपनी बहन पर बेस्ड किरदार में जान डाल दी थी.

'उड़ान'. एक महिला आईपीएस अफसर की कहानी. इस सीरियल के पीछे कविता चौधरी नामक एक महिला का हाथ था. कविता चौधरी यानी कंचन चौधरी की बहन. बहन ने बहन की ज़िंदगी पर सीरियल बनाया और खुद उसमें लीड रोल किया. सीरियल डायरेक्ट भी किया. बहुत जल्द 'उड़ान' लोगों का पसंदीदा सीरियल बन गया. एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी को लोगों ने खूब पसंद किया. पुलिस से सदा त्रस्त जनता को किसी महिला पुलिस अफसर की दयालुता भा गई. कुछेक एपिसोड तो बहुत ही पसंद किए गए. इनमें वो मोहतरमा अपने मातहत कॉन्स्टेबल्स को पब्लिक के साथ रूडली पेश आने के लिए लताड़ती है. यहां तक कि जनता और मीडिया ने पुलिस को सलाह तक देना शुरू किया था कि जनता को ट्रीट करने का तरीका पुलिस को इस सीरियल से सीखना चाहिए. 'उड़ान' ने न सिर्फ तारीफ़ बटोरी बल्कि कहीं न कहीं उन बेशुमार लड़कियों के लिए नए रास्ते भी खोल दिए जो वर्दी वाले प्रोफेशन को सिर्फ मर्दों की मिल्कियत माने बैठी थीं.

जब महिलाएं कहीं नहीं थीं

कंचन चौधरी उस दौर की आईपीएस अफसर हैं जब लड़कियों के लिए करियर ऑप्शन्स लिमिटेड थे. पुलिस जैसी रफ जॉब के लिए तो उन्हें काबिल ही नहीं माना जाता था. कंचन चौधरी, किरण बेदी जैसी लड़कियों ने इस धारणा की नींव हिला दी. किरण हिमाचल में पैदा हुईं और अमृतसर, दिल्ली में पली बढ़ीं. बदकिस्मती से कंचन चौधरी के आईपीएस बनने की कहानी का कोई सलीके का रिटन अकाउंट नज़र नहीं आता. न उन पर कोई किताब लिखी गई, न किसी मैगज़ीन का विस्तृत आर्टिकल पढ़ने में आया और न ही यूट्यूब पर कोई ऐसा इंटरव्यू मिला जिसमें उनके शुरूआती संघर्ष की झलक हो. 'उड़ान' ज़रूर है लेकिन वो उन पर बेस्ड था महज़. उससे ये पता लगाना मुश्किल है कि सच कितना है और कितनी लिबर्टी ली गई है. तो ज़ाहिर सी बात है उनके आईपीएस बनने के पहले के संघर्ष का कोई तरीके का लेखा-जोखा नहीं है.
बस इतना कहीं पढ़ने में आया कि उनके पिता को किसी प्रॉपर्टी मैटर में बुरी तरह पीटा गया था. उस वक़्त पुलिस ऐसे मामलों में FIR लिखने से कतराती थीं. इस बात ने उन्हें पुलिस में जाने को प्रेरित किया. ताकि वो लोगों की मदद करने में सक्षम हो.
कंचन चौधरी को राष्ट्रपति मैडल भी मिला.
कंचन चौधरी को राष्ट्रपति मैडल भी मिला.

हां वर्दी पहनने के बाद ज़रूर वो सुर्ख़ियों में बनी रहीं. चाहे उत्तर प्रदेश का बहुचर्चित सय्यद मोदी मर्डर केस हो या रिलायंस-बॉम्बे डाइंग वाला हाई-प्रोफाइल केस. उन्होंने बहुत कुछ हैंडल किया. 2004 में मेक्सिको में हुई इंटरपोल की मीटिंग में भारत का प्रतिनिधित्व किया. इंटरपोल माने पुलिस की इंटरनेशनल जमात. कुछ अरसा वो मुंबई CISF में कार्यरत रहीं. थोड़े समय के लिए उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी काम किया. उन्हें प्रेसिडेंट्स मैडल और राजीव गांधी अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया. यहां तक कि लोकसभा चुनाव भी लड़ा उन्होंने. हार गईं वो बात अलग है. कहने की बात ये कि बहुत कुछ हासिल किया उन्होंने. और फिर आया मैजिक मोमेंट.

'फर्स्ट लेडी'

जैसा कि हमने आर्टिकल के शुरू में ही लिखा था किसी भी लिस्ट में पहले नंबर पर होने का सुख ही अलग है. साल 2000 में उत्तराखंड बना. चार साल बाद कंचन चौधरी राज्य की पहली महिला डायरेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस (DGP) अपॉइंट की गईं. राज्य की क्या देश की ही पहली. इससे पहले वो उत्तराखंड की ही ADGP थीं. वहां से प्रमोट होकर DGP बनीं थीं. ऐसा लगा जैसे 'उड़ान' अब जाकर पूरी हुई हो. अपने टेलीकास्ट के डेढ़ दशक बाद. चार्ज लेते वक्त कंचन चौधरी की कही एक बात काबिल-ए-इबरत है. उनसे किसी ने पूछा कि क्या वो सख्त अफसर बनेंगी? उनका जवाब था, "सख्त नहीं, संवेदनशील".
पॉलिटिक्स में भी हाथ आज़माया लेकिन महज़ 18,170 वोट मिले.
पॉलिटिक्स में भी हाथ आज़माया लेकिन महज़ 18,170 वोट मिले.

'मर्दों' के पेशे में औरत

2006 में रेडिफ डॉट कॉम के सीनियर एसोसिएट एडिटर ओंकार सिंह ने कंचन चौधरी से बात की. ये वही वक्त था जब लतिका सरन नामक एक और महिला आईपीएस अफसर का चर्चा हो रहा था. वो भारत की पहली ऐसी महिला थीं, जो किसी शहर की पुलिस कमिश्नर बनी थीं. अब तक भी वो इकलौती महिला हैं, जिन्होंने कमिश्नर की कुर्सी संभाली है. लतिका भी आगे चलकर तमिलनाडु की DGP बनी थीं. बहरहाल बात कंचन चौधरी के इंटरव्यू की. कंचन ने उस इंटरव्यू में लतिका के कमिशनर बनने पर ख़ुशी जताई थी. इस बात का संतोष ज़ाहिर किया था कि महत्वपूर्ण पोस्ट्स पर महिलाओं की मौजूदगी बढ़ रही है. कहा था,
"मैंने लतिका को एसएमएस भेजकर बधाई दे दी है. मेरा मानना है कि महिलाएं ज़्यादा निष्पक्ष होती है. और जनता के लिए पुरुष अफसरों के मुकाबले सहजता से उपलब्ध भी रहती हैं. ये अच्छा नज़ारा है कि महिलाएं हायर पोस्ट्स के लिए मेहनत कर रही हैं."
कंचन चौधरी ने ये मेहनत सत्तर के दशक में ही कर ली थी. तब, जब महिलाओं के लिए करियर ऑप्शन के तौर पर टीचर बनना ही सेफ बेट थी. वर्दी पहन कर क्राइम की दुनिया में दखल देना तो दूर बड़ी जुर्रत वाला काम माना जाता था. कंचन चौधरी जैसी महिलाओं ने घिसा-पिटा रास्ता छोड़कर नई राह बनाई. ऐसी राह, जो शुरू में तो महज़ एक पगडण्डी थी लेकिन उनके क़दमों के निशानों पर पैर रखते हुए इस मुल्क की महिलाओं ने उसे हाइवे बना दिया. जिस पर मेहनती, जुझारू लड़कियों की 'उड़ान' अनवरत जारी है.


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