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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी, किसने क्या कहा?

इस सुनवाई में AMU ओल्ड बॉयज एसोसिएशन की ओर से वकील राजीव धवन और कपिल सिब्बल ने यूनिवर्सिटी का पक्ष रखा. वहीं सरकार की ओर से इस पूरी सुनवाई में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए.

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी

उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक यूनिवर्सिटी है. नाम है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी. बीते कई हफ्तों से इस यूनिवर्सिटी को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत में सुनवाई जारी है. किस बात को लेकर? यही कि AMU एक माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन है या नहीं?  इसलिए हम समझेंगे

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-एएमयू के माइनॉरिटी स्टेटस विवाद के मूल में क्या है ?
-सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान क्या हुआ ?
-और इस मामले में दोनों पक्षों ने सरकार के सामने क्या दलीलें पेश की ?

 

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आजादी से पहले इस मामले पर क्या हुआ? AMU की स्थापना और 1921 का AMU एक्ट क्या था ? अगर आप इस बारे में जानना चाहते हैं तो आसान भाषा का वो वीडियो आप हमारे चैनल पर देख सकते हैं . लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.और आज हम आपको बताएंगे कि इस मामले की सुनवाई में क्या हुआ ? जजों ने क्या टिप्पणियां दीं? क्योंकि अब इस केस की सुनवाई पूरी हो चुकी है. 10 जनवरी को शुरू हुई इस सुनवाई में AMU ओल्ड बॉयज एसोसिएशन की ओर से वकील राजीव धवन और कपिल सिब्बल ने यूनिवर्सिटी का पक्ष रखा. वहीं सरकार की ओर से इस पूरी सुनवाई में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए.  

पूरा केस कुल मिलाकर अज़ीज़ बाशा केस, 1981 के ए एम यू एक्ट की वैधानिकता और संविधान के आर्टिकल 30 में, अल्पसंख्यकों को दिए अधिकारों के इर्द-गिर्द रहा. तो जानते हैं कि इस केस में इन मुद्दों पर कोर्ट में क्या दलीलें पेश की गईं.

 
1967 में अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ए एम यू की स्थापना 1920 के Aligarh Muslim University Act के द्वारा हुई थी. चूंकि इसको स्थापना एक सरकारी एक्ट के द्वारा हुई थी इसलिए इसे सरकारी संस्थान ही माना जाए न कि अल्पसंख्यक संस्थान.

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सबसे पहले इसी फैसले पर जिरह शुरू हुई और सुप्रीम कोर्ट के सामने सीनियर वकील राजीव धवन ने कहा कि 1967 का जजमेंट अपने आप में विरोधाभासी है. जजमेंट का सार ये था कि यूनिवर्सिटी की डिग्री तभी मान्य होती है जब वो किसी एक्ट मसलन AMU एक्ट 1920 जैसे किसी कानून से बनी हो. और अगर ऐसा है तो इसी तरह हर अल्पसंख्यक संस्थान एक एक्ट के द्वारा मान्यता प्राप्त करने पर बाध्य होगा. लिहाजा ये आर्टिकल 30 को निष्प्रभावी करता हुआ दिख रहा है. इस वजह से अल्पसंख्यकों का अधिकार जो उन्हें आर्टिकल 30 देता है, वो उन्हें नहीं मिल पाएगा .

बारी आई इस दलील के जवाब की तो सरकार की ओर से Solicitor General Tushar Mehta ने बताया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने ब्रिटिश के सामने अपना माइनॉरिटी दर्जा सरेंडर कर दिया था और ब्रिटिश के वफादार बनकर रहे. पर जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे संस्थान ने ऐसा नहीं किया था और ब्रिटिश का विरोध जारी रखा था. अपने माइनॉरिटी स्टेटस के सरेंडर की बात अज़ीज़ बाशा केस में भी दर्ज है.

अगला मुद्दा जिसे आधार बनाकर पर इस केस की सुनवाई हुई वो था यूनिवर्सिटी का प्रशासन. सवाल ये था कि यूनिवर्सिटी की स्थापना करने वाले समूह से उसके माइनॉरिटी कैरेक्टर कैसा प्रभाव पड़ेगा ?
इस विषय पर AMU की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने दलील पेश की. सिब्बल ने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यूनिवर्सिटी का प्रशासन किसके पास है. अगर यूनिवर्सिटी को चलाने वाली बॉडी में ऐसे सदस्य हैं जो अल्पसंख्यक नहीं हैं तो भी इससे फर्क नहीं पड़ेगा. सिब्बल ने संविधान के आर्टिकल 30 (1) का हवाला देते हुए कहा कि, आर्टिकल 30(1) माइनॉरिटी के समुदायों को ये अधिकार भी देता है कि वो अपने बनाए हुए संस्थान का प्रबंधन अपने अनुसार करें.

इस दलील के जवाब में सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि जब यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई तब यूनिवर्सिटी प्रशासन के हेड लॉर्ड रेक्टर हुआ करते थे. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की एक कोर्ट हुआ करती थी जिसके हेड भी लॉर्ड रेक्टर ही थे. कोर्ट के सारे फैसले उन्हीं की मंजूरी से होते थे. चूंकि लॉर्ड रेक्टर ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि थे लिहाजा संस्थान का कंट्रोल एक ब्रिटिश के हाथ में था.

अगली जिरह जिस मुद्दे पर हुई वो था इलाहाबाद हाई कोर्ट का डिसिजन.  2005 में AMU में मेडिकल पोस्ट ग्रेजुएशन में 50% सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित करने का आदेश आया. आरक्षण के विरोध में मामला एक बार फिर कोर्ट पहुंचा.इस बार इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में न सिर्फ आरक्षण रद्द कर दिया.बल्कि 1981 के संशोधन को ही रद्द कर दिया.कोर्ट ने इस मामले में बाशा केस के फैसले का हवाला दिया.

पहले AMU का पक्ष रखते हुए कपिल सिब्बल  ने कहा कि यदि अज़ीज़ बाशा के जजमेंट  को रद्द कर दिया जाता है तो 1981 का संशोधन "अनावश्यक" हो जाएगा क्योंकि ये जजमेंट रद्द होते ही  एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति को मान्यता मिल जाएगी. और  यदि अज़ीज़ बाशा को बरकरार रखा जाता है, तो संशोधन पर इलाहाबाद HC के फैसले के साथ एक छोटी पीठ द्वारा विचार किया जाएगा. 
इस दलील के बाद AMU की तरफ से ही पेश हुए एक और वकील Shadan Farasat ने कहा कि 1981 के एक्ट की सुनवाई नहीं की जा सकती क्योंकि तब की संसद , जो यह एक्ट लेकर आई थी, उसकी तरफ से डिफेंस में इस वक्त कोई मौजूद नहीं है. उन्होंने अदालत से यह तय करने का आग्रह भी  किया कि क्या संघ यानी सरकार के पास संशोधन का बचाव नहीं करने का विकल्प है? जबकि संवैधानिक रूप से  संघ ऐसा करने के लिए बाध्य है.

इसके जवाब में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि एक ही विषय पर कई सुनवाई से बचने के लिए इस मामले में सात जजों की बेंच पर विचार किया जाना चाहिए.  उन्होंने यह भी कहा कि अगर अज़ीज़ बाशा जजमेंट को बरकरार रखा जाता है, तो याचिकाकर्ता 1981 के संशोधन को एएमयू के माइनॉरिटी कैरेक्टर का मामला बनाने के लिए दूसरे मौके के रूप में देखते हैं.  

इस बात पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा कि केंद्र सरकार 1981 के एक्ट का विरोध कैसे कर सकती है? ये एक्ट तो संसद द्वारा पारित है. 
इसका जवाब देते हुए सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के आधार पर केंद्र सरकार इस एक्ट के समर्थन में नहीं है. कोर्ट के फैसले ने सरकार को ये तर्क देने का आधार दिया. संवैधानिक प्रश्नों का सही उत्तर देना सरकार का कर्तव्य है. 
एक और सीनियर वकील नीरज किशन कौल ने इसका जवाब देते हुए कहा कि सरकार ने 1981 एक्ट का प्रयोग, अज़ीज़ बाशा केस के निष्कर्षों को दबाने के लिए किया था जो कि सुप्रीम कोर्ट के ही जजमेंट्स के खिलाफ है.
सरकार या संसद इस तरह का आचरण नहीं कर सकतीं.

बहरहाल, मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है. 7 जजों की बेंच ने मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है. 

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