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मुख्यमंत्री बदलने वाले नवजोत सिंह सिद्धू अपनी किस्मत नहीं बदल पाए

जानिए, सिद्धू के छह अनसुने क़िस्से.

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बीजेपी से कांग्रेस तक का सफ़र किया. मुख्यमंत्री बदलवाया. सीएम की दावेदारी पेश की. मगर पार्टी के साथ-साथ ख़ुद भी चुनाव हार गए. (फ़ोटो: PTI)
पंजाब में मुख्यमंत्री बदलने वाले नवजोत सिंह सिद्धू अपनी किस्मत नहीं बदल पाए. 2022 पंजाब विधानसभा चुनाव का अंतिम नतीजा आ चुका है. पांच सालों से सत्ता चला रही कांग्रेस दूसरे नंबर पर खिसक चुकी है. आम आदमी पार्टी की लहर में स्थापित पार्टियों का तंबू उखड़ गया. स्थापित तो सिद्धू भी थे. कांग्रेस में. कैप्टन अमरिंदर सिंह से अदावत के सूत्रधार थे. बाद में कैप्टन को इस्तीफ़ा भी देना पड़ा. सिद्धू शपथग्रहण का अरमान लिए बैठे रह गए. कांग्रेस आलाकमान ने चरणजीत सिंह चन्नी को आगे कर दिया. सिद्धू मन मसोसकर रहे. छह महीने बाद चुनाव की बारी आई. साथ में चुनौती भी. कांग्रेस के सामने. सीएम कैंडिडेट कौन होगा. सिद्धू ताल ठोक रहे थे. उनके नाम का शोर भी था. मगर पार्टी उधर जाने के लिए तैयार नहीं हुई. चन्नी को बरकरार रखा गया. उम्मीद बड़ी थी. टूट गई. कांग्रेस तो हारी ही. चन्नी भी हारे. दोनों सीटों से. सिद्धू भी कहां बचे. उनके हिस्से भी हार आई है. अब बात उनके राजनीतिक अस्तित्व पर पहुंच गई है.
सिद्धू का आगे क्या होगा, ये तो आने वाला वक़्त बताएगा. लेकिन सिद्धू ने पीछे क्या किया, ये तो हम आपको बता सकते हैं. पढ़िए.
1999 का साल था. अमृतसर के रहने वाले नवजोत सिंह सिद्धू 16 साल के इंटरनेशनल क्रिकेट के बाद रिटायरमेंट ले चुके थे. घर पर आराम कर रहे थे. सोच रहे थे, आगे क्या. उनके साथ के क्रिकेटर तीन काम करते दिख रहे थे. क्या करें, क्या न करें - कमेंट्री करने लगो. सिद्धू कमेंट्री क्या खाक करते. चुप्पा थे. बल्कि महाचुप्पा. ड्रेसिंग रूम में भी और टीम मीटिंग में भी उन्हें शायद ही किसी ने बतियाते देखा हो. - क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेशन में आ जाएं. ये भी बहुत मुश्किल था. सिद्धू गुस्सैल थे. मुंहफट थे. क्रिकेट मैनेजमेंट महीन काम है. मीठा बोलने वाले. नीचे से काटने वाले. - क्रिकेट कोचिंग करने लगें. सिद्धू यही कर सकते थे. यही करने की सोच रहे थे. मगर अभी आराम का टाइम था. तो उन्होंने सोचा कब तक राबिया और करण के साथ खेलते रहेंगे. वो दोनों चले गए स्कूल. वाइफ नवजोत चली गईं हॉस्पिटल. तो एक ऐसी ही खाली दोपहर में सिद्धू स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा उठाकर पढ़ने लगे. पढ़ते रहे. रुकते रहे. सोचते रहे. फिर पढ़ने लगे. बकौल सिद्धू, 'इस किताब ने मेरे भीतर की गुप्त ऊष्मा को रिलीज कर दिया था. एक दम से मेरी वाचा खुल गई. मेरा सोया पड़ा विट जिंदा हो गया.' और इसी पल सिद्धूइज्म की पैदाइश हुई. सिद्धूइज्म यानी नवजोत सिंह सिद्धू का क्रिकेट कमेंट्री का अंदाज. देसी मारक. उनकी कमेंट्री मशहूर हुई. वह नए सिरे से पूरे देश में दुलार पाने लगे. जल्द ही वह कमेंट्री यानी कि आवाज से टीवी यानी शकल वाले अवतार में भी आ गए. और उन पर नजर पड़ी बीजेपी के पॉलिटिकल मैनेजर्स की. BJP के गेमचेंजर बने सिद्धू - 2004 का वक्त. भारत की टीम पाकिस्तान दौरे पर थी. सिद्धू बतौर कमेंटेटर पहुंचे थे. सब उन्हें एक दिन मैच के बीच में ही ऑन एयर बधाई देने लगे. क्योंकि यहां भारत में ये खबर फैल चुकी थी कि सिद्धू बीजेपी में शामिल हो रहे हैं. और मई 2004 में होने वाले लोकसभा चुनावों में अमृतसर की सीट से चुनाव लड़ेंगे. सिद्धू अपनी ट्रेड मार्क हंसी बुक्का फाड़ ढंग से हंसे और देशभक्ति व सेवा जैसे पद बांचने लगे. मगर असल में प्लानिंग क्या थी. बीजेपी की. सिद्धू की. अमृतसर की सीट ही क्यों. तीन वजहें थीं. - बीजेपी के पास पंजाब में कोई युवा, ऊर्जा से भरा जट सिख चेहरा नहीं था. बीजेपी को पंजाब में हिंदुओं की और उस पर भी बनियों की पार्टी माना जाता था. सिद्धू के आने से वह कमी दूर हो रही थी. - अमृतसर कांग्रेस के अभेद्य दुर्ग में तब्दील होता जा रहा था. 1991, 1996 और 1999, तीन बार यहां से कांग्रेस के रघुनंदन लाल भाटिया जीत रहे थे. सिर्फ 1998 में ही बीजेपी किसी तरह जीत पाई थी. उनकी पार्टनर अकाली दल चतुर थी. खुद धर्म की यानी पंथक राजनीति करती थी. मगर उसके केंद्र अमृतसर से लोकसभा चुनाव लड़ने से बचती थी. बीजेपी को लगा कि सिद्धू गेम पलट सकते हैं. पार्टी की कैलकुलेशन सही साबित हुई. - बीजेपी इंडिया शाइनिंग के नारे पर सवार थी. उसे ऐसे सफल प्रफेशनल चाहिए थे, जो पार्टी के इस दर्शन का जीता-जागता नमूना हों. बीजेपी के पास ग्लैमर के नाम पर फिल्म स्टार तो खूब थे, मगर क्रिकेटरों के नाम पर सिर्फ चेतन चौहान जो यूपी के अमरोहा से चुनाव जीतते थे. मगर वह नई पीढ़ी के लिए जाना पहचाना चेहरा नहीं थे. सिद्धू के आने से पूरे देश में अपील रखने वाला एक स्टार प्रचारक मिल जाता. - नवजोत सिंह सिद्धू देश लौटे. बीजेपी के पक्ष में, अबकी बारी फिर अटल बिहारी का नारा लगाया. चुनाव में उन्हें कुल पड़े वोटों का 55 फीसदी से भी ज्यादा मिला. उन्होंने सिटिंग एमपी रघुनंदन भाटिया को 1 लाख 10 हजार वोटों के बड़े अंतर से हराया. ये जीत अहम थी. क्योंकि 2004 के चुनाव में बीजेपी की लहर उतार पर थी. पंजाब में सिटिंग पार्टी कांग्रेस थी. कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री थे. उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी का मजबूत किला ध्वस्त रहा. जेल और जेल के बाद - दिसंबर 2006 में सिद्धू को रोड रेज वाले पुराने मामले में तीन साल की जेल की सजा हुई. उन्होंने नियमों के मुताबिक लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. फिर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अर्जी पर सुनवाई करते हुए सजा सस्पेंड कर दी. अगले बरस पंजाब में विधानसभा चुनाव हुए. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी गठबंधन सत्ता में लौटा. अमृतसर लोकसभा सीट पर भी बाई इलेक्शन हुए. सिद्धू ने पंजाब सरकार में वित्त मंत्री सुरिंदर सिंगला को 77 हजार वोटों से हराया. - इसके बाद हालात बदलने लगे. सूबे में अपनी सरकार थी. मगर सिद्धू को लग रहा था कि उनकी पूछ नहीं बढ़ी. बीजेपी आलाकमान में वह अटल बिहारी गुट के माने जाते थे. मगर राज आडवाणी औऱ राजनाथ सिंह का चल रहा था. पार्टी उन्हें दूसरे चुनावों में स्टार कैंपेनर के तौर पर इस्तेमाल करती. मगर पंजाब में उनकी अहमियत बढ़वाने के लिए प्रकाश सिंह बादल से पैरवी नहीं करती. सूबे की सरकार का हाल इस बार अलग था. अब तक सीनियर बादल के हिसाब से चीजें चलती थीं. मगर इस बार उनके बेटे सुखबीर सिंह और बेटे के साले विक्रम सिंह मजीठिया राज कर रहे थे. विक्रम सिंह अमृतसर लोकसभा के तहत पड़ने वाली विधानसभा मजीठा से चुनकर आए थे. उनका अपना दरबार था और अपनी प्राथमिकताएं. मगर सिद्धू ने तब चुप रहना पसंद किया. - 2009 में लोकसभा चुनाव आए. कांग्रेस ने पंजाब में धमाल जीत हासिल की. मगर सिद्धू जनता से लगातार जुड़े रहे थे. इसलिए वह फिर से सांसद चुने गए. हालांकि जीत का अंतर 60 हजार पर आ गया. - इस दौरान अमृतसर की ही एक बुजुर्ग नेता और बादल सरकार में मंत्री लक्ष्मीकांत चावला चर्चा में रहीं. वह सख्त और ईमानदार छवि वाली नेता थीं. जनसंघ के दिनों से पार्टी से जुड़ी थीं. उनका रवैया बादल सरकार के लिए सहज नहीं था. अकाली दल के दबाव में पार्टी ने चावला को किनारे करना शुरू कर दिया. 2012 के विधानसभा चुनाव में चावला का टिकट काट दिया गया. इस दौरान सिद्धू चुप रहे. बाद में उन्हें समझ आया होगा कि इस तरह की चुप्पी कभी अपने घर में भी सन्नाटा ला सकती है. नेतागीरी में सिद्धू का डाउनफॉल और टीवी पर फोकस 2012 में पंजाब के विधानसभा चुनाव हुए. चुनावों से कुछ महीने पहले सिद्धू की पत्नी नवजोत कौर सिद्धू ने सरकारी डॉक्टरी की नौकरी से इस्तीफा दिया. अमृतसर ईस्ट से चुनाव लड़ीं. सिद्धू ने पत्नी के लिए मोर्चा संभाला. बोले, एमएलए दे नाल, एमपी फ्री (विधायक के साथ सांसद मुफ्त पाओ). नवजोत कौर चुनाव जीत गईं. तमाम राजनीतिक पंडितों को चौंकाते हुए अकाली दल बीजेपी सत्ता में फिर लौटी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब अकाली दल ने बैक टु बैक चुनाव जीते हों. जीत का श्रेय डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल और उनके साले मजीठिया के पॉलिटिकल मैनेजमेंट को दिया गया. और यहीं से बीजेपी और सिद्धू का डाउनफॉल शुरू हुआ. इन चुनावों में अकाली दल तो जीती थी, मगर बीजेपी बुरी तरह हारी थी. जालंधर से कैबिनेट मंत्री मनोरंजन कालिया और लुधियाना से कैबिनेट मंत्री सतपाल गोसाईं जैसे तमाम सीनियर नेता खेत रहे. अकाली दल अब तक गांव की राजनीति संभालती थी. जबकि बीजेपी शहर की. गणित ये थी कि अकालियों का किसानों के बीच बेस है. शहरों में सिर्फ सिख वोटर नहीं होते. हिंदू भी खूब हैं. कारोबारी भी हैं. और उनके बीच बीजेपी बढ़िया विकल्प है. मगर 2012 के बाद सुखबीर अकाली दल को शहरों में फैलाना चाहते थे. बीजेपी अपनी ही नींद में पैबस्त थी. चुनावी हार के बाद संगठन के व्यक्ति के नाम पर बादलों के खास कमल शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. पार्टी के लोग इसमें ही खुश होते रहे कि विधायक हारे तो क्या, राज्य सरकार में हिस्सेदारी तो है. अमृतसर में मजीठिया ने बीजेपी को अपने ढंग से मैनिपुलेट करना शुरू किया. उन्होंने बादल कैबिनेट में अमृतसर नॉर्थ के विधायक अनिल जोशी को मंत्री बनाया. सिद्धू परिवार को लगा कि ये उनकी राजनीतिक ताकत कम करने की साजिश है. नवजोत कौर भी बादल सरकार का संसदीय सचिव के तौर पर हिस्सा थीं. मगर जब तब अपनी नाराजगी जताते लगीं. नवजोत भी आलाकमान तक शिकायतें पहुंचाने लगे. मगर पार्टी में उस वक्त दिल्ली का भी कोई एक मालिक नहीं था. मोदी दौर आने में कुछ वक्त था. तो सिद्धू नेतागीरी से हटकर टीवी पर ज्यादा फोकस करने लगे. बिग बॉस में चले गए. हालांकि एक महीने बाद ही नरेंद्र मोदी के बुलावे पर उन्हें शो छोड़कर प्रचार के लिए गुजरात आना पड़ा. तब भी बड़ी बातें बनाई गईं. कि जब पता था कि अगले महीने हिमाचल और गुजरात में चुनाव हैं तो जाने की जरूरत ही क्या थी. नवजोत की पत्नी नवजोत बोलीं. ईमानदार आदमी है मेरा पति. घर चलाने के लिए काम करना पड़ता है. नेतागीरी से राशन नहीं आता. विधानसभा चुनावों के बाद सिद्धू टीवी में और सक्रिय हो गए. जून 2013 में वह अमृतसर के ही कॉमेडियन कपिल शर्मा के शो से जुड़ गए. BJP से मनमुटाव नवजोत नाम के मियां-बीवी. एक सांसद, एक विधायक. बादलों को बुरी तरह खटकने लगे थे. उन्होंने दोनों की पॉलिटिक्स खत्म करने के लिए फुलप्रूफ प्लान बनाया. नवजोत पार्टी से लगातार नाराज चल रहे थे. जून 2013 में नरेंद्र मोदी बतौर चुनाव कैंपेन कमेटी चेयरमैन पठानकोट में रैली करने आए. सिद्धू इससे नदारद रहे. फिर राजनाथ सिंह अमृतसर आए. सिद्धू तब भी नहीं आए. पार्टी को यही समझ आया कि ज्यादा भाव नहीं देना. इस समझाइश के पीछे बादल थे. 2014 के चुनाव आए तो सुखबीर सिंह बादल पहुंचे मोदी के रणनीतिकार अरुण जेटली के पास. जेटली, अब तक राज्यसभा के सांसद बनते आए थे. उन्हें देश में मोदी लहर दिख रही थी. उन्हें लगा, मैं भी जनता के बीच से चुनकर आऊं. राजनीति में पूछ बढ़ेगी. राज्यसभा तो बैकडोर सेफ एंट्री मानी जाती है. वह दिल्ली से चुनाव लड़ना चाहते थे. यहीं डीयू की स्टूडेंट पॉलिटिक्स की थी. इमरजेंसी के पहले स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे थे. यहीं जीवन भर वकालत की. मगर बादल ने कहा, आप अमृतसर से पर्चा भरिए. बाकी काम हमारा. जेटली को लगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी उभार पर है. मामला फंस सकता है. तो उन्होंने हामी भर दी. सिद्धू भी जेटली के नाम पर मन मारकर रह गए. जेटली को ये चाल महंगी साबित हुई. जैसे ही सोनिया गांधी को पता चला कि जेटली अमृतसर से चुनाव लड़ रहे हैं. उन्होंने कैप्टन अमरिंदर सिंह को फोन लगाया. कैप्टन कांग्रेस आलाकमान से नाराज चल रहे थे. पंजाब में कांग्रेस में उनकी नहीं चल रही थी. राहुल गांधी नए-नए नेता बनाने में लगे थे. मगर वह मैडम को इनकार नहीं कर पाए. पहुंच गए अमृतसर चुनाव लड़ने. पूरे देश में मोदी लहर. कांग्रेस के बड़े बड़े दिग्गज और मंत्री ढेर. मगर एकमात्र अनहोनी अरुण जेटली के लिए बच रखी थी. वह अमरिंदर सिंह से चुनाव हार गए. जेटली और बादल इतने कॉन्फिडेंस में कि उन्होंने नवजोत सिद्धू को प्रचार के लिए भी नहीं कहा. पति-पत्नी अपने में सीमित रहे. और फिर सिमटते ही चले गए. नवजोत के तीखे तेवर चुनाव के बाद नवजोत कौर के तेवर और तीखे हो गए. वह लगातार प्रकाश सिंह बादल पर निशाना साधती रहीं. दिल्ली में मोदी-अमित शाह युग आ चुका था. जिन राज्यों में बीजेपी जूनियर पार्टनर थी, वहां अब रोल रिवर्सल की तैयारी थी. इसी के तहत महाराष्ट्र में शिवसेना से पीछा छुड़ा लिया गया. हरियाणा में भजन लाल के सुपुत्र कुलदीप बिश्नोई को ठेंगा दिखा दिया गया. पंजाब में भी इस तरह के चर्चे होने लगे. कहा गया कि बीजेपी अब अकाली दल का कुशासन ढोने को तैयार नहीं. नवजोत सिंह सिद्धू को नए सिरे से मनाया गया. चर्चे हुए कि उन्हें पंजाब बीजेपी अध्यक्ष बनाया जा सकता है. संघ के निर्देश में वह गांव-गांव यात्रा करेंगे. पार्टी का आधार बढ़ाएंगे. मगर सिद्धू के बोल वचन भारी पड़े. दिल्ली में, संघ में उनकी पैरवी करने वाले कम थे, विरोधी ज्यादा. तो सिद्धू की जगह होशियारपुर से सांसद, पुराना काडर और दलित चेहरा विजय सांपला को कमान सौंप दी गई. सिद्धू अब बीजेपी में अपनी इनिंग खेल चुके थे. रिटायरमेंट की तैयारी थी. पर ये पॉलिटिक्स थी. यहां एक जगह से रिटायर आदमी, दूसरी जगह डेब्यू करता है. पंजाब में अब आम आदमी पार्टी के चर्चे थे. मोदी लहर में जब केजरीवाल समेत झाड़ू पार्टी के तमाम दिग्गज ध्वस्त हुए, पंजाब ने उन्हें पॉलिटिकल ऑक्सीजन दी. चार-चार कैंडिडेट जीतकर लोकसभा पहुंचे. केजरीवाल समझ गए. दिल्ली के बाद फोकस की गुंजाइश यहीं है. मौजूदा नेताओं में वकील फूलका और कॉमेडियन भगवंत मान अहम थे. पर विस्तार की जरूरत नहीं. सिद्धू के चर्चे होने लगे. सब तरफ शोर बरप गया. नवजोत सिंह सिद्धू अब अपनी ईमानदारी की बात करते हुए आम आदमी पार्टी में चले जाएंगे. बीजेपी इस शोर से चौकन्ना हुई. नवजोत सिंह सिद्धू को मनाने के लिए राज्यसभा की सीट ऑफर की गई. वह मान गए. अप्रैल 2016 में सांसद बन गए. लगा कि बीजेपी अपनी गिल्ली उड़ने से बचा ले गई. मगर तीन महीने बाद ही तस्वीर बदल गई. विधायक नवजोत कौर अप्रैल 2016 में ही फेसबुक पर लिख चुकी थीं. बीजेपी से इस्तीफा, बोझ हुआ कम. और अब 18 जुलाई, 2016 को सांसद नवजोत ने भी अलविदा की नमाज पढ़ दी. राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया. आम आदमी पार्टी की तरफ से स्वागत संदेश आ गए. और दोपहर की हेडलाइंस बदल गईं. ---- मगर रद्दोबदल के इस खेल में सिद्धू भी बदल गए. एक तरफ़ आप में जाने की चर्चा चलती रही. दूसरी तरफ़ सिद्धू ने कांग्रेस में एंट्री ले ली. जानकार बताते हैं कि सिद्धू को कांग्रेस में प्रशांत किशोर और प्रियंका गांधी लेकर आए थे. 2017 का पंजाब विधानसभा चुनाव कांग्रेस के पक्ष में गया. पार्टी भी जीती. सिद्धू भी. उन्हें मंत्रालय मिला. नए होने के बावजूद तीसरे नंबर पर शपथ ली. लेकिन कैप्टन से उनकी पटरी नहीं खा रही थी. खींचतान चलती रही. सवा दो साल बाद पोर्टफ़ोलिया बदल दिया गया. कैप्टन ने सिद्धू को नॉन-परफ़ॉर्मर बता दिया. सिद्धू की नाराज़गी बढ़ गई. मंत्रीपद से इस्तीफ़ा दे दिया. नया मंत्रालय कभी जॉइन नहीं किया. बोले, मुझे हल्के में नहीं लिया जा सकता. बात में दम था. जुलाई 2021 में पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बने. दो महीने के भीतर ही कैप्टन की कुर्सी ख़तरे में आ गई. पार्टी के अंदर विद्रोह हो चुका था. आलाकमान इसके लिए तैयार नहीं था. लेकिन कुछ तो करना था. कैप्टन को समझाने की कोशिश की गई. समझाइश नाकाम रही. कैप्टन ने बेमन से इस्तीफ़ा दिया. इसके बावजूद सीएम की कुर्सी फिर सिद्धू के पास नहीं आई. चन्नी के पास चली गई. अब नाराज़ होने की बारी सिद्धू की थी. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया. बोले, कांग्रेस की सेवा करता रहूंगा. सेवा में मेवा की आस थी. नहीं मिला. पार्टी ने चन्नी को सीएम कैंडिडेट के तौर पर बरकरार रखा. अब नवजोत सिंह सिद्धू मुख्यमंत्री तो छोड़िए, विधायक की कुर्सी भी नहीं बचा पाए हैं.