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एक निर्दोष को बली का बकरा बनाया: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुलिस ने झूठे सबूत लगाकर एक निर्दोष को फँसाया और फेयर ट्रायल के ज़रूरी नियमों की पूरी तरह अनदेखी की. आरोपी को वकील और बचाव का मौका तक नहीं दिया गया.

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कोर्ट
आरोपी दश्वंत जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया
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कनुप्रिया
23 अक्तूबर 2025 (Published: 08:25 PM IST)
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सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चेन्नई के एक आदमी दश्वंथ को 2017 के एक रेप-मर्डर केस से बरी कर दिया. एक छोटी बच्ची का रेप हुआ था. कोर्ट ने कहा कि इस पूरे केस में फेयर ट्रायल यानी एक ईमानदार और निष्पक्ष मुकदमे के जो ज़रूरी नियम होते हैं, वो माने ही नहीं गए. पुलिस ने दश्वंथ को बलि का बकरा बना दिया और झूठे सबूत लगाकर उसे फँसाया.

जजों की बेंच जस्टिस विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता ने कहा कि पूरा केस सिर्फ सरकम्सटैंशियल एविडेंस पर टिका था. सरकम्सटैंशियल एविडेंस माने ऐसा सबूत जो सीधे नहीं बताता क्या हुआ, लेकिन संकेत देता है कि क्या हुआ होगा.

मसलन, किसी के हाथ में मिट्टी लगी है और पास में गड्ढा खोदा गया है. तो ये सरकम्सटैंशियल एविडेंस है कि शायद उसी ने गड्ढा खोदा होगा.

जैसे (1) “लास्ट सीन टुगेदर” वाला थ्योरी कि आखिरी बार बच्ची को दश्वंथ के साथ देखा गया था, (2) मंदिर के पास लगे CCTV फुटेज में दश्वंथ की हरकतों पर संदेह जताया गया, (3) और तीसरा उसका एक कंफ़ेशनल स्टेटमेंट यानी गवाही जिससे पुलिस ने कुछ चीज़ें बरामद करने का दावा किया जैसे बच्ची की बॉडी, उसके कपड़े, पेट्रोल की बोतलें और गहने वगैरह.

कोर्ट ने जब केस की फाइलें और सबूत देखे तो बोला कि शुरुआत से ही मुकदमा एकतरफ़ा था. दश्वंथ को अपने बचाव का पूरा मौका ही नहीं दिया गया. चार्ज लगने के वक्त वो बिना वकील के था, और उसे लीगल एड वकील भी बहुत बाद में, 13 दिसंबर 2017 को दिया गया जबकि चार्ज तो 24 अक्टूबर को ही लगा दिए गए थे.

प्रॉसिक्यूशन ने जिन डॉक्युमेंट्स पर भरोसा किया, वो भी दश्वंथ को दिए ही नहीं गए. CrPC के सेक्शन 207 का पालन ही नहीं हुआ. ऊपर से कोर्ट ने कहा कि 30 गवाहों की गवाही सिर्फ चार दिन में पूरी करने की तारीख रख दी गई वो भी तब जब आरोपी के पास कोई वकील नहीं था. कोर्ट ने कहा कि ये सब संविधान के Article 21 और 22(1) (जो हर व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई और वकील पाने का अधिकार देते हैं) की पूरी तरह अनदेखी थी.

बेंच ने कहा कि कोर्ट और राज्य दोनों की जिम्मेदारी होती है कि किसी आरोपी को, खासकर जब सज़ा मौत तक की हो सकती है, बचाव का पूरा मौका दिया जाए. लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं.

कोर्ट ने ये भी कहा कि सज़ा देने की प्रक्रिया भी पूरी तरह गलत थी. बच्चन सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब जैसे बड़े केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो गाइडलाइन्स दी थीं जैसे आरोपी की मानसिक हालत, जेल में उसका बर्ताव, कम और ज़्यादा गंभीर हालात की रिपोर्ट कुछ भी नहीं लिया गया.

अब कोर्ट चाहती तो केस को ट्रायल कोर्ट में वापस भेज सकती थी, पर 8 साल गुजर चुके थे, और दश्वंथ इतने सालों से केस झेल ही रहा था, इसलिए कोर्ट ने सीधे सबूतों के आधार पर फैसला दे दिया और पाया कि उसका दोष “बियॉन्ड रीज़नेबल डाउट” साबित नहीं हुआ.

एक अधिकारी ने भी कहा कि उसे आरोपी की “कबूलियत” के बारे में पहले से बता दिया गया था, यानी गिरफ्तारी से पहले ही कहानी तैयार थी.

आख़िर में कोर्ट ने साफ़ कहा “ये पूरा केस एक कमजोर जांच पर टिका था और पुलिस ने सच्चाई छिपाकर एक निर्दोष को फँसाया.”


 

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