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पहले की तस्वीरों में लोग हमें मुस्कुराते क्यों नहीं दिखते थे?

तस्वीरों में स्माइल करने में हमें 100 साल लग गए. पता है क्यों.

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फोटो - thelallantop
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रुचिका
19 अगस्त 2020 (Updated: 19 अगस्त 2020, 10:21 AM IST) कॉमेंट्स
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वॉट्सऐप पर आने वाली वो 'सस्ती' लाइन तो आपने पढ़ी ही होगी कि अगर पांच सेकेंड की स्माइल आपकी एक फोेटो को इतना सुंदर बना सकती है, तो सोचिए हमेशा स्माइल करने पर आपकी पूरी ज़िदगी कितनी सुंदर हो जाएगी. लोगों के पास इसका जवाब भी होता है कि 'यार, पूरे दिन बत्तीसी दिखाते रहेंगे, तो लोग हमें पागल समझेंगे.'

वैसे आपको जानकर हैरानी होगी कि एक दौर ऐसा था, जब फोटो खिंचाते समय स्माइल करना पागलपन माना जाता था. लोग फोटो खिंचाते थे, लेकिन हंसते नहीं थे. 19वीं सदी और 20वीं सदी की शुरुआत की तस्वीरों में हमें लोग शादियों जैसे बड़े मौकों पर भी दुखी चेहरा बनाए दिखते हैं. वो शादी की कम और मातम की तस्वीरें ज़्यादा लगती हैं.

अब साल 1900 की ये तस्वीर ही देख लीजिए. शादी की इससे डिप्रेसिंग फ़ोटो भला खींची होगी किसी ने...

sad marriage

पर क्या आप जानते हैं कि पहले लोग तस्वीरों में ऐसे क्यों दिखते थे, जैसे उन्हें किसी ने उनकी जिंदगी की सबसे बुरी खबर सुना दी हो? इस पर कई लोगों ने रिसर्च की और जो नतीजे आए, वो आपके सामने हैं:


#1. टेक्नोलॉजी का दोष

19वीं सदी में कैमरा एक्सपोज़र के लिए लंबा समय लेता थे. कोई कैमरा फ़ोटो खींचने में जितना समय लेता है, उसे एक्सपोज़र टाइम कहते हैं. आज बटन दबाने पर तुरंत के तुरंत फ़ोटो खिंच जाती है, लेकिन एक समय ऐसा था, जब एक फ़ोटो लेने में 8-10 मिनट लग जाते थे. ऐसे में लोगों को इतनी देर तक बिना हिले-डुले खड़े रहने को कहा जाता था, ताकि फोटो ब्लर न आए.

old old old

दुनिया की पहली फ़ोटो 1820 के दशक में ली गई थी. चूंकि कैमरे बहुत ज़्यादा एक्सपोज़र टाइम लेते थे, इसलिए फ़ोटो में स्माइल बनाए रखना बड़ा मुश्किल हो सकता था. वहीं गंभीर चेहरा बनाए रखना ज़रा आसान. 1900 तक कैमरे कम एक्सपोज़र टाइम लेने लगे. फिर भी आज के कैमरों के मुकाबले वो स्लो थे. लेकिन इतने भी स्लो नहीं कि लोगों की स्माइल कैद न कर सकें.


#2. जब कैमरे नहीं थे, तब लोग खुद की पेंटिंग्स बनवाया करते थे- यानी कोई स्माइल नहीं

old photo

जब तक कैमरे का अविष्कार नहीं हुआ था, तब लोग अपनी तस्वीरें बनवाया करते थे. इसमें उन्हें घंटों तक एक ही पोजीशन में बने रहना होता था. इसलिए वो अपने चेहरे पर स्माइल नहीं लाते थे. बिना किसी एक्सप्रेशन के एक ही जगह पर खड़े या बैठे रहते. ये एक्सप्रेशन न देने वाला रिवाज़ कैमरे आने के काफ़ी बाद तक भी बना रहा. हो सकता है लोग कैमरे आने के बाद भी पेंटिंग्स वाला ट्रेंड फ़ॉलो करते हों, इसलिए स्माइल न करते हों. डार्विन चचा की थ्योरी की तरह.


#3. स्माइल को एक समय में बेवकूफ़ाना माना जाता था

आज की जनता को देखो. फोटो खिंचाने से भी एक कदम आगे बढ़ गई है. सेल्फी लेती है. पाउट बनाकर, दांत चियारकर. लेकिन उस समय फ़ोटो में ऐसा करना सिर्फ़ बच्चों, एंटरटेनर या बेवकूफ़ों का काम समझा जाता था. अमेरिकी लेखक और विचारक मार्क ट्वेन प्रोफ़ेशनली मज़ाकिया व्यक्ति थे, लेकिन फोटो खिंचवाते समय किस तरह का चेहरा बनाते थे, वो आप नीचे देख लीजिए.
mark twain
मार्क ट्वेन

1820 से 1920 तक लोगों को लगभग 100 साल लग गए ये सीखने में कि उन्हें फोटोज़ खिंचवाते वक़्त स्माइल करना चाहिए.

एक थ्योरी ये भी है कि उस समय लोगों को डेंटल प्रॉब्लम्स बहुत होती थीं. इसलिए लोग फोटो में नहीं मुस्कुराते थे. लेकिन जब सबके ही दांत ख़राब हैं, तो दांत दिखाने में क्या बुराई है? यही सोचकर ये वाली थ्योरी कुछ ग़लत मालूम पड़ती है.


जब ऐसा ही है तो ये आदमी क्यों हंसता दिख रहा है?

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अमेरिका के नेचुरल हिस्ट्री लाइब्रेरी म्यूज़ियम में रखी एक तस्वीर

ये तस्वीर 1904 में बर्थोल्ड लॉफ़र ने खींची थी. ये उनके चाइना दौरे के कलेक्शन में से एक है. फ़िलहाल ये अमेरिका के नेचुरल हिस्ट्री लाइब्रेरी म्यूज़ियम में रखी है. फ़ोटोग्राफ़र बर्थोल्ड लॉफ़र एक ऐन्थ्रपॉलजिस्ट थे, यानी इंसानों के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करने वाले. इसलिए वो अपने समय के बाकी फ़ोटोग्राफ़र्स से ज़रा अलग तस्वीरें लेने के मिशन पर थे.

उन्होंने लोगों के अलग-अलग इमोशंस अपने कैमरे में कैद किए. अब हम अपनी मैगी खाते हुए कि तस्वीर फ़ेसबुक पर डाल देते हैं, लेकिन वो यादगार बस हमारे लिए होती है. ये आदमी इस फ़ोटो में चावल खा रहा है, इसमें इतना खुश होने की क्या बात है? लेकिन उस समय ऐसी तस्वीरें कम खींची जाती थी, इसलिए ये सभी के लिए एक यादगार तस्वीर बन गई.




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