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क्या संविधान को बदलना संभव है? बीजेपी सांसद ने क्यों की संविधान बदलने की बात

कर्नाटक की Uttara Kannada लोकसभा सीट. यहां बीजेपी के सांसद हैं. अनंत हेगड़े. पिछले दिनों उनका एक बयान काफी वायरल हुआ. हेगड़े के बयान का शॉर्ट में सार ये था कि 400 प्लस सीटें मिलें तो उनकी पार्टी संविधान बदल देगी.

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संविधान संशोधन (फोटो-एआई)

कर्नाटक की Uttara Kannada लोकसभा सीट. यहां बीजेपी के सांसद हैं. अनंत हेगड़े. पिछले दिनों उनका एक बयान काफी वायरल हुआ. हेगड़े के बयान का शॉर्ट में सार ये था कि 400 प्लस सीटें मिलें तो उनकी पार्टी संविधान बदल देगी. हालांकि बीजेपी ने खुद को इस बयान से दूर कर लिया. लेकिन कुछ हफ़्तों बाद ही राजस्थान की नागौर सीट से भाजपा उम्मीदवार ज्योति मिर्धा का भी एक बयान वायरल हुआ. जिसका सार ये है कि राज्य सभा और लोक सभा दोनों में बहुमत मिला तो भाजपा के पास संविधान में संशोधन करने की ताकत आ जाएगी. इस दो बयानों के इतर भी पिछले कई सालों से कांग्रेस और विपक्ष के कई दल भाजपा पर संविधान विरोधी होने का आरोप लगाते रहे हैं. तो समझते हैं- 

-क्या संविधान में संशोधन करना इतना आसान है? 
-क्या 400+ सीटें मिल जाएँ तो कोई पार्टी संविधान में कोई भी संशोधन कर सकती है?
-ये संविधान की मूल भावना क्या है? 
-क्या है राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों वाला गणित जिसकी बात ज्योति मिर्धा ने की?

 

काफ़ी दिन हुए Whatsapp को एक फीचर इंट्रोड्यूस किए. फीचर मतलब आप मैसेज सेंड करने के बाद भी एडिट कर सकते हैं. ऐसे ही हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने भी किया. उसी संविधान में एक फीचर ऐड किया. संशोधन का फीचर. लेकिन Whatsapp के मैसेज को एडिट करने के कुछ मानक हैं, जैसे 15 मिनट के बाद आप अपने लिखे मैसेज को एडिट नहीं कर सकते, और अगर किसी ग्रुप में अपना मैसेज एडिट कर रहे हैं तो उस ग्रुप के हर सदस्य के पास Whatsapp का लेटेस्ट वर्जन होना ज़रूरी है, वग़ैरह वग़ैरह. वैसे ही संविधान को एडिट करने के लिए कईजरूरी शर्तें रखी बनाई गयी हैं. ज़ाहिर है ये शर्तें Whatsapp की शर्तों से कहीं अधिक जटिल होंगी, क्योंकि एक प्राइवेट कंपनी के ऐप में और करोड़ों लोगों के देश के संविधान में धरती आसमान का फ़र्क़ जो ठहरा. इसलिए चलिए सबसे पहले यही समझते हैं कि संविधान संशोधन के लिए कौन जरूरी हैं.
 

संशोधन करने की शर्तें

संविधान का एक आर्टिकल है. 368. इसमें संविधान के संशोधन का हिसाब किताब है. इसके हिसाब से संशोधन किए दो तरह की स्पेशल मेजोरिटी चाहिए.  लेकिन इसको समझने के लिए आपको फेडरलिज्म का कॉन्सेप्ट समझना होगा.

फेडरलिज्म यानी केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का बटवारा. माने केंद्र राज्य के कामों में दखल न दे और राज्य केन्द्र के कामों में दखल न दे. भारत एक फेडरल देश है. लेकिन शक्तियों का बटवारा बराबर नहीं है, यहां केंद्र के पास थोड़ी ज्यादा शक्तियां है. वैसे तो संविधान का ज्यादातर हिस्सा केंद्र अकेले संशोधित कर सकता है पर कुछ हिस्सों को संशोधित करने के लिए राज्यों की अनुमति भी चहिए. तो अब आपने फेडरलिज्म समझ लिया, ये आगे काम आएगा. अभी वापस चलते हैं दो तरह की स्पेशल मेजोरिटी वाली बात पर.

स्पेशल मेजोरिटी vs सिंपल मैजोरिटी

देखिए बिल पास करने के लिए संसद के दोनों सदनों में सिंपल मैजोरिटी से काम चल जाता है. सिम्पल मेजोरिटी यानी बिल पर वोटिंग का दौरान लोक सभा और राज्य सभा में जितने मेंबर मौजूद हैं. उनमें से 50% से ज्यादा लोग इसके पक्ष में वोट कर दें. तो बिल पास. 
इसे एक उदाहरण से समझते हैं. 
लोक सभा में कुल सीट हैं 543. लेकिन मान लीजिए जिस दिन बिल पर वोटिंग हुई उस दिन सिर्फ 350 सांसद ही प्रेजेंट हों. ऐसा क्यों? जैसे स्कूल के क्लासरूम की टोटल स्ट्रेंथ 50 बच्चों की होती है पर कोई न कोई absent हो जाता है. वैसा ही संसद में भी होता है. ऐसा बहुत रेयर होता है कि सारे के सारे सांसद प्रेजेंट हों. अब इन 350 सांसद में से अगर 176 या उससे ज्यादा सांसदों ने बिल के पक्ष में वोट कर दिया तो ये बिल लोक सभा में पास हो जाएगा ऐसा ही राज्य सभा में भी होगा. ये तो हुई सिंपल मेजोरिटी.लेकिन संविधान संसोधन के लिए स्पेशल मेजोरिटी की जरूरत होती है. इसमें क्या होता हैं?
यहां मैथ्स थोड़ी बदल जाती है. कैसे? इसको भी समझते हैं. मान लीजिए, एक संविधान संशोधन बिल पेश हुआ. अब ये बिल तभी पास होगा जब मौजूद सांसदों में से कम से कम दो तिहाई सासंद पक्ष में वोट डालेंगे. और पक्ष में वोट डालने वाले सांसदों की संख्या लोक सभा में 272 और राज्य सभा में 123 से ज्यादा होगी. ये स्पेशल मेजोरिटी है. इस मेजोरिटी के जरिए, फंडामेंटल राइट्स, डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ़ स्टेट पॉलिसी. जैसे संविधान के कई हिस्सों को संशोधित किया जा सकता है. हालाँकि हमारे, संविधान के कुछ हिस्से ऐसे हैं. जिन्हें स्पेशल मेजोरिटी से भी संशोधित नहीं किया जा सकता. इसे उदाहरण से समझिए. 
आपने GST का नाम बहुत बार सुना है. ये भी एक संविधानिक संशोधन के तहत लागू हुआ था. लेकिन ये संशोधन सिर्फ संसद में पारित होने से लागू नहीं हुआ. इसके लिए क्या करना पड़ा? संसद की स्पेशल मेजोरिटी के साथ. राज्यों से भी इसे मंजूरी दिलवानी पड़ी. इसे भी समझते हैं.

स्पेशल मेजोरिटी तो आप समझ गए. यही की दोनों सदनों में मौजूद सांसदों में से कम से कम दो तिहाई सासंद इसके पक्ष में वोट डालें. और पक्ष में वोट डालने वाले सांसदों की संख्या लोक सभा में 272 और राज्य सभा में 123 से ज्यादा होनी चाहिए. लेकिन GST को लागू करने के लिए इस बिल को फिर देश की 50% से ज्यादा राज्यों की विधान सभाओं में सिंपल मेजोरिटी से पास करवाना पड़ा. 
संशोधन के लिए अलग अलग मेजोरिटी हैं. इससे एक बात तो साफ है कि संविधान निर्माताओं के मन में एक चीज साफ थी कि समय के साथ संविधान में बदलाव होता रहना चहिए. लेकिन इस प्रॉसेस को इतना डिफिकल्ट जरूर बनाया जाए कि सभी दलों में सहमति बने बिना संशोधन न हो सके.

अब यहां सवाल उठता है कि सवाल उठता है. कि अगर ऐसे संविधान बदला जा सकता है. तो क्या कोई सरकार जिसके पास स्पेशल मेजोरिटी हो, और राज्यों में भी उनकी सरकार हो, वो क्या पूरा का पूरा संविधान बदल सकती है?
जवाब है नहीं. 
शिप ऑफ़ थीसीस का नाम सुना होगा आपने, एक जहाज़ के सारे पुर्ज़े निकाल कर अगर दूसरे पुर्ज़े लगा दिए जाएं, तो क्या वो तब भी वही जहाज़ रहेगा. एक उदाहरण से समझते हैं कि क्या ऐसा हो सकता है या नहीं?
 

42वां संशोधन

साल 1976.आपने सुना होगा कि इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट शब्द जुड़वाँ दिया था. ये संभव हुआ  42वें संविधान संसोधन से. हालांकि इस संशोधन से ये इकलौता बदलाव नहीं हुआ. 42 वें संसोधन के जरिये इतने बदलाव किए गए कि लोगों ने इस संसोधन को ही एक मिनी कांस्टीट्यूशन का नाम दे दिया. इनमें शामिल थे कुछ बदलाव, जैसे सुप्रीम कोर्ट के jurisdiction यानी अधिकार दायरे को कम करना. इस संशोधन के हिसाब से सुप्रीम कोर्ट किसी भी संवैधानिक संशोधन के मामले में सुनवाई नहीं कर सकता था. (यानी अगर सरकार ने कोई ऐसा संशोधन किया जिससे देश के नागुरकों के समस्या है तो भी वो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं)

-इमरजेंसी की प्रॉसेस को आसन बनाया गया.
-सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की ज्यूडिशियल रिव्यू की ताकत को कम किया गया.

इमरजेंसी के बाद 1978 में जनता पार्टी की सरकार बनी. इस सरकार ने 44वा संविधान संशोधन बिल पेश किया. और इस संशोधन के जरिए 42वे संशोधन की सभी गैर संविधानिक बातों को बदला गया. हालांकि इस कदम से ज्यादा महत्वपूर्ण है सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय जो इस 42वें संशोधन से पहले आया था. और इस निर्णय ने कई बार असंवैधानिक संशोधन से संविधान को बचाया. क्या था इस निर्णय में ? एक बेहतरीन नियम.  संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करने वाला कोई भी संशोधन मान्य नहीं होगा. मूल भावना क्या है?    
 

डॉक्ट्रिन ऑफ़ बेसिक स्ट्रक्चर

साल 1973, देश का सबसे प्रशिद्ध संविधानिक केस.केशवनंदा भारती केस 11 जजों की बेंच. और कुछ बेहतरीन जजमेंट्स.  इसी केस से जन्म हुआ डॉक्ट्रिन ऑफ़ बेसिक स्ट्रक्चर का. 
इसका मतलब क्या है? अगर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के किसी भी हिस्से को बेसिक स्ट्रक्चर घोषित किया  तो उस हिस्सा का संशोधन नहीं किया जा सकता. समय के साथ सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के कई अलग अलग हिस्सों को बेसिक स्ट्रक्चर घोषित किया. जैसे- 
-फंडामेंटल राइट्स 
-सेकुलरिज्म
-जुडिशल रिव्यु आदि आदि

इसने संविधान को बदलने का स्कोप खत्म कर दिया. क्योंकि इसके कई सारे हिस्से बेसिक स्ट्रक्चर का हिस्सा हो गए हैं. बात बची संशोधन की वो भी आसान काम नही है. सबसे पहले तो बहुमत का नंबर जुटाना एक बहुत मुश्किल प्रक्रिया है और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की एक पैनी नज़र से बचना भी असंभव है. बाकी अनंत हेगड़े और ज्योति मिर्धा के बयानों की जहाँ तक बात है.  वस्तुस्थिति ये है कि 2024 के चुनावों में अगर बीजेपी की लोक सभा में 400 सीट आती हैं. तब भी वो राज्य सभा में स्पेशल मेजोरिटी के नंबर से बहुत दूर हैं. और कुछ संशोधन के मामलों में तो 50% से ज्यादा राज्यों की मंजूरी भी चाहिए होती है. यानी मोटा माटी दूसरे दलों का सहयोग जरूरी होगा. 
अगर ये सब हो जाये तब भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई की जा सकती है और सुप्रीम किसी भी संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर सकता है. फिलहाल आगे क्या होगा ये कहना मुश्किल है. लेकिन अभी के लिए 1954 में रिलीज हुए मुहम्मद रफी के एक गाने की दो पंक्तियों के साथ हम आपसे विदा लेते हैं.

हम लाएं हैं तूफान से कश्ती निकाल के
मेरे देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के