The Lallantop

अटल बिहारी वाजपेयी की कविता: मौत से ठन गई

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop
अटल बिहारी वाजपेयी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री. एक बार नहीं तीन बार उन्हें इस राष्ट्र के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ. लेकिन वो सिर्फ नेता नहीं थे, उन विरले नेताओं में से थे, जिनका महज साहित्य में झुकाव भर नहीं था. वो खुद लिखते भी थे. कविताएं. विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी वो अपनी कविताओं का सस्वर पाठ कर चुके हैं. उनकी कविताओं का एक एल्बम भी आ चुका है जिन्हें जगजीत सिंह ने भी अपनी अावाज़ दी है. पढ़िए उनकी कविता-

मौत से ठन गई

ठन गई! मौत से ठन गई!

Add Lallantop as a Trusted Sourcegoogle-icon
Advertisement

जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई.

Advertisement

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं.

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा.

Advertisement

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर.

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं.

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला.

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए.

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है.

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई.

मौत से ठन गई.


ये भी पढ़ें: 'शून्य में अकेला खड़ा होना पहाड़ की महानता नहीं मजबूरी है' यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है! जो भी हो, मैं आता रहूंगा उजली रातों में एक कविता रोज़: फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म 'गुल हुई जाती है'
कविता वीडियो: दिल गया था तो ये आंखें भी कोई ले जाता

Advertisement