The Lallantop
लल्लनटॉप का चैनलJOINकरें

भीड़: मूवी रिव्यू

अनुभव सिन्हा की फिल्म 'भीड़' वोकल है, पर लाउड नहीं.

post-main-image
भीड़ में राजकुमार राव और भूमि

मैंने कॉलेज के दिनों में बाबा स्पीलबर्ग की एक पिक्चर देखी थी, नाम 'शिंडलर्स लिस्ट'. रंगीन ज़माने में बनी ब्लैक एंड व्हाइट पिक्चर. पर इसमें किरदार, कलाकार और फ़िल्मी कारीगरों के इतने रंग थे, सिनेमाई फ्रंट पर ये ट्यूलिप गार्डन-सी खिली मालूम हुई. ऐसी ही एक और मोनोक्रोमिक पिक्चर आई है, 'भीड़'. इसे 'मुल्क' और 'आर्टिकल 15' बनाने वाले अनुभव सिन्हा ने बनाया है. देखते हैं पिक्चर कैसी है?

कहानी क्या है?

कोरोना हुआ. लॉकडाउन हुआ. शहर काम करने गए मजदूर अपने ही देस में परदेसी हो गए. अफ़रातफ़री मच गई. प्रदेश की सीमाएं सील कर दी गईं. अपने घर जाने को सड़कों पर कामगारों का एक हुजूम उमड़ पड़ा. उन्हें लगा शहर में मरने से अच्छा है, अपनी माटी में मरे चलकर. कम से कम दो गज ज़मीन तो नसीब होगी. शहर में तो इतनी भी जगह उनके हिस्से नहीं आएगी. लोग अपना गांव छोड़कर आए थे कि शहर में काम मिलेगा. काम मिला भी. पर अब जब कोरोना ने उनके काम को छीन लिया है, तो उनके लिए शहर में जगह भी नहीं. फिल्म ऐसे ही मजदूरों की तमाम कहानियों को पिरोती है. कोरोना के समय झेले गए उनके दुखों को बेपर्दा कर देती है. कहावत है, जाके पांव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई. पर 'भीड़' के जरिए हम उस फटी बिवाई के दर्द को महसूस कर सकते हैं.

'भीड़' में छोटी-छोटी कई कहानियां हैं. कुछ चौकीदारों की कहानी है. एक मां जो अपनी बेटी को लेकर चिंतित है. एक बेटी जो अपने पिता को लिए घूम रही है. एक पुलिस वाला और एक डॉक्टरनी जो इन सबको जोड़ने वाली कड़ी है. इन कहानियों के सहारे 'भीड़' कई मुद्दे उठाती है. क्लास, कास्ट, रिलीजन और पावर को कोरोना की पीठ पर लादकर ले चलती है.

कमाल राइटिंग

# फिल्म की सबसे अच्छी बात है, इसकी राइटिंग. बहुत ज़्यादा कसी हुई स्क्रिप्ट है. कहीं पर भी ऐसा नहीं लगता कि इस सीन को ट्रिम किया जा सकता था. 'भीड़' को अनुभव सिन्हा ने सौम्या तिवारी और सोनाली जैन के साथ मिलकर लिखा है. फिल्म की कहानी सिर्फ एक दिन की है. ऐसे में इसे फीचर फिल्म की स्क्रिप्ट में ढालना बहुत मुश्किल होता है. इसमें कई खतरे होते हैं कि ये बोरिंग और खिंची हुई लग सकती है. 'भीड़' के साथ ऐसा नहीं है. डायलॉग तो ऐसे हैं, जो कोट किए जा सकते हैं. कई तो ट्रेलर में ही आपने सुने होंगे. जो ट्रेलर में नहीं सुना होगा, ऐसा एक नमूना पेश कर देता हूं. दीया मिर्जा का ड्राइवर घर जा रहे मजदूरों को रेफ़र करते हुए कहता है:

ज़मीन के जानवर हैं, शहर में समंदर जैसा लगता है. तैरना आता नहीं, भूख तो तब भी लगती है. तैरे कि खाएं. कोई न कोई रास्ता तो निकालना पड़ेगा.

सधा हुआ डायरेक्शन

# इस पिक्चर की दूसरी खास बात है. इसका डायरेक्शन. अनुभव सिन्हा से ये शिकायत रहती है, (औरों की भले न हो, मेरी रहती है) वो अतिवाद की ओर अपनी गाड़ी मोड़ देते हैं. चाहे आप 'मुल्क' देखेंगे वहां भी ऐसा है और 'अनेक' में तो ये वाला मामला भयंकर था. यहां ऐसा नहीं है. एक अच्छा डायरेक्टर वो होता है, जिसे खुद को रोकना आए. अनुभव सिन्हा ने 'भीड़' में ठीक ऐसे ही डायरेक्टर साबित हुए हैं. किरदार भी बहुत अच्छे गढ़े गए हैं. बेस्ट बात है, वो किरदार एकपक्षीय नहीं है. एक ओर आपको वॉचमैन बने पंकज कपूर का किरदार गलत लगेगा. पर दूसरी ओर वो सही भी लगेगा. ऐसा ही दिया मिर्जा के कैरेक्टर के साथ भी है. आशुतोष राणा के किरदार के साथ भी ऐसा है. मतलब अनुभव सिन्हा ने इस पिक्चर में थोड़ा ग्रे होने की कोशिश की है. अन्यथा उनके किरदार सही या गलत ही होते हैं. बीच का रास्ता वो कम अपनाते हैं.

# तीसरी खास बात है फिल्म का रियलिज़्म. एक जगह जब यादव और सूर्या की जातियों को लेकर जीप में बातचीत हो रही होती है. वहां मुझे लगा मैं किसी चाय के दुकान पर बैठा ये संवाद सुन रहा हूं. फिल्म में वोकल है. पर लाउड नहीं है. किसी का कोई लंबा मोनोलॉग भी नहीं है. आपसी बातचीत में ही ज़रूरी बातें कही गई हैं. अक्सर फिल्मों में ये होता है कि कुछ महत्वपूर्ण कहना हो, तो उसे अलग से हाइलाइट किया जाता है. यहां इसके विपरीत है. कई बार किरदार बात खत्म करते-करते यूं ही कुछ बोल देता है और आप सोचते हैं क्या ही कमाल बात बोली है. पंचेज को अलग से उभारा नहीं गया है. जैसे एक जगह इंस्पेक्टर यादव ताना मारते हुए लगभग भुनभुनाते हुए कहते हैं: "टीवी नहीं देख सकते, तो व्हाट्सएप ही देख लिया करो महराज, वो बात अलग है दोनों ही पागल बनाते हैं." कितनी महत्वपूर्ण बात है. पर अलग से उभारी नहीं गई है.

रियल लाइफ कोरोना रेफ्रेंस

# कोरोना के दौरान हुई सत्य घटनाओं से उठाए गए रेफ्रेंसेज फिल्म में दिखते हैं. पहला रेफ्रेंस तो पूरा माहौल ही है, जिस पर 'भीड़' बनी है. पर इसके अलावा भी कुछ कोरोना के दौरान हुई मेजर घटनाएं हैं.  वो घटना याद है, जिसमें 13 साल की ज्योति साइकिल पर बैठाकर दिल्ली से अपने पिता को दरभंगा लाई थी. इसका रेफ्रेंस आपको पिक्चर में बाकायदा एक अलग कहानी के तौर पर मिलेगा. तबलीगी जमात से कोरोना फैलने की खबर को भी फिल्म का हिस्सा बनाया गया है. और भी कई रेफ्रेंस हैं, पर उसके लिए फिल्म देखिए. ये तो ट्रेलर वाले रेफ्रेंस मैंने आपको बता दिए.

द पंकज कपूर शो

# लीड रोल में हैं, राज कुमार राव. उन्होंने बहुत बारीक काम किया है. उन्होंने सिर्फ अपने कैरेक्टर की भंगिमा ही नहीं पकड़ी है. उसके भाव भी खुद में उतारे हैं. सिस्टम का हिस्सा होकर भी खुद को सिस्टम का पार्ट न महसूस करवाने वाली फीलिंग राजकुमार ने अद्भुत ढंग से आत्मसात की है. बेहद सधी हुई ऐक्टिंग, जितनी कैमरे के सामने चाहिए. भूमि पेडनेकर फिल्म में प्रैक्टिशनर मेडिकल स्टूडेंट बनी हैं. उन्होंने न बोलकर भी बहुत कुछ बोला है. एक सीन है जहां हताश राजकुमार दोबारा से खुद में जोश भरके खड़े होते हैं और भूमि से कुछ बातें कहते हैं. यहां भूमि का कोई डायलॉग नहीं है. पर उनके एक्स्प्रेशन बहुत ज़्यादा अच्छे हैं. पूरी फिल्म में ये उनकी ऐक्टिंग का हाइलाइट है. जहां कुछ न करके वो बहुत कुछ करती हैं. आशुतोष राणा का काम भी ऐप्ट है. वो इतने मंझे हुए अभिनेता हैं कि उनको ऐक्टिंग करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी है. पंकज कपूर, भाई साहब क्या ऐक्टिंग की है. बिल्कुल वो वॉचमैन ही लगे हैं. अब इससे बड़ी तारीफ़ क्या होगी! जब आप किसी किरदार में ऐक्टर को भूल जाएं. आदित्य श्रीवास्तव की परफॉरर्मेंस मुझे बहुत अच्छी लगी. एक तो पुलिस वाला, दूसरे खुद में ऊंची जाति का होने की अकड़. कमाल काम है उनका. दिया मिर्जा का काम ठीक है. बाक़ी सभी किरदारों ने भी बहुत अच्छा काम किया है.  

जातिगत दंभ, धार्मिक नफ़रत, नाकारा सिस्टम, अनाथ नागरिक 'भीड़' में सब दिखेगा. कोरोना और लॉकडाउन सिर्फ बहाना है, फिल्म का असली मकसद सिस्टम के थॉट प्रॉसेस को दिखाना है. भीड़' सिस्टम और समाज का बैलेंस है. एक ज़रूरी पिक्चर है. देख डालिए. 

वीडियो: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आवाज़ 'भीड़' के ट्रेलर से गायब करने की वजह T-Series ने नहीं बताई है