डियर पुरुष! शौक-ए-सिलबट्टा-ए-चटनी है तो पीसने का हुनर पैदा कर, बन आत्मनिर्भर
चलती है मिक्सी उड़ती है धूल, जलते हैं अंकल खिलते हैं फूल.
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Silbatte का खाना स्वादिष्ट होता है, इसमें कोई दो राय नहीं है. पर सिलबट्टा बहुत मेहनत और वक्त मांगता है. ऐसे में उसे मिक्सी से रिप्लेस करके स्वाद बिगाड़ने का दोष औरतों के सिर डालना बहुत गलत है. सिलबट्टे वाली फोटो हमने फोटोग्राफर और फिल्म प्रोड्यूसर अतुल कस्बेकर के ट्विटर से ली है. और दूसरी फोटो पेक्सेल की है.
ये सुविचार फेसबुक पर लिखे हैं शंभुनाथ शुक्ल ने. वरिष्ठ पत्रकार हैं. फेसबुक पर इनके 28 हज़ार से ज्यादा फॉलोअर्स हैं. ऊपर लिखी इनकी बात को तीन बिंदुओं में समझते हैं. आसान भाषा में.
1. किचन का काम इतनी मेहनत मांगता है कि अगर आप रोज़ स्वादिष्ट खाना बनाने लगें तो फिट रहने के लिए आपको किसी व्यायाम की ज़रूरत नहीं होगी.
2. स्वाद तो सिलबट्टे में पिसी चटनी में ही होता है. मिक्सी वाली चटनी में बात कहां.
3. औरतों ने (किचन में सिलबट्टे की जगह मिक्सी लाकर) खाने का जायका बिगाड़ दिया है.
पहला बिंदु पढ़कर लगता है कि ये व्यक्ति कितना समझदार है. जो मानता है कि किचन में दिनभर खटने वाली औरतें कितनी मेहनत करती हैं. घरों में रोज़ तीन से चार टाइम का खाना पकाने वाली औरतों के श्रम को समझता है. उसका सम्मान करता है. और उनकी दूसरी बात से तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति असहमत होगा. सिलबट्टे की चटनी का स्वाद. अलग ही नॉस्टैल्जिया है उसका. तो ऊपर के दोनों बिंदुओं के 20 नंबर अपन ने उनको बिना किसी मोलभाव के दे दिए.

फिर आई तीसरी बात. औरतों ने खाने का ज़ायका बिगाड़ दिया. इस पर मेरे मन में कुछ सवाल आए-
1. अगर आपको सिलबट्टे की चटनी इतनी ही पसंद है तो आप खुद काहे नहीं पीस लेते? स्वाद का मामला है, आपका स्वाद आप बेहतर समझते हैं. मतलब क्या सिलबट्टा पुरुषों की छुअन से कोमल हो जाता है. कि वो ठीक से काम नहीं कर पाता?
2. मुझे पता है आपके मन से आवाज़ निकलेगी, हम कर तो दें. पर औरतों के हाथों का स्वाद कहां से ला पाएंगे. तो जब आप खुद ऐसा खाना नहीं बना सकते जिसे आप खा सकें, तो खाने के स्वाद की जिम्मेदारी किसी और पर कैसे थोप सकते हैं? मतलब खाना क्या अपने बनाने वाले का जेंडर देखकर स्वाद बदलता है? फिर संजीव कपूर, रणवीर बराड़ जैसे सेलिब्रिटी शेफ्स कैसे मिल गए हमें. और ये भी बड़ी आयरनी है कि जब प्रोफेशन की बात आती है तो स्वाद का ठेका पुरुष अपने सिर लेने में ज़रा भी नहीं कतराते. पर घर पर बात अलग हो जाती है.
3.और दरतिया. कुछ इलाकों में जांता कहते हैं इसे. ये वही पारंपरिक यंत्र है जिससे पहले घरों में गेहूं पीसा जाता था. चने और अरहर को उसमें डालकर दाल निकाली जाती थी. चने को थोड़ा ज्यादा पीसकर बेसन निकाला जाता था. यानी पहले औरत गेहूं दरतिये में पीसे, फिर आटे को बढ़िया गूंदें, गोल रोटी बेलना मस्ट है और फिर चूल्हा बारकर, लोहे के तवे और चिमटे में उसे सेंकें. रोटी के साथ दाल भी लगती है, तो औरत दाल भी दरे, और फिर उसे चूल्हे पर पतीला रखकर मद्धम आंच में पकाए. ये कैसा मज़ाक है?

4. सबसे ज़रूरी बात, औरतों की सेहत को लेकर आपकी चिंता देखकर दिल भर आया मेरा. आपने लिखा सिल बट्टा, दरतिया के इस्तेमाल से गाठिया और वात की बीमारी दूर होती है, इससे वज़न कम होता है. सही बात, पर सेहत के लिए क्या सिर्फ वर्जिश ही काफी है? आराम और पौष्टिक खाना नहीं? आप किसी भी योग या फिटनेस ट्रेनर या डॉक्टर के पास चले जाएं. वो आपको यही बताएंगे कि वज़न कम करने में 80 प्रतिशत योगदान डायट का होता है, 20 प्रतिशत व्यायाम का. और उनमें से हर व्यक्ति आपसे कहेगा कि दो ट्रेनिंग सेशन के बीच आपको अपने शरीर को पर्याप्त आराम देना चाहिए. और स्वादिष्ट खाना बनाने की जिन पद्धितियों का आप जिक्र कर रहे हैं वो घंटों की मेहनत मांगते हैं. शायद सुबह उठते ही रसोई में घुस जाने और देर रात सबके खाने के बाद रसोई से निकलने को आप वर्जिश मानते हैं, कोई भी समझदार इंसान इसे ज्यादाती ही मानेगा.
और आपको पता है नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, साल 2019 में भारत में 66.4 प्रतिशत औरतें एनिमिया से ग्रस्त थीं. मतलब जिस देश में आधी से ज्यादा औरतों को पौष्टिक खाना नहीं मिल पा रहा है, वहां आप सिलबट्टे और दरतिया से वज़न घटाने का लॉजिक दे रहे हैं. सेहत की चिंता है, तो आपने ये बात क्यों नहीं कि औरतों को खाने के लिए पर्याप्त फल मिलने चाहिए? तो आपने ये क्यों नहीं कहा कि घर की औरत के पहले खाना खा लेने में कोई बुराई नहीं है? तो आपने इस बात की वकालत क्यों नहीं की कि घरों में होने वाला दूध-दही औरतों को पर्याप्त मात्रा में दिया जाए?
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अब जनता हमसे पूछेगी, भई तुम्हारी दिक्कत क्या है. घरों में औरतें खाना बनाती हैं. अब वो सिलबट्टे की जगह मिक्सी यूज़ करती हैं. तो उनको ही न कहा जाएगा? तो पहले औरतें होती थीं भोली. जिन्हें ट्रेन ही इसी तरह किया जाता था कि ससुराल में राज करना है तो पति को खुश रखो. पति को खुश रखना है तो उसे उसके मन का खाना बनाकर दो. याद आई... पति के दिल का रास्ता... वाली बकवास. तब ज्यादातर औरतों को पढ़ने नहीं दिया जाता था. उन्हें पता ही नहीं होता था कि उनके अधिकार क्या हैं. उन्हें यही सिखाया जाता था कि थोड़ा बहुत पढ़ने के साथ-साथ घर के सारे काम सीख लो. खाना बनाना तो सबसे ज़रूरी स्किल है. और सिलाई कढ़ाई आती हो तो सोने पर सुहागा.अब स्थिति कुछ बदली है. फिर भी ज्यादातर औरतें बाकी कामों के लिए हाउस हेल्प लगा भी लें तो भी वो रसोई का काम खुद करना प्रिफर करती हैं. इसकी एक वजह है, उन्हें दी गई ट्रेनिंग कि 'कितना भी पढ़ लिख लो, कुछ भी बन जाओ. सब काम के लिए तो नौकर रख लोगी पर खाना तो खुद ही बनाना पड़ेगा.' कई औरतें इस कंडीशनिंग से बाहर ही नहीं निकल पाईं और कई को निकलने नहीं दिया गया. ऐसे में ये औरतें दफ्तर के काम के बीच या अगर हाउस वाइफ हैं तो घर के बाकी काम, बच्चों को संभालने और उनको पढ़ाने की ज़िम्मेदारी के बीच रसोई संभालती हैं.

जब मेरे घर पहली बार मिक्सी आई तब मेरी उम्र कुछ 8-9 साल रही होगी. उससे पहले मैंने देखा है शादियों में औरतों को सिलबट्टे पर घंटों लगाकर हल्दी पीसती अपनी बुआ और बहनों को. मैंने अपनी भाभियों को घंटों लगाकर दाल पीसते देखा है सिलबट्टे पर ताकि घरवालों को बढ़िया बड़े खाने को मिल जाएं. मिक्सी ये काम मिनटों में कर देती है. जितनी बारीक चाहिए आप उस हिसाब से पीस लीजिए. क्या शुक्ल जी और उनके समर्थकों को इस बात से दिक्कत है कि मिक्सी के आने से औरतों का किचन टाइम कुछ घट गया है और थोड़ा वक्त वो अपने लिए निकाल पाती हैं? क्या इस बात से परेशानी है कि अब वो टीवी का रिमोट मांगती हैं? या खाली वक्त में किताबें पढ़ती हैं? या सोशल मीडिया पर वक्त बिताती हैं? आपको इस बात का डर तो नहीं कि सोशल मीडिया पर फेमिनिस्म की हवा कहीं उन्हें भी न छू ले?
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ये बात यहीं पर खत्म हो सकती थी. लेकिन शंभूनाथ जी ने ऐसा होने नहीं दिया. बवाल बढ़ गया था. तो पहला पोस्ट डिलीट करके शंभूनाथ जी ने दूसरा पोस्ट लिखा. पर बदले में जो लिखा वो भी पुरुषवादी सोच से लिथड़ा हुआ. बताते हैं बिंदुवार-- आधुनिकता के नाम पर दिमाग़ में काई जमने लगी है. सिलबट्टा से लाखों लोगों की रोज़ी चलती थी, उसे टांकने वाले अब कहां मिलते हैं? ऐसी ही सोच ने काज-बटन करने वालों, दर्ज़ियों, मोचियों, धोबियों, मालियों और तमाम परंपरागत व्यवसाय के लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया. कलई करने वाले अब ढूंढे नहीं मिलेंगे. पहले गुजरात और बंगाल के तटवर्ती इलाक़ों में बसे अल्बानिया के लोग घरों में जाकर पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन देते थे. ये लोग सबसे पहले भारत आए थे और विशुद्ध भारतीय बन गए थे, अब वह पूरी बिरादरी ग़ायब हो गई है.
- चीन और तिब्बत की औरतें. आत्मनिर्भर होती हैं. अपने रेस्रां चलाती हैं. आपने फायदा उठाने की कोशिश की तो पीट देंगी, ऐसी औरतें. उनके यहां भी 'परंपरागत रूप से' सिलबट्टा और लोहड़ा मिल जाएगा. ये महिलाएं आत्मनिर्भरता का ढोंग नहीं पालतीं. उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में मशीनीकरण ने ऐसा ग़ुलाम बना लिया है, कि ज़रा भी हट कर बात की जाए तो ऐसे बाबा और बाबी लोगों की अस्मिता, सोच और संस्कार पर जैसे डाका पड़ जाता है, इस तरह चीखने लगते हैं.
- मैंने कल एक पोस्ट लिखी थी- “अगर आप स्वस्थ रहना चाहते हैं तो योग और रस्सा-कूद के फ़रेब में न पड़िए। अच्छे पाकशास्त्री बनिए, घर में सिल-बट्टा और दरतिया ज़रूर रखिए। कैथा, मेथी दाना और नारियल की चटनी सिर्फ सिल-बट्टे से ही बन सकती है। मिक्सी की बजाय सिल-बट्टे पर पिसी चटनी का जायका ही अलग है। और अगर दाल बाटनी हो तो इसके लिए सिलबट्टा जरूरी है। इसी तरह मसाले पीसने के लिए दरतिया रखें। थोड़ा बहुत चना और जौ पीस सकते हैं। इन दोनों के इस्तेमाल से गठिया और वात की बीमारी नहीं होगी”।इसके बाद जो बवाल मचा कि स्वतंत्रचेता और अपने को कथित प्रगतिवादी बताने वाले लोगों ने हंगामा कर दिया। फ़ेसबुक पर रोना रोया और भी कई मंचों पर। ऐसे लोगों के चाल और चेहरे पर क्या टिप्पणी की जाए!

पहला पॉइंट. मैं नहीं जानती कि शंभूनाथ जी देश के किस इलाके में रहते हैं. मैं नोएडा शहर में रहती हूं. वहां मुझे दर्ज़ी, जूते ठीक करने वाले, माली, कपड़े धोने-इस्त्री करने वाले तमाम जगहों पर मिल जाते हैं. बड़ी आसानी से. कई ऐसे भी मिलते हैं जो बिज़ी होते हैं और बाद का वक्त भी देते हैं. छत्तीसगढ़ के मेरे गांव में आज भी पुराने कपड़ों और बालों के बदले बर्तन, दरी बेचने वाले लोग अब भी आते हैं.
दूसरा पॉइंट, इसमें लेखक उसी पुरुषवादी सोच से ग्रस्त दिख रहे हैं जो ये मानता है कि औरत चाहे जो कर ले, उसकी असली जगह किचन में ही है. 'आत्मनिर्भरता का ढोंग' क्या होता है, मैं ये ज़रूर उनसे समझना चाहूंगी? और ये जो भी चीज़ है मुझे यकीन है कि ये ढोंग पुरुष भी करते होंगे. क्या मैं ये मानकर चलूं कि हिंदी पट्टी को मशीनीकरण का गुलाम बताने वाले ये शख्स आज भी साइकिल से चलते होंगे? क्योंकि उसके ऊपर के सारे वाहन तो मशीन से ही चलते हैं. मतलब बहुत पॉसिबल है कि ऐसे व्यक्ति सर्दी में नहाने के लिए गर्म पानी मांगेंगे, पर बीवी अगर चूल्हा जलाने की बजाए इमर्शन रॉड या गीज़र की मांग कर दे तो शायद ये उन्हें मशीनीकरण की गुलाम बताएंगे. पर ये क्या, जिस मोबाइल या कम्प्यूटर पर उन्होंने इतना लंबा पोस्ट लिखा. वो भी तो मशीन ही है. और हां आप गलत बात कहेंगे तो लोग चीखेंगे ही. टोकेंगे ही.
तीसरे पॉइंट से ये एकदम साफ हो गया कि उन्होंने अपना पिछला पोस्ट डिलीट क्यों किया. दरअसल उन्हें अपने पहले पोस्ट की गलती पता चल गई. ध्यान से पढ़ें, पता चल गई, समझ नहीं आई. तो उसे ढांपने के लिए उन्होंने नया पोस्ट लिखा. और बड़ी ही सहूलियत के साथ 'औरतों ने किचेन के सुस्वादु भोजन का जायका बिगाड़ दिया है... ' वाली लाइन हटा दी. आपको समझ में आई?
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वैसे इन जनाब की इन बातों का मैत्रेयी पुष्पा सरीखी कथित नारीवादी लेखिका ने भी समर्थन कर दिया. मैत्रेयी ने कमेंट किया कि कैसे उनके घर में अभी भी सिलबट्टा यूज़ होता है. दाल पकाने के लिए कुकर का इस्तेमाल नहीं होता. ये भी बताया कि रसोई के मामले में वो ग्रामीण से भी ज्यादा ग्रामीण हैं. साथ में उन्होंने लिखा,
शम्भूनाथ जी, आपने भूल की ही नहीं तो स्वीकार क्यों की? खाना अपनी पसंद का होता है, ज़रूरी नहीं कि खाना मशीनों से ही बनाया जाए.तो मैत्रेयी जी. बहुत अच्छी बात है कि आप महानगर में रहते हुए सिलबट्टे का इस्तेमाल करती हैं. शायद चूल्हा भी जलाती हों. और ये आपकी पसंद का मसला है कि आप कैसी और किसमें पकी दाल खाती हैं. मुझे उम्मीद है कि ये सब आप अपनी पसंद के हिसाब से करती हैं और ये किसी और की थोपी हुई पसंद नहीं है.
मुझे कुकर में बना चावल कम पसंद है, पतीले पर मद्धम आंच पर पकाकर, माड़ निकालकर भात पकाती हूं मैं. और वही खाती हूं. इसका ये मतलब नहीं कि कुकर में चावल बनाने वाली औरतों को कोई गलत कहे तो उसका समर्थन करूं. एक शख्स देश की आधी आबादी के सिर स्वाद को बिगाड़ने का दोष मढ़ रहा है, इसमें आपको कोई बुराई नहीं दिखती? और ये कहते हुए वो शख्स खाना पकाने को सिर्फ और सिर्फ औरत की ज़िम्मेदारी बता रहा है, इसमें आपको सब ठीक लगता है? हां खाना अपनी पसंद का होता है. पर अपनी पसंद का खाना वो पुरुष खुद क्यों न बनाए जिसे आप सही ठहरा रही हैं? अगर खाना पकाना नहीं आता तो इस तरह अपनी पुरुषवादी सोच का बखान करने की बजाए क्यों न वो खुद सिलबट्टे पर बैठे, मसाले, चटनी, दाल उस महिला को पीसकर दे जिसको अपने स्वाद की जिम्मेदारी उन्होंने दे रखी है?
आप जैसी नामी लेखिकाएं इस तरह की बात लिखती हैं तो दिल दुखता है. आप इतने बड़े मसले को एक अपनी रसोई पर समेटकर कैसे देख सकती हैं? आप कैसे उस बात को सही बता सकती हैं जो विशुद्ध पैट्रिआर्की से उपजा है?
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शंभूनाथ शुक्ल जैसे कई और पुरुष हैं जो कपड़ों के जल्दी रंग उड़ने का दोष भी औरतों पर मढ़ते हैं. तर्क देते हैं कि औरतें आलसी हो गई हैं, इसलिए कपड़े मशीन में धोती हैं. इससे कपड़े जल्दी खराब होते हैं. फट जाते हैं, उनका रंग जल्दी उड़ जाता है. औरतें काहिल न होतीं तो कपड़े मुलायम बने रहते. कुछ और भी हैं जिनको गैस-चूल्हे के बने खाने में स्वाद नहीं आता, पारंपरिक चूल्हे का खाना ही उनका पाचनतंत्र ठीक रखता है. पर चूल्हा जलाने की 'ज़रा सी' मेहनत से बचने के लिए औरतों ने पुरुषों को गैस की प्रॉब्लम दिला दी. भले आपकी गैस सही रखने के लिए चूल्हे के धुएं के बीच औरतें अपने लिए टीबी और कैंसर जैसी बीमारियों को क्यों न दावत दे दें?
चलते-चलते, आखिरी बात शंभूनाथ जी के लिए. ये मेरी अपनी बात है. पाक कला में मेरी परफॉर्मेंस बहुत औसत है. और मुझे सिलबट्टे की चटनी बहुत पसंद है. तो मैंने खुद भी चटनी पीसकर देखी है. स्वाद तो क्या बताऊं आपको! आप भी ट्राई कीजिएगा, सिलबट्टा, चूल्हा, बर्तन और कपड़े धोने के साबुन जेंडर नहीं देखते, नीयत अच्छी है तो रिजल्ट तसल्ली बख्श ही आएगा. हो सकता है ट्राई करेंगे तो पता चलेगा कि जब ठीक से पिस नहीं रहा होता, या सही टेक्स्चर नहीं आ रहा होता तो कितनी फ्रस्ट्रेशन होती है, तब आपको पता चलेगा कि उससे हाथ जलते और दुखते हैं, गांव वाला सिस्टम हो तो उकड़ू बैठकर, थोड़ा झुककर सिलबट्टा चलाना पड़ता है, तो पैर और गर्दन भी दुखती है. और तब शायद आप बेहतर समझ पाएंगे कि औरतों ने सिलबट्टे की जगह मिक्सर को क्यों चुना.
तो महोदय, स्वाद की परंपरा को अगर आगे बढ़ाना है तो मशाल अपने हाथ में लीजिए. किसी और के कंधे का सहारा कब तक लेंगे?