हमारी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के सितारे ‘प्रतिमानों’ के स्तर पर तो खरे उतर जाते हैं. लेकिन जिम्मेदारियों के स्तर पर नहीं. उनमें पॉलिटकली करेक्ट होने की अद्भुत पिपासा है. लेकिन पैरलली एक और आर्ट इंडस्ट्री है, जो सामाजिक मुद्दों पर मुखर दिखती है. पंजाबी आर्ट इंडस्ट्री. पंजाबी कलाकार किसानों से लेकर आतंकवाद और अन्य तमाम मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखते हैं. इस पर बात करते हैं.
मुखर पंजाबी सेलेब्स
दिलजीत – हालिया ज़िक्र इन्हीं का है. दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन पर कंगना रनौत ने ट्वीट किया. किसान आंदोलन और शाहीन बाग़ की दादी को दिहाड़ी मज़दूर बताया. कहा कि सौ-सौ रुपए में ये आंदोलनों में शामिल होती रहती हैं. जवाब दिया दिलजीत दोसांझ ने. दोनों के बीच सीरीज़ ऑफ ट्वीट्स चले. इस सबके बीच दिलजीत की जिस बात ने सोशल मीडिया पर सबसे ज़्यादा असर छोड़ा, वो ये कि उन्होंने किसानों और उनके मुद्दों पर समझ जाहिर की. दूसरी बात कि हर ट्वीट पंजाबी में किया. लेकिन जहां तमाम और बड़े सितारे चुप हैं, वहां दिलजीत ने खुलकर बात रखी.हालांकि इस पर तापसी पन्नू ने जवाब देते हुए लिखा था कि बॉलीवुड से भी उनके जैसे कई लोग किसानों की बात कर रहे हैं, इसलिए सबको एक तराजू में न तौला जाए.
हरभजन मान - सिंगर हरभजन मान ने ट्वीट किया -
"मैं भाषा विभाग की तरफ से मिल रहे शिरोमणि गायक अवॉर्ड के लिए चुने जाने पर खुद को भाग्यशाली मानता हूं. लेकिन मैं ये अवॉर्ड स्वीकार नहीं कर सकता. मेरे करिअर में लोगों का प्यार सबसे बड़ा अवॉर्ड है. हमारा सारा ध्यान और हमारे सारे प्रयास इस वक्त सिर्फ और सिर्फ किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन के लिए ही समर्पित रहें."
"एक किसान के तौर पर ये हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है कि ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचे. हम किसान हैं, हम लोगों तक खाना पहुंचाते हैं. इसलिए प्लीज़ किसानों के साथ खड़े रहें और उनका साथ दें."मीका सिंह और हनी सिंह जैसे न्यू एज स्टार्स ने भी सोशल मीडिया के जरिए किसानों की झंडाबरदारी की है. सिख वॉलंटियर्स का लोगों को खाना खिलाते हुए का वीडियो शेयर करते हुए मीका सिंह लिख रहे हैं- "जो आवे, रजि जावे." मीका ने ये भी लिखा कि जब बात किसानों की आती है तो कोई भी हिंदू या मुस्लिम नहीं होता, सारे किसान होते हैं. मीका के भाई औऱ मशहूर सिंगर दलेर मेहंदी भी टीवी चैनलों पर किसानों के पक्ष में बात कर रहे हैं, ट्विटर पर भी एक्टिव हैं.
..तो हमें खतरा है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन- जैसे एक एहसास का नामअपनी बात को खुलकर रखने वाले, समाज-सिस्टम की धज्जियां उड़ाने वाले लोग चंद लोगों की नज़रों में हमेशा अखरते रहे हैं. ऐसा ही एक लिखने वाला जन्मा था 9 सितंबर 1950 को. अवतार सिंह संधू उर्फ ‘पाश’. इंकलाबी पंजाबी कवि, जिसके मुक्त विचारों से तिलमिलाए खालिस्तानी उग्रवादियों ने उसे गोली मार दी थी. लेकिन उनके लिखे को मिटा नहीं सके. ऊपर लिखी पंक्तियां पाश की ही हैं.
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है तो हमें उससे ख़तरा है

जब हम इतना पीछे जाते हैं तो पंजाबी कवि शिव कुमार बटालवी का नाम भी याद आता है. वही बटालवी, जिन्होंने ओरिजिनल 'इक कुड़ी, जिदा नाम मुहब्बत' लिखा था. हम-आप में से से कइयों ने ये गीत तब जाना, जब 'उड़ता पंजाब' में इस्तेमाल हुआ. बटालवी ने यूं तो प्रेम पर ही अधिकतर लिखा. लेकिन समाज पर सवाल उन्होंने भी उठाए. BBC को दिए एक इंटरव्यू में बटालवी ने कहा था –
“हिंदुस्तानी ज़िंदगी में जो बात है, वो ये है कि वहां क्लासेज़ हैं. श्रेणियां हैं. बटी हुई हैं. उनमें कोई लोअर मिडिल क्लास का है, कोई मिडिल क्लास का है, उनका दुखांत है. हर आदमी, हर बाप, हर मां एक जुए की तरह उसे (बच्चे को) पढ़ाते हैं और दस साल बाद सोचते हैं कि मुझे इसका रिटर्न मिलेगा. तो मेरे बाप तहसीलदार थे और उनका भी यही ख़्याल था. लेकिन मुझे नहीं पता कि मैं शायर कैसे बन गया.”
क्या इसकी कीमत नहीं चुकानी पड़ती?
इस समय अधिकतर फिल्म स्टार ये सोचकर सामाजिक मुद्दों पर नहीं बोलते कि इसका मतलब राजनीतिक या सामाजिक बाहुबलियों से भिड़ने के तौर पर लगा लिया जाता है. क्या ये बात पंजाबी कलाकारों के जेहन में नहीं आती? क्या वहां ऐसा कोई ख़तरा नहीं?पंजाब के एक लोकगायक हुए थे अमर सिंह ‘चमकीला’. उनके गानों में ड्रग अब्यूज और पितृसत्तात्मक मानसिकता की झलक देखने को मिलती थी. कई बार चमकीता के गाने समाज को जस का तस सामने रखते थे. वे कम समय में ही काफी लोकप्रिय हो गए थे. 80 के दशक में कहा जाता था कि चमकीला के गाने नशे की तरह होते हैं. कहा जाता है कि उस दौर में पंजाब के तमाम ट्रक ड्राइवर चमकीला के गाने ही सुना करते थे. गानों में कुछ ऐसा होता था जो उन्हें ट्रक चलाने के दौरान सोने नहीं देता था. बस कैसेट चालू की और ट्रक लेकर निकल पड़े. चमकीला के साथ उनकी पत्नी अमरजोत भी गाती थीं.
The Wire
वेबसाइट पर चमकीला पर एक विस्तृत रिपोर्ट है. इसमें लिखा है –
“वो (चमकीला) द्विअर्थी गाने गाते थे. उस दौर में ऐसा करना काफी मुश्किल भरा था. अपने गानों में वे उन घटनाओं को ज़िक्र करते थे जो उस वक़्त में पंजाब में हो रहे थे. जैसे- मर्दानगी, शराब पीने की लत, विवाहेत्तर संबंध. द्विअर्थी बोल उनके गीतों का हिस्सा थे. खालिस्तानी आंदोलन चलाने वाले पंजाब को लेकर पवित्रता का विचार रखते थे. उन्हें लगता था कि ये गुरुओं की भूमि है इसलिए यहां पवित्रता ज़रूरी है.”चमकीला के गानों को पंजाब में उस दौर में 'पेंडू' यानी डबल मीनिंग गाने कहा जाता था. अपने गानों की वजह से चमकीला को कई बार धमकियां मिलती रहीं. जालंधर ज़िले के मेहसमपुर में आठ मार्च 1988 को 27 साल के चमकीला और उनकी पत्नी अमरजोत की गोली मारकर हत्या कर दी गई. चमकीला और उनकी मंडली एक कार्यक्रम में गाने जा रही थी. स्टेज की ओर जाते हुए गोली मार दी गई. हैरानी वाली बात ये है कि इस हत्याकांड की कोई रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई. हत्यारों का पकड़ा जाना तो दूर की बात. यानी मुखर होने, बेफ़िक्र होने की कीमत पंजाबी कलाकारों ने भी चुकाई है.
क्यों खुलकर बोलते हैं पंजाबी कलाकार?
इसे काफी आसानी से समझिए. गुरदास मान से लेकर मीका, दिलजीत के गाने देखिए. पंजाबी फिल्में उठाइए. या फिर बॉलीवुड में पंजाब का डिस्क्रिप्शन देखिए. पंजाब का ज़िक्र आते ही खेत, पिंड, किसानी को काफी गौरव के साथ दिखाया जाता है. ये एक कल्चर है पंजाब का, जहां खेत से, पिंड से बढ़कर कुछ नहीं. मैं जब इस बारे में पढ़ रहा था तो मुझे पंजाबी फिल्म अरदास का एक अच्छा रेफरेंस मिला. फिल्म में एक पंजाबी आदमी अपने ट्रैक्टर का लोन नहीं चुका पाता है. तो बैंक वाले ट्रैक्टर ज़ब्त करने के लिए वसूली वालों को भेजते हैं. वो आदमी उनके सामने कहता है कि मुझे कुछ दिन का समय दीजिए, लोन चुका दूंगा. और इस मोहलत के पीछे दुहाई देता है ‘पिंड की इज़्जत’ की. माने मेरे दो बच्चे हैं, एक बूढ़ी मां है टाइप दुहाई नहीं. पिंड की दुहाई.रही बात मुद्दों पर बात करने की, स्टैंड लेने की तो गुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रह है- दसम ग्रंथ. सिखों का पवित्र धर्मग्रंथ. उसकी एक शबद है -
“जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रण मै तब जूझ मरों.”माने– "जब अंत समय आता लगे, जब लगे की अब कोई और विकल्प बचा नहीं है, तो मैं रण में युद्ध करता हुआ, जूझता हुआ मरूं." और यहा तो मरना भी नहीं है. सिर्फ साथ देना है. वरना पाश के शब्दों में – “..मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.”