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इंदिरा सरकार का वो वकील, जिसने इमरजेंसी लगते ही मेज़ पर इस्तीफ़ा पटक दिया था!

भारत के क़ानूनी इतिहास के 'पितामह' गुज़र गए. मुख्य न्यायधीश से लेकर सुप्रीम कोर्ट के सब दिग्गज वकीलों ने उनके जाने पर श्रद्धांजलि दी है.

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fali s nariman
फ़ली सैम नरीमन (1929-2024)
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21 फ़रवरी 2024 (Updated: 22 फ़रवरी 2024, 10:22 IST)
Updated: 22 फ़रवरी 2024 10:22 IST
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25 जून, 1975. देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी. ये आज़ाद भारत के लोकतंत्र पर पहला सबसे प्रत्यक्ष हमला था. विपक्ष जेल में, नागरिकों की स्वतंत्रताएं निलंबित, प्रेस पर रोक. दो-एक दिन के अंदर कई लोगों ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़े दिए, कुछ से दिलवाए गए. साल 1972 में भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (Addl. SGI) बनाए गए थे, फ़ली सैम नरीमन. उनका काम तो था कि बतौर एक क़ानून अधिकारी, वो सरकार को सलाह दें और अदालत में सरकार का पक्ष रखें. मगर इमरजेंसी घोषणा के ठीक एक दिन बाद उन्होंने क़ानून मंत्री एच आर गोखले को फ़ोन किया. अपना पक्ष रखा और फ़ोन रखते ही दिल्ली के लिए एक चिट्ठी लिखी. एक पंक्ति का इस्तीफ़ा. कोई हीरो-नुमा पैराग्राफ़ नहीं, कोई बड़ी-बड़ी बात नहीं. बस एक पंक्ति और भेज दिया.

इंदिरा सरकार के दूसरे सबसे बड़े वकील ने इस्तीफ़ा दे दिया, मगर ख़बर उड़ नहीं पाई. प्रेस पर सरकार का पूरा नियंत्रण था. अंतरराष्ट्रीय अख़बारों में कुछ कवरेज मिली, मगर वो भारत में कोई नहीं पढ़ रहा था. नरीमन ने ख़ुद इमरजेंसी के बारे में बस इतना लिखा,

“आपातकाल का सबसे बड़ा सबक़ था कि हमें संवैधानिक पदों पर बैठने वालों का भरोसा नहीं करना चाहिए. इन पदाधिकारियों ने हमें धोखा दिया – मंत्रियों, सांसदों, न्यायाधीशों, सर्वोच्च न्यायालय और यहां तक कि भारत के राष्ट्रपति ने भी.”

बुधवार, 21 फरवरी की सुबह संवैधानिक वकील, न्यायविद् और भारत के पूर्व-अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल फ़ली एस. नरीमन की देह बीत गई. वो 95 बरस के थे. दी लल्लनटॉप की तरफ़ से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.

भारतीय क़ानूनी इतिहास के ‘भीष्म-पितामह’

जिन कुछ लोगों के लिए लिखा जाता है ‘युग का अंत’, फ़ली नरीमन वही हैं – भारतीय क़ानूनी इतिहास का एक युग.

10 जनवरी, 1929 को एक पारसी ख़ानदान में पैदा हुए. म्यांमार के रंगून में. अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपने माता-पिता के साथ बर्मा से भारत तक की 'साहसिक यात्रा' का ज़िक्र किया. दूसरे विश्व युद्ध के परिदृष्य में एक लंबी यात्रा करनी पड़ी. और, इस यात्रा में एक दुष्ट हाथी ने उन्हें और उनके परिवार को लगभग रौंद दिया था. फिर अंततः भारत आ गए. स्कूली शिक्षा शिमला से की. इसके बाद बॉम्बे चले आए. सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से अर्थशास्त्र और इतिहास में ग्रैजुएशन किया. पिताजी चाहते थे कि वो सिविल की परीक्षा लिखें, मगर घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. क़ानून उनके लिए आख़िरी चयन था. सो 1950 में गवर्नमेंट लॉ कॉलेज से क़ानून की डिग्री ली. उसी साल नवंबर में उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट से वकालत शुरू कर दी.

साल 1957 में उन्हें हाई कोर्ट जज बनने का निमंत्रण मिला. तब वो केवल 38 साल के थे, यानी उनकी उम्र जज की योग्य उम्र से कम थी. उन्होंने नियुक्ति से इनकार कर दिया. 22 बरस हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने के बाद 1971 में उन्हें आला अदालत में वरिष्ठ वकील नियुक्त किया गया.

फ़ली एस नरीमन

मई, 1972 में इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें देश का अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बना दिया. वो क़ानून अधिकारी, जो सॉलिसिटर-जनरल और अटॉर्नी-जनरल के साथ काम करता है. (समझ के लिए उन्हें सरकार का वकील कह सकते हैं.)

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7 दशकों के बृहद अनुभव में उनका सबसे बेजोड़ काम संवैधानिक क़ानून (constitutional law) के क्षेत्र में है. बार ऐंड बेंच के साथ एक इंटरव्यू में उनसे उनके पसंदीदा क़ानूनी क्षेत्र के बारे में पूछा भी गया था. उन्होंने बताया था,

“मुझे याद है बांग्लादेश के विदेश मंत्री मुझसे मिलने आए थे. उन्हें बांग्लादेश के संविधान का मसौदा तैयार करना था. मैं तब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल था. मैंने उन्हें कुछ आइडिया दिया, लेकिन वो संविधान कुछ सालों से ज़्यादा चल नहीं पाया. संविधान लिखना आसान है. हर जगह से विचार उधार लेना कोई बड़ी बात नहीं है. संविधान को कैसे लागू किया जाए, ये एक गंभीर चुनौती है और आकर्षक भी.”

अपनी एक्सपर्टीज़ के अलावा भी फ़ली नरीमन ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संवैधानिक सुधारों, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और आम आदमी की न्याय तक पहुंच के लिए अपना जीवन गुज़ार दिया. इसके लिए उन्हें 1991 में पद्म भूषण, 2002 में न्याय के लिए ग्रुबर पुरस्कार और 2007 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.

इस बीच 1999 में उन्हें राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा सदस्य नियुक्त किया. 2005 तक वो सदन का हिस्सा रहे.

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1991 से 2010 तक बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष भी थे. और, ऐसा नहीं कि केवल भारत में उनके काम और ओहदे की सराहना थी. उनकी प्रसिद्धि भारत की सीमाओं से परे है. 1989 से 2005 तक इंटरनैशनल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स (ICC) पैरिस के इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन के उपाध्यक्ष रहे. साल 1995 से 1997 तक इंटरनैशनल कमीशन ऑफ़ ज्यूरिस्ट्स, जिनेवा की कार्यकारी समिति के अध्यक्षता भी रहे.

किन केसों के लिए याद करेंगे?

अपने दिग्गज करियर में नरीमन ने कई ऐतिहासिक केस लड़े हैं, जिन्होंने भारतीय क़ानून को आकार दिया. कुछ मापदंड तय हुए.

# गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य

पंजाब में दो भाइयों - हेनरी और विलियम गोलकनाथ - के पास 500 एकड़ कृषि ज़मीन थी. हालांकि, 1953 में पंजाब सरकार पंजाब सुरक्षा और भूमि स्वामित्व अधिनियम लेकर आ गई थी. इसके तहत एक व्यक्ति केवल 30 मानक एकड़ (या 60 सामान्य एकड़) ज़मीन रख सकता है. इसलिए गोलकनाथ परिवार को बाक़ी ज़मीन छोड़ने के लिए कहा गया. भाइयों ने पंजाब सरकार के ऐक्ट की वैधता को चुनौती दी.

फ़ली एस नरीमन

नरीमन इस केस में हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे, जिन्होंने भाइयों का समर्थन किया. उन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद-368 के तहत संसद संविधान में संशोधन करने की शक्ति में मौलिक अधिकारों के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकती. ग्यारह जजों की बेंच ने छह बनाम पांच की बहुमत से गोलकनाथ भाइयों के पक्ष में फ़ैसला आया, कि संसद ऐसा क़ानून नहीं बना सकती जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो.

# भोपाल गैस त्रासदी

साल 1984. भोपाल में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के स्वामित्व वाले एक पेस्टिसाइड प्लांट से 42 टन ज़हरीले रसायन लीक हो गए थे. नतीजा ये कि उस दिन और आने वाले सालों में हज़ारों लोगों की मौतें हुईं. पर्यावरण को भारी क्षति हुई. साल 1988 में केस सुप्रीम कोर्ट में गया. इस केस में नरीमन ने यूनियन कार्बाइड की तरफ़ से दलील दी थी. उन्होंने अदालत के बाहर पीड़ितों को 470 मिलियन डॉलर (3800 करोड़ रुपये) दिलवाए. हालांकि, जब बहुत सालों बाद उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें उस केस का अफ़सोस है, तो उन्होंने दी हिंदू के इंटरव्यू में कहा,

हां. मुझे ऐसा लगता है. क्योंकि मुझे उस समय लगता था कि ये केस मेरी उपलब्धियों में चार चांद लगा देगा. उस उम्र में आदमी महत्वाकांक्षी होता ही है. लेकिन मुझे बाद में पता चला कि ये कोई केस नहीं था, त्रासदी थी. और एक त्रासदी में कौन सही है, कौन ग़लत, सभी उचित भावनाओं के कारण प्रभावित हो जाते हैं.

# राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) केस

NJAC ऐक्ट. जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका का दख़ल. NJAC ने अनुच्छेद-124ए सम्मिलित करने के लिए संविधान में संशोधन किया. इसने न्यायिक नियुक्तियों के लिए छह-व्यक्ति की कमेटी बनाई गई.

नरीमन ने 99वें संविधान संशोधन अधिनियम के खिलाफ तर्क दिया. उनकी दलील थी कि अगर सरकार को जजों के चयन और नियुक्ति में भाग लेने दिया जाता है, तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ेंगा. बेंच के पांच में से चार जज इस दलील से सहमत हुए और 2015 में NJAC को रद्द कर दिया.

# TMA पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य

2003 का एक लैंडमार्क केस, जिसने अल्पसंख्यकों के अधिकारों और शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन में सरकारी दख़ल की दिशा तय की.

फ़ली नरीमन ने संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अल्पसंख्यक अधिकारों के समर्थन में मामले में दलील दी. आला अदालत की 11 जजों की बेंच ने फ़ैसला सुनाया कि निजी शिक्षा संस्थानों को अपने प्रतिष्ठान बनाने और चलाने का अधिकार होगा. साथ ही अदालत ने संविधान के अनुच्छेद-30 को भी दोबारा जांचा. बेंच में बहुमत की राय थी कि कोई धार्मिक या भाषाई समुदाय अल्पसंख्यक है या नहीं, ये केवल राज्य तय कर सकता है.

फ़ली एस नरीमन

# जयललिता को दिलाई थी बेल

तमिलनाडु की पूर्व-मुख्यमंत्री जयललिता पर अपने कार्यकाल के दौरान पैसों के हेर-फेर के आरोप लगे थे. सितंबर, 2014 में बेंगलुरु की एक सत्र अदालत ने पाया कि उनकी संपत्ति उनकी बताई से कहीं ज़्यादा है. अदालत ने उन पर 100 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया. एक महीने बाद कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी इस सज़ा को बरक़रार रखा. फिर मामला पहुंचा आला अदालत में.

अक्टूबर, 2014 में फ़ली एस नरीमन ने जयललिता की तरफ़ से केस लड़ा. उन्हें ज़मानत दिलवाई और बैंगलोर सत्र न्यायाधीश की सज़ा को भी निलंबित करवा दिया.

# नर्मदा बचाओ आंदोलन

गुजरात सरकार को नर्मदा नदी के तीरे बांध बनवाना था. इसके लिए लगभग ढाई लाख लोगों का पुनर्वास करवाना था. मगर पुनर्वास नीति में कमियां थीं. विरोध प्रदर्शन हुए, ख़ून-ख़राबा भी हुआ.

इस केस में नरीमन नर्मदा पुनर्वास केस में गुजरात सरकार के वकील थे. हालांकि, ईसाइयों की 'हत्या' के बाद उन्होंने केस छोड़ दिया. उन्होंने बार ऐंड बेंच से कहा,

ईसाइयों को प्रताड़ित किया जा रहा था. बाइबल जलाई गईं, यहां तक कि ईसाई पुरुषों और महिलाओं को भी मारा भी गया. मैंने इसका विरोध किया. मैं मंत्री के पास गया और मुझसे कहा गया कि बाइबिल और ईसाइयों को जलाना नहीं होगा, लेकिन फिर भी ऐसा हुआ. फिर मैंने ब्रीफ़ वापस कर दिया.

क़ानून में दिल और दिमाग़, दोनों चाहिए. करुणा बहुत ज़रूरी है. वकीलों में और ख़ास तौर पर न्यायाधीशों में.

नरीमन ने 1993 के सेकेंड जज केस और 1998 के थर्ड जज केस में भी बहस की है और जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था को पक्ष में तर्क किया. उन्होंने कई इंटरव्यूज़ में कहा है,

मुझे अभी भी जजों पर भरोसा है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें कैसे नियुक्त किया गया है, ज़रूरी ये है कि उन्हें क्यों नियुक्त किया गया है.

हालांकि, नरीमन कोलेजियम व्यवस्था के बहुत मुरीद नहीं थे. साफ़ कहते थे कि कॉलेजियम प्रणाली बेकार है. अमेरिकी सिस्टम है, यहां काम नहीं करेगा. मगर नियुक्ति कौन करेगा? इस बारे में उनका मत साफ़ नहीं था. बस इतना चाहते थे कि जो भी नियुक्त हो, उसमें कुछ बात होना चाहिए. 

‘अंतिम इच्छा’

नरीमन अपने करियर और जीवन में नागरिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के कट्टर समर्थक रहे हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद-370 के निरस्त किए जाने के फ़ैसले को सही ठहराया था. इंडियन एक्सप्रेस के लिए एक कॉलम में नरीमन ने लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा फ़ैसला भले ही राजनीतिक तौर पर स्वीकार्य हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर सही नहीं है.

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भारतीय क़ानूनी इतिहास के ‘पितामह’ गुज़र गए. उनकी विरासत, उनके विचार आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे. उनकी आत्मकथा ‘बिफ़ोर मेमरी फ़ेड्स’ बहुत ज़्यादा पढ़ी गई, ख़ासकर क़ानून के छात्रों और युवा वकीलों के बीच. इसके अलावा उन्होंने ‘द स्टेट ऑफ नेशन’ और ‘गॉड सेव द ऑनरेबल सुप्रीम कोर्ट’ जैसी किताबें भी लिखी हैं.

अपने गुज़र जाने की इच्छा उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा थी:

“मैं एक धर्मनिरपेक्ष भारत में रहा हूं, और यहीं फला-फूला हूं. मैं चाहता हूं, जब मेरा समय आए तो मैं एक धर्मनिरपेक्ष भारत में ही अंतिम सांस लूं.”

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