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फिल्म रिव्यू: गली गुलियां

'गली गुलियां' एक बेहद डार्क फिल्म है. सीने पर रखे बोझ जैसी. इसे देखने के लिए भी साहस चाहिए. ये न सिर्फ एक शानदार साइकोलॉजिकल थ्रिलर है बल्कि एक बेहद ज़रूरी समस्या को पूरी बेबाकी से एड्रेस करती है.

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मनोज बाजपेयी का एक और तोहफा है ये फिल्म.

इस शुक्रवार चार फ़िल्में रिलीज़ हुईं जिन्हें हमारी टीम के अलग-अलग साथियों ने देखा. मेरे हिस्से आई मनोज बाजपेयी की 'गली गुलियां'. और मैं खुश हूं कि मेरे हिस्से ये फिल्म आई.
 

फिल्म का पोस्टर.
फिल्म का पोस्टर.

'गली गुलियां' कहानी है क़ुद्दुस की. वो आदमी जो पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में एक प्रेत की तरह विचर रहा है. बाहरी और अपने अंदर की दुनिया के राक्षसों से लड़ता हुआ. जो एक कबाड़ भरे कमरे में रहता है और खुद भी उस कबाड़ का ही हिस्सा लगता है. उस गंदे, बदबूदार कमरे में उसके साथ अगर कुछ है, तो वो है सीसीटीवी कैमरे से जुड़े मॉनीटर्स. वो कैमरे, जो बाहर गलियों में लगे हैं. उन मॉनीटर्स पर वो लगातार देखता रहता है कि उन गलियों में क्या कुछ चल रहा है.

बाहरी दुनिया से उसे जोड़े रखने वाला इकलौता पुल है उसका दोस्त गणेशी. ये गणेशी ही है जो उसके लिए राशन भी लाता है और उसकी ज़िंदगी में छाया सन्नाटा भी तोड़ता है. क़ुद्दुस बरसों से उन भयावह गलियों में कैद है. शायद वहीं पर भटकता हुआ वो मर भी जाता लेकिन कुछ ऐसा होता है जिससे उसका किसी और ज़िंदगी से कनेक्शन जुड़ जाता है. उसके कमरे की दीवार के उस तरफ कोई बच्चा है. जिसे उसका पिता बेतहाशा पीट रहा है. इतनी बुरी तरह कि लगता है मार ही डालेगा. क़ुद्दुस इस बेचैनी से भर गया है कि कैसे वो उस बच्चे की मदद करे. वो गली-गली भटककर उसे तलाशता है लेकिन कामयाबी नहीं मिलती.

पिटता हुआ बच्चा.
पिटता हुआ बच्चा.

बच्चे का नाम इदरिस है. अपनी मां, छोटे भाई और कसाई पिता के साथ उन्हीं गलियों में रहता है. पिता को कसाई सिर्फ विशेषण के तौर पर नहीं कहा है. वो पेशे से भी कसाई है और स्वभाव से भी. बात-बात पर बच्चे को पीटता है. मां जहां तक हो सके बीच-बचाव करने की कोशिश करती है लेकिन मर्दवादी भारतीय समाज में मांओं की चलती ही कहां है! बच्चा दिन ब दिन पिता के प्रति नफरत से भरता चला जाता है. अपनी, अपनी मां की ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां उसे पिता की देन लगती है. उसकी ज़िंदगी का एक ही मकसद है. अपने पिता से और उन दहशत भरी गलियों से दूर चले जाना.

क्या इदरिस को अपने मकसद में कामयाबी मिलती है? क्या क़ुद्दुस उसकी कोई मदद कर पाता है? असल में मदद की ज़रूरत किसे थी? इदरिस को या क़ुद्दुस को? या किसी और को? किसी प्रेतात्मा की तरह भटकते क़ुद्दुस की ज़िंदगी का सच क्या है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब फिल्म देखकर जान लीजिएगा. यकीन जानिए ये एक उम्दा सिनेमाई अनुभव होगा.

मनोज बाजपेयी हमेशा की तरह बेहतरीन हैं.
मनोज बाजपेयी हमेशा की तरह बेहतरीन हैं.

'गली गुलियां' एक बेहद डार्क फिल्म है. सीने पर रखे बोझ जैसी. इसे देखने के लिए भी साहस चाहिए. ये न सिर्फ एक शानदार साइकोलॉजिकल थ्रिलर है बल्कि एक बेहद ज़रूरी समस्या को पूरी बेबाकी से एड्रेस करती है. उसकी भयावहता का दाह कम किए बगैर. पिताओं की छोटी-छोटी ग़लतियां कैसे बच्चों की ज़िंदगी तबाह कर सकती हैं इसका एहसास कराती है ये फिल्म. पेरेंटिंग के आर्ट से लगभग अंजान हम हिन्दुस्तानियों को इस फिल्म को देखकर ये सबक लेना चाहिए कि अपने बच्चों के साथ कैसे पेश नहीं आना चाहिए.

एक्टिंग की बात की जाए तो मनोज बाजपेयी हमेशा की तरह खरा सोना बनकर चमकते हैं. ये आदमी किरदार और कलाकार का भेद मिटा डालने में माहिर हो चुका है. दुनिया जहान से कटे हुए, ख़्वाबों की दुनिया में विचरते और अपने आसपास की हर चीज़ को शक की निगाह से देखते क़ुद्दुस को मनोज बाजपेयी से बेहतर कोई और निभा ही नहीं सकता था. न सिर्फ उनका अभिनय बल्कि उनकी देहबोली भी पूरी तरह किरदार के मुताबिक़ हो जाती है. झुके हुए कंधे, खोई-खोई नज़र, कंपकंपाती आवाज़ और बिखरा हुआ वजूद. आप क़ुद्दुस को उसी शक भरी नज़र से देखते हैं जिससे वो दुनिया को देखता है. अपने अतीत से लड़ता हुआ क़ुद्दुस किसी बच्चे का भविष्य बचाने के लिए बेकरार है. ये बेकरारी, ये बेचैनी उनके चेहरे की एक-एक रेखा से पढ़ी जा सकती है. कोई हैरानी की बात नहीं है कि उन्हें इस फिल्म के लिए रिलीज़ से पहले ही अवॉर्ड मिल चुका है.

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बच्चे इदरिस के रोल में ओम सिंह कमाल का काम कर गए हैं. लगता ही नहीं ये उनकी पहली फिल्म है. अंदर ही अंदर घुटता एक मासूम बालक उन्होंने बेहद सफाई से साकार किया है. पूरी फिल्म में इस बच्चे के होठों पर हंसी की एक लकीर तक नहीं उभरती. पिता के हाथों ज़लील होते एक बच्चे की छटपटाहट वो कामयाबी से दिखा पाए हैं.

नीरज कबी हर नई फिल्म में अपने आप को और उंचाई की तरफ धकेलते नज़र आते हैं. जल्द ही ये नाम नवाज़ुद्दीन, संजय मिश्रा, इरफ़ान, मनोज बाजपेयी, पंकज कपूर जैसे शानदार अभिनेताओं की जमात में शामिल होने वाला है इसमें मुझे कोई शक नहीं. इदरिस के पिता लियाकत के रोल में वो आपको डरा देते हैं.

नीरज कबी तेज़ी से मस्ट वॉच एक्टर्स की लिस्ट में ऊपर चढ़ते जा रहे हैं.
नीरज कबी तेज़ी से मस्ट वॉच एक्टर्स की लिस्ट में ऊपर चढ़ते जा रहे हैं.

शहाना गोस्वामी बेहद कन्वींसिंग लगती हैं. अपने बेटे के लिए कवच बनने की तमन्नाई मां का किरदार उन्होंने बढ़िया ढंग से निभाया है. रणवीर शौरी जितनी भी बार स्क्रीन पर आते हैं सहज लगते हैं.

ये सब कलाकार तो हैं ही लेकिन फिल्म का सबसे बड़ा किरदार हैं पुरानी दिल्ली की गलियां. बेहद तंग, अंतहीन, सूरज की रोशनी को तरसती संकरी गलियां यहां मेन खलनायक हैं. ये डराती हैं. ये एहसास कराती हैं कि ऐसी हर गली में कहीं कोई एक आदमी क़ैद है. जो रिहाई के लिए छटपटा रहा है. और जिसे हम कभी नोटिस नहीं करते. सिनेमेटोग्राफर काई मीडेनडोर्प का कैमरा इन गलियों को बेहद एक्यूरेसी से कैप्चर करता है. फिर चाहे वो उनका एक दूसरे में उलझते जाना हो या दिन और रात की लाइटिंग का संयोजन. सब कुछ बढ़िया टीपा है उन्होंने.

अंत में डायरेक्टर दीपेश जैन को ख़ास वाला थैंक यू. अपनी पहली ही फिल्म में उन्होंने कुछ अलग सब्जेक्ट चुनने का साहस दिखाया और उसे बड़ी ही कामयाबी से निभाया भी. बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए शाबाशी रहेगी उनको.