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कैफ़ी आज़मी, वो शायर जो सिर्फ नज़्मों में नहीं ज़िंदगी में भी प्रोग्रेसिव था

पढ़िए उनके जीवन से जुड़ी दिलचस्प बातें.

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फिल्म नसीम का एक दृश्य. ये इकलौती फिल्म है जिसमें कैफ़ी साहब ने काम किया था.

इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं  ना रोने से कल पड़े,

जिस तरह से हंस रहा हूं मैं, पी-पी के अश्केगम, यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े.


कौन यकीन करेगा कि इस नज़्म को लिखने वाला एक 11 साल का बच्चा था. किसने सोचा था कि यही बच्चा आगे चलकर हिन्दुस्तान का एक ऐसा नाम बनेगा जिसकी गज़लें और नज़्में अपने प्रोग्रेसिव मैसेज के लिए जानी जाएंगी. ‘कैफ़ी आज़मी’ एक ऐसा नाम जिसे आप उसकी नज़्मों से, उसकी शायरी से जानते हैं. जो सिर्फ अपनी नज़्मों तक ही प्रगतिशील नहीं बल्कि अपनी ज़िंदगी में भी उतना ही प्रोग्रेसिव रहा.

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उन्होंने गरीब-अमीर के बराबरी की बात की, उन्होंने औरत-मर्द के बराबरी की बात की. इस बराबरी को लगातार अपनी नज़्मों के जरिए लोगों तक पहुंचाते रहे. ज़मींदार घराने से सम्बन्ध रखने के बावज़ूद कैफ़ी ने अपनी ज़िन्दगी में दोनों रंग देखे. उनके अब्बा के पास खेती की ज़मीन थी, छोटी-मोटी ज़मींदारी भी. लेकिन सबसे बड़े भाई के पैदा होने के बाद उनके अब्बा ने ज़मींदारी छोड़ नौकरी करने का फैसला किया. कैफ़ी ने आराम का जीवन भी जिया लेकिन घर के हालात कुछ ऐसे रहे कि कठिनाइयों से भी उनका लागातर साबका पड़ा. उनकी पढ़ाई अंग्रेज़ी स्कूल की जगह मदरसे में हुई.

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जबकि उनके दूसरे भाइयों की पढ़ाई अंग्रेज़ी मीडियम में कराई गई और उन्हें जान बूझकर दीनी शिक्षा (धर्म से जुड़ी शिक्षा) दी गई. ताकि वे फ़ातिहा पढ़ना सीख सकें. और फ़ातिहा पढ़ना आना क्यों जरूरी था उनके लिए? क्योंकि कैफ़ी के माता पिता ऐसा चाहते थे. उनके माता पिता को लगा था कि अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े उनके दूसरे बच्चे ये नहीं सीख पाए हैं. उनकी मौत पे फ़ातिहा पढ़ने वाला कोई तो हो. यही वजह थी कि कैफ़ी की अंग्रेज़ी अच्छी नहीं थी. तभी एक बार जब उन्हें अपनी बेटी शबाना (मशहूर ऐक्ट्रेस) को अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला कराना था, वे खुद नहीं गए थे.

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अपनी जगह किसी और को शबाना का पेरेंट्स बना के भेजा था. दीनी शिक्षा लेने वाले कैफ़ी ने सही मायने में इंसानियत को अपना धर्म माना. अपनी नज़्मों में उसे ही ज़ाहिर किया और हमेशा के लिए हमारी यादों में ज़िंदा रह गए. आपको पढ़ाते हैं उनकी कुछ नज्में जो हमें तमाम संघर्षों में भी जीना सिखाती हैं. समानता, मानवता और जीवन में उम्मीद बनाए रखती हैं-


# ख़ारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले, मैं अगर थक गया काफ़िला तो चले   चांद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम   ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले 

# आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है    आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी    सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो   कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी 

# चूम लेने दे मुझे हाथ अपने   जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे   तूने बदला है मशियत का मिज़ाज   तूने लिखी हैं नई तक़दीरें   इंक़लाबों के वतन

# वो कभी धूप कभी छांव लगे ।   मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे ।    किसी पीपल के तले जा बैठे    अब भी अपना जो कोई दांव लगे ।

# मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूं   कुछ मशीनें बनाई जब मैंने   उन मशीनों के मालिकों ने मुझे   बे-झिझक उनमें ऐसे झौंक दिया   जैसे मैं कुछ नहीं हूं ईंधन हूं


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